दयानन्द सरस्वती

आर्य समाज के संस्थापक व समाज-सुधारक (1824-1883)

महर्षि दयानन्द सरस्वती (12 फरवरी 1824 – 30 अक्टूबर 1883) भारत के एक महान समाजसुधारक, धर्मोपदेशक तथा आर्यसमाज के संस्थापक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से 'सत्यार्थ प्रकाश' सबसे प्रमुख है।

दयानन्द सरस्वती

सूक्तियाँ

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  • ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, अन्तर्यामी, अजर, अमर. अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करने योग्य है।
  • उस सर्वव्यापक ईश्वर को योग द्वारा जान लेने पर हृदय की अविद्यारुपी गांठ कट जाती है, सभी प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं और भविष्य में किये जा सकने वाले पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं, अर्थात ईश्वर को जान लेने पर व्यक्ति भविष्य में पाप नहीं करता।
  • जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान है, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खींच सके वह पण्डित कहाता है।
  • वेदों मे वर्णित सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि 'जीवन' का मूल बिन्दु क्या है।
  • ये 'शरीर' 'नश्वर' है, हमे इस शरीर के माध्यम से केवल एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, 'मनुष्यता' और 'आत्मविवेक' क्या है।
  • क्रोध का भोजन 'विवेक' है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योंकि 'विवेक' नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
  • अहंकार' एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह 'आत्मबल' और 'आत्मज्ञान' को खो देता है।
  • मानव' जीवन मे 'तृष्णा' और 'लालसा' है, और ये दुःख के मूल कारण है
  • क्षमा' करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकी ये मनुष्य को बहुत बङा बना देता है।
  • 'काम' मनुष्य के 'विवेक' को भरमा कर उसे पतन के मार्ग पर ले जाता है।
  • लोभ वो अवगुण है, जो दिन प्रति दिन तब तक बढता ही जाता है, जब तक मनुष्य का विनाश ना कर दे।
  • मोह एक अत्यंन्त विस्मित जाल है, जो बाहर से अति सुन्दर और अन्दर से अत्यंन्त कष्टकारी है; जो इसमे फँसा वो पुरी तरह उलझ ही गया।
  • ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये 'मनुष्य' को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
  • मद 'मनुष्य की वो स्थिति या दिशा' है, जिसमे वह अपने 'मूल कर्तव्य' से भटक कर 'विनाश' की ओर चला जाता है।
  • संस्कार ही 'मानव' के 'आचरण' का नीव होता है, जितने गहरे 'संस्कार' होते हैं, उतना ही 'अडिग' मनुष्य अपने 'कर्तव्य' पर, अपने 'धर्म' पर, 'सत्य' पर और 'न्याय' पर होता है।
  • अगर 'मनुष्य' का मन 'शाँन्त' है, 'चित्त' प्रसन्न है, ह्रदय 'हर्षित' है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का 'फल' है।
  • जिस 'मनुष्य' मे 'संतुष्टि' के 'अंकुर' फुट गये हों, वो 'संसार' के 'सुखी' मनुष्यों मे गिना जाता है।
  • यश और 'कीर्ति' ऐसी 'विभूतियाँ' है, जो मनुष्य को 'संसार' के माया जाल से निकलने मे सबसे बड़े 'अवरोधक' हैं।
  • आत्मा, 'परमात्मा' का एक अंश है, जिसे हम अपने 'कर्मों' से 'गति' प्रदान करते हैं। फिर 'आत्मा' हमारी 'दशा' तय करती है।
  • मानव को अपने पल-पल को 'आत्मचिन्तन' मे लगाना चाहिए, क्योंकि हर क्षण हम 'परमेश्वर' द्वारा दिया गया 'समय' खो रहे है।
  • मनुष्य की 'विद्या उसका अस्त्र', 'धर्म उसका रथ', 'सत्य उसका सारथी' और 'भक्ति रथ के घोड़े हैं।
  • इस 'नश्वर शरीर' से 'प्रेम' करने के बजाय हमे 'परमेश्वर' से प्रेम करना चाहिए, 'सत्य और धर्म, से प्रेम करना चाहिए; क्योंकि ये 'नश्वर' नही है।
  • जिसने गर्व किया, उसका पतन अवश्य हुआ है।

