वेद

हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ

वेद प्राचीनतम हिन्दू धर्मग्रन्थ हैं। ये विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं जो नष्ट होने से बचे हुए हैं। चार वेद हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ।

'वेद' शब्द 'विद्' धातु से बना है और इसका शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है।

ऋग्वेद की सूक्तियाँ

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  • मनुष्यों को चाहिए कि अधर्म का पालन करने वाले और मूर्ख लोगों को राज्य की रक्षा का अधिकार कदापि न दें।
  • किसी एक मनुष्य को स्वतंत्र राज्य का अधिकार कभी न दें परन्तु राज्य के समस्त कार्यों को शिष्ट जन की सभा के अधीन रखें।
  • उनको ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, जो आलस्य का त्याग करके सदैव सत्कर्म के लिए प्रयासरत रहते हैं।
  • जगत के समस्त जीवों को सुख मिले, मुझे भी सुख मिले।
  • अतिथि को सुन्दर और सुखद आसन देकर प्रसन्न करना चाहिए।
  • मेघ हमें और हमारी प्रजा के लिए सुखकर हों।
  • इस ग्राम (संसार) के सभी निवासी निरोगी और स्वस्थ हों।
  • समस्त दिशाओं से अच्छाई का प्रवाह मेरी तरफ हो।
  • बिना स्वयं परिश्रम किये देवों की मैत्री नहीं मिलती।
  • दान करनेवाले मनुष्यों का धन क्षीण नहीं होता, दान न देने वाले पुरुष को अपने प्रति दया करनेवाला नहीं मिलता।
  • मनुष्य अपनी परिस्थितियों का निर्माता आप है। जो जैसा सोचता है और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
  • हमारी बुद्धियाँ विविध प्रकार की हैं। मनुष्य के कर्म भी विविध प्रकार के हैं।
  • जो अधर्माचरण से युक्त हिंसक मनुष्य है, उसको धन, राज्यश्री और उत्तम सामर्थ्य प्राप्त नहीं होता। इसलिए सबको न्याय के आचरण से ही धन खोजना चाहिए।
  • हे मानवो! जैसे अग्नि आप शुद्ध हुआ सबको शुद्ध करता है, वैसे संन्यासी लोग स्वयं पवित्र हुये सबको पवित्र करते हैं।
  • जिन अध्यापकों के विद्यार्थी विद्वान, सुशील और धार्मिक होते हैं, वे ही अध्यापक प्रशंसनीय होते हैं।
  • जैसे महौषधि और बाह्य प्राणवायु सबकी सदा पालन करते हैं, उसी प्रकार उत्तम राजा और वैद्यजन समस्त उपद्रव और रोगों से निरंतर रक्षा करते हैं।
  • किसी भी मनुष्य को श्रेष्ठ वृक्ष या वनस्पति को नष्ट नहीं करना चाहिए। किन्तु उनमें जो दोष हो उनक निवारण कर उन्हें उत्तम सिद्ध करना चाहिए।
  • राजपुरुषों को ऐसे मार्ग का निर्माण करना चाहिए जिनसे जाते हुये पथिकों को चोरों का भय न हो और द्रव्य का लाभ भी हो।
  • मनुष्यों को चाहिए कि सब ऋतुओं में सुख कारक, धनधान्य से युक्त, वृक्ष, पुष्प, फल, शुद्ध वायु, जल तथा धार्मिक और धनाढ्य पुरुषों से युक्त गृह बनाकर वहां निवास करे, जिससे आरोग्य से सदा सुख बढ़े।

