सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ है।

उक्तियाँ

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  • वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।
  • जो पूर्ण विद्यायुक्त हैं, वे ही शिक्षा देने योग्य हैं।
  • तीर्थ दुःख ताड़ने का नाम है - किसी नदी सरोवर या सागर में स्नान करने का नहीं। इसी तरह आत्मा के सुगम विचरण को स्वर्ग और पुनर्जन्म के बंधन में पड़ने को नरक कहते हैं। ऐसी कोई दूसरी और तीसरी दुनिया नहीं है।
  • जुबान की अपेक्षा आचरण से उपदेश देना अधिक प्रभावकारी है।
  • सबसे महान धर्म है अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।
  • जब तुम छल से मनुष्यों को ठग कर उनकी हानि करते हो, तो परमेश्वर के सामने क्या उत्तर दोगे, और घोर नरक में पड़ोगे, थोड़े से जीवन के लिए इतना बड़ा अपराध करना क्यों नहीं छोड़ते।
  • जो अध्यापक पुरूष और स्त्री दुष्टाचारी हो उनसे शिक्षा न दिलावे, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक हों, वे ही पढ़ने और शिक्षा देने योग्य हैं।
  • किसी का अनुचित पक्षपात मत करो और न धर्मात्मा को अपने हृदय में स्थान दो।
  • प्राणी मात्र पर दया दिखानी चाहिए।
  • किसी का मन दुखाना संसार में सबसे महान पाप है
  • अनाथों, विधवाओं, दीन-दुखी जनों की सहायता और सामाजिक सुधार करने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • आर्य भाषा (हिन्दी) ही भारत की राजभाषा है।
  • जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहलाता है जो पदार्थ सत्य है उसके गुण, कर्म और स्वभाव भी सत्य होते हैं जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता।
  • अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होनी चाहिए।
  • यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसलिए इस भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है।
  • अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हों और हम लोग पराधीन कभी न हों।
  • जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करे तो दारिद्रय और दुःख के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।
  • ब्राह्मण और साधु अपने गुण, कर्म, स्वभाव से होते हैं, परोपकार उनका परम कर्म है। ब्राह्मण और साधु के नाम से उत्तम जनों ही का ग्रहण होता है।
  • श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म जीवित पात्रों जैसे माता, पिता, पितर, गुरु आदि के लिए होता है, मृतकों के लिए नहीं।
सच्चे आभूषण

सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता-पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु का भी सम्भव है। संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालकादिकों का मृत्यु दुष्टों के हाथों से होता है।

प्राणायाम से मन की शुद्धि

प्राणायाम से मन इन्द्रियों की शुद्धि जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।

माता द्वारा सन्तानों को शिक्षा

जब पांच वर्ष के लड़का-लड़की हों तब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावे। अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। उसके पश्चात् जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म, परमेश्वर, माता-पिता, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, राजा-प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि से कैसे-कैसे वर्त्तना इन बातों के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थसहित कण्ठस्थ करावे जिससे सन्तान कभी धूर्त के बहकावे में न आवे।

माता का कर्त्तव्य

बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा करे, जिससे सन्तान सभ्य हों और किसी अंग से कुचेष्टा न करने पावें। जब बोलने लगे तब उसकी माता बालक की जिह्ना जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न अर्थात् जैसे ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान और स्पृष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना; ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक-ठीक बोल सकना। मधुर, गम्भीर, सुन्दर स्वर, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे। जब कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े-छोटे मान्य, माता-पिता, राजा, विद्वान् आदि से भाषण, उनसे वर्त्तमान और उनके पास बैठने आदि की भी शिक्षा करे जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार न होके सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे। जैसे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्संग में रुचि करें वैसा प्रयत्न करते रहें। व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष-शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता, ईर्ष्या-द्वेषादि न करें। उपस्थेन्द्रिय के स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता, नपुंसकता होती और हस्त में दुर्गन्ध भी होता है इससे उसका स्पर्श न करें। सदा सत्यभाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन, आदि गुणों की प्राप्ति जिस प्रकार हों करावें।

सन्तान का जन्म – १

माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादकद्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़ के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करे, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपानादि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस्वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुणयुक्त हों।

सन्तान का जन्म – २

गर्भाधान के पश्चात् स्त्री को बहुत सावधानी से भोजन-छादन करना चाहिए। पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त स्त्री पुरुष का संग न करे। बल, बुद्धि, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों ही का सेवन स्त्री करती रहे कि जब तक सन्तान का जन्म न हो। जब जन्म हो तब अच्दे सुगन्धियुक्त जल से बालक को स्नान, नाड़ीछेदन करके सुगन्धियुक्त घृतादि का होम और स्त्री के भी स्नान भोजन का यथायोग्य प्रबन्ध करे कि जिससे बालक और स्त्री का शरीर क्रमशः आरोग्य और पुष्ट होता जाए।

तीन उत्तम शिक्षक

वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान ! जिसके माता और पिता धार्मिक और विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश पहुंचता है उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती हैं उतना अन्य कोई नहीं करता, इसलिए धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर पूरी विद्या न हो तब तक सुशीलता का ही उपदेश करे।

सीधा मार्ग

सीधा मार्ग वही होता है जिसमें सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, पक्षपात रहित न्याय, धर्म का आचरण करना आदि है। और इससे विपरीत का त्याग करना।

एकमत होने का प्रकार

जो बाल्यावस्था में एक सी शिक्षा हो सत्यभाषणादि धर्म का ग्रहण और मिथ्याभाषणादि अधर्म का त्याग करें तो एकमत अवश्य हो जाएं। और दो मत अर्थात् धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं, वे तो रहें। परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख। जब सब विद्वान एक सा उपदेश करें तो एकमत होने में कुछ भी विलम्ब न हो।

इन्हें भी देखें

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