  • वेद सभी सत्य विधाओं कि किताब है, वेदों को पढना-पढाना, सुनना-सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है।
  • मानव जीवन में लोगों के दुखों का मूल कारण ‘तृष्णा’ और ‘लालसा’ होती है।
  • अगर किसी इंसान के मन में शांति है, ध्यान में प्रसन्नता है और हृदय में खुशी है, तो अवश्य ही यह उसके अच्छे कर्मो का फल है।
  • अगर आप इस दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ देते है तो यकीन मानिये आपके पास भी सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
  • मूर्ख होना गलत नही है लेकिन मूर्ख ही बने रहना बिल्कुल गलत है।
  • कोई भी कीमत तब कीमती है, जब कीमत की कीमत खुद के लिए कीमती हो।
  • किसी भी कार्य को करने से पहले सोचना अक्लमंदी होती है और काम को करते हुए सोचना सावधानी कहलाती है, लेकिन काम को करने के बाद सोचना मूर्खता कहलाती है।
  • इंसान को किसी से भी ईर्ष्या नही करनी चाहिए, क्योंकि ईर्ष्या इंसान को अंदर ही अंदर जलाती रहती है, और पथ से भटकाकर पथ को भ्रष्ट कर देती है।
  • निर्बल इंसानों पर दया करना और उनको क्षमा करना ही मनुष्य का निजी गुण होता है।
  • नुकसान की भरपाई करने में सबसे जरूरी चीज है उस नुकसान से कुछ सबक लेना, तभी आप सही मायने में विजेता बन सकते है।
  • पैसा एक वस्तु है, जो ईमानदारी और न्याय से कमाया जाता है, वहीं इसके विपरित अधर्म का खजाना होता है।
  • मानव शरीर नश्वर है, इस शरीर के जरिए आपको एक मौका मिला है खुद को साबित करने का, की मनुष्यता और आत्मविवेक क्या होता है।
  • इंसान के अंदर लोभ वो अवगुण है, जो तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि वो उस इंसान का विनाश नही कर देता है।
  • अहंकार इंसान की वह स्थिति है, जिसमें वह अपने मूल कर्तव्यों को भूलकर विनाश की ओर चला जाता है।
  • आपको अपने नश्वर शरीर से प्रेम करने की बजाय ईश्वर से प्रेम करना चाहिए, सत्य और धर्म से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि ये नश्वर नही है।
  • जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर गर्व किया है, उसका पतन निश्चित हुआ है।
  • क्रोध का भोजन विवेक होता है, इसलिए इससे बचके रहना चाहिए, क्योंकि विवेक नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
  • जो इंसान हर काम से संतुष्ट हो जाए वो ही इंसान इस संसार का सबसे खुशनसीब इंसान होता है।
  • मोह करना जाल की तरह होता है, इसमें जो फंस गया वह पूरी तरह से उलझ जाता है।
  • वह लोग जो दूसरों के लिए अच्छा करते है वह कभी भी आत्म सम्मान और दुरूपयोग के बारे में नही सोचते है।
  • अगर किसी व्यक्ति पर हमेशा ऊँगली उठाई जाती है तो वह व्यक्ति भावनात्मक रूप से ज्यादा समय तक खड़ा नही रह सकता है।
  • वह मनुष्य सबसे अच्छा और अक्लमंद है जो हमेशा सत्य बोलता है, धर्म के अनुसार काम करता है और दूसरों को उत्तम और प्रसन्न बनाने का प्रयास करता है।
  • लोभ कभी समाप्त न होने वाला रोग होता है।
  • आर्य समाज की स्थापना करने का मुख्य उद्देश्य संसार के लोगों का उपकार (भला) करना है।
  • जो ताकतवर होकर कमजोर लोगों की मदद करता है, वही वास्तविक मनुष्य कहलाता है, ताकत के अहंकार में कमजोर का शोषण करने वाला तो पशु की श्रेणी में आता है।
  • सबसे श्रेष्ठ किस्म की सेवा ऐसे व्यक्ति की मदद करना है जो बदले में आपको धन्यवाद कहने में भी असमर्थ हो।
  • आत्मा अपने स्वरुप में एक है, लेकिन उसके अस्तित्व अनेक है।
  • लोगों को कभी भी तस्वीरों की पूजा पाठ नही करनी चाहिए, मानसिक अन्धकार का फैलाव मूर्ति पूजा के प्रचलन की वजह से है।
  • वर्तमान जीवन का कार्य अन्धविश्वास पर पूर्ण विश्वास से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • मनुष्यों के भीतर संवेदना है, इसलिए अगर वो उन तक नही पहुंचता जिन्हें देखभाल की ज़रुरत है तो वो प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन करता है।
  • आप दूसरों को इसलिए बदलना चाहते है ताकि आप खुद स्वतंत्र रह सकें, लेकिन ये कभी ऐसे काम नही करता, इसलिए दूसरों को स्वीकार करिए, तभी आप मुक्त हो सकते है।
  • भारतवर्ष में असंख्य जातिभेद के स्थान पर केवल चार वर्ण रहें। ये जातिभेद भी गुण-कर्म के द्वारा निश्चित हों, जन्म से नहीं। वेद के अधिकार से कोई भी वर्ण वंचित न हो।

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

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  • डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
  • श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
  • फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
  • अन्य फ्रेञ्च लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।
  • महर्षि दयानन्द स्वराज्य के सर्वप्रथम सन्देशवाहक तथा मानवता के उपासक थे। -- लोकमान्य तिलक
  • स्वामी दयानन्द के विषय में मेरा मन्तव्य यह है कि वह हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों, सुधारकों और श्रेष्ठ पुरूषों में अग्रणी थे। उनका ब्रह्मचर्य, समाज सुधार, स्वातन्त्र्य स्वराज्य, सर्वप्रतिप्रेम, कार्यकुशलता आदि गुण लोगों को मुग्ध करते थे। -- महात्मा गांधी
  • सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"
  • वीर सावरकर  ने कहा महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।
  • स्वामी दयानन्द मेरे  गुरु हैं। उन्होंने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया। -- लाला लाजपत राय
  • मैंने स्वराज शब्द सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों से सीखा। -- दादाभाई नौरोजी
  • स्वामी दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दू जाति के रक्षक थे। -- वीर सावरकर
  • स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने देश को किंकर्तव्यविमूढ़ता के गहरे गडढे में गिरने से बचाया। उन्होंने भारत की स्वाधीनता की वास्तविक नींव डाली। -- बल्लभभाई पटेल
  • महर्षि दयानन्द ने राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उद्धार का बीड़ा उठाया। स्वाभी जी ने जो स्वराज्य का पहला सन्देश हमें दिया उसकी रक्षा हमें करनी है। उनके उपदेश सूर्य के समान प्रभावशाली हैं। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन
  • गांधी राष्ट्रपिता हैं तो दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। -- प्रथम लोकसभा अध्यक्ष डॉ० श्री अनन्तशयनम् आयंगर
  • मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरू दयानन्द को जिन्होंने भारत वर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्व के अज्ञान से मुक्तकर सत्य और पवित्रता की जागृति में ला खड़ा किया, उसे मेरा बारम्बार प्रणाम । -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  • स्वामी दयानन्द के जीवन में सत्य की खोज दिखाई देती है इसीलिए वे केवल आर्य समाजियों के लिये ही नहीं अपितु समग्र संसार के लिए पूजनीय हैं। -- कस्तूरबा गांधी
  • महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषों में से थे जिन्होंने आधुनिक भारत का विकास किया जो उसके आवार सम्बंधी पुनरूत्थान तथा धार्मिक पुनरूत्थान के उत्तरदाता हैं। हिन्दू समाज का उद्धार करने में आर्य समाज का बहुत बड़ा हाथ है। संगठन कार्य दृढ़ता, उत्साह और समन्वयपालकता की दृष्टि से आर्य समाज की समता कोई और समाज नहीं कर सकता। -- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
  • स्वामी दयानन्द संस्कृत के बड़े विद्वान् और वेदों के बहुत बड़े समर्थक थे। उत्तम विद्वान् के अतिरिक्त साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके अनुयायी उनको देवता मानते थे और बेशक वे इसी लायक थे। हमसे स्वामी दयानन्द की बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत आदर करते थे। वह ऐसे व्यक्ति थे जिनकी उपमा इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। -- सर सैयद अहमद खाँ

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