सभी वेदों से

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  • ॐ भूर् भुवः स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ (यजुर्वेद + ऋग्वेद ३,६२,१०))
भावार्थ - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
  • न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन ॥ -- ( ऋ०१०/१५२/१
ईश्वर के भक्त को न कोई नष्ट कर सकता है न जीत सकता है।
  • तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ॥ -- ( अ० ६/७९/३)
हे प्रभो हम तेरे भक्त हो।
  • स नः पर्षद् अतिद्विषः ॥ -- ( अ० ६/३४/१)
ईश्वर हमें द्वेषों से पृथक कर दे।
  • न विन्धेऽस्य सुष्टुतिम् ॥ -- ( ऋ० १/७/७)
मैं परमात्मा की स्तुति का पार नहीं पाता।
  • यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम् ॥ -- ( अ० ७/१८/२)
जहां परमेश्वर की ज्योति है वहां सदा ही कल्याण है।
  • महे चन त्वामद्रिवः परा शुक्लाय देयाम् ॥ -- ( ऋ० ८/१/५)
हे ईश्वर ! मैं तुझे किसी कीमत पर भी न छोडूँ।
  • स एष एक एकवृदेक एव ॥ -- ( अ० १३/४/२०)
वह ईश्वर एक और सचमुच एक ही है।
  • न रिष्यते त्वावतः सखा ॥ -- ( ऋ०१/९१/८)
ईश्वर ! आपका मित्र कभी नष्ट नहीं होता।
  • ओ३म् क्रतो स्मर ॥ -- ( य० ४०/१५)
हे कर्मशील मनुष्य!तू ओ३म् का स्मरण कर।
  • एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥ -- ( ऋ०६/३६/४)
वह सब लोकों का एक ही स्वामी है।
  • ईशावास्यमिदं सर्वम् ॥ -- ( य०। ४०/१)
इस सारे जगत में ईश्वर व्याप्त है।
  • त्वमस्माकं तव स्मसि ॥ -- ( ऋ०८/९२/३२)
प्रभु ! तू हमारा है, हम तेरे हैं।
  • अधा म इन्द्र श्रृणवो हवेमा ॥ऋ०७/२९/३)
हे प्रभु !अब तो मेरी इन प्रार्थनाओं को सुन लो।
  • तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः ॥ -- ( अ० १०/८/४४)
आत्मा को जानने पर मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता।
  • यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ॥ -- ( ऋ०१/१६४/३९)
जो उस ब्रह्म को नहीं जानता वह वेद से क्या करेगा।
  • तवेद्धि सख्यम स्तृतम्॥ -- ( ऋ० १/१५/५)
प्रभो! तेरी मैत्री ही सच्ची है।
  • स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरूषेभ्यः ॥ -- ( अ० १/३१/४)
सब पशु पक्षी और प्राणीमात्र का भला हो।
  • स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु ॥ (अ० १/३१/४)
हमारे माता और पिता सुखी रहें।
  • रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ताऽनीनशम् । (अ०७/११५/४)
पुण्य की कमाई मेरे घर की शोभा बढावे और पाप की कमाई को मैं नष्ट कर देता हूं।
  • मा जीवेभ्यः प्रमदः ॥ (अ०८/१/७)
प्राणियों की और से बेपरवाह मत हो।
  • मा प्रगाम पथो वयम् ॥ -- ( अ० १३/१/५९)
सन्मार्ग से हम विचलित न हों।
  • मान्तः स्थुर्नों अरातयः ॥ -- ( ऋ० १०/५७/१)
हमारे अन्दर कंजूसी न हो।
  • उतो रयिः पृणतो नोपदस्यति ॥ -- ( ऋ० १०/११७/१)
दानी का दान घटता नहीं।
  • अक्षैर्मा दीव्यः ॥ -- ( ऋ० १०/३४/१३)
जुआ मत खेलो।
  • जाया तप्यते कितवस्य हीना ॥ -- ( ऋ० १०/३४/१०)
जुएबाज की स्त्री दीन हीन होकर दुःख पाती रहती है।
  • प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ॥ -- ( अ० १९/६२/१)
सबका कल्याण सोचो चाहे शूद्र हो चाहे आर्य।
  • न स सखा यो न ददाति सख्ये ॥ -- ( ऋ० १०/११७/४)
वह मित्र ही क्या जो अपने मित्र को सहायता नहीं देता।
  • वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥ यजु० १९/४४)
हम सर्व सम्पतियों के स्वामी हों।
  • अनागोहत्या वै भीमा ॥ -- ( अ० १०/१/२९)
निरपराध की हिंसा करना भयंकर है।
  • क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ॥ -- (ऋ० १/६५/५)
प्रातः जागने वाला प्रबुद्ध होता है, उसे सब स्नेह करते हैं।
  • (सोम) न रिष्यत्त्वावतः सखा ॥ -- (ऋ० १/९१/८)
हे सोम (परमात्मा) ! तेरा सखा कभी दुःखी नहीं होता।
  • त्वं जोतिषा वि तमो ववर्थ ॥ -- (ऋ० १/९१/२२)
अपने ज्ञान के प्रकाश से हमारे अज्ञान को नष्ट करो।
  • पितेव नः श्रृणुहि हूयमानः ॥ -- (ऋ० १/१०४/९)
पुकारे जाने पर पिता की भाँति हमारी टेर सुनो।
  • अघृणे न ते सख्यमपह्युवे ॥ -- (ऋ० १/१३८/४)
हे प्रभो ! तेरी मित्रता से इन्कार नहीं करता।
  • दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥ -- (ऋ० १/१४७/३)
दबाने वाले शत्रु उपासक को नहीं दबा सकते।
  • न विन्धे अस्य सुष्टुतिम् ॥ -- (ऋ० १/७/७)
मैं प्रभु की स्तुति का पार नहीं पाता।
  • यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम् ॥ -- (अथर्व० ७/१८/२)
जहाँ परमेश्वर की ज्योति है, वहाँ कल्याण ही है।
  • मा श्रुतेन वि राधिषि ॥ -- (अथर्व० १/१/४)
हम सुने हुए वेदोपदेश के विरुद्ध आचरण न करें ।
  • अपृणन्तमभि सं यन्तु शोकाः ॥ -- (ऋ० १/१२५/७)
लोकोपकारहीन कञ्जूस को शोक घेर लेता है।
  • मा प्र गाम पथो वयम् ॥ -- (ऋ० १०/५७/१)
हम वैदिक मार्ग से पृथक न हों ।
  • त्वमस्माकं तव स्मसि ॥ -- (ऋ० ८/१२/३२)
प्रभो ! तू हमारा है, हम तेरे हैं।
  • जाया तप्यते कितवस्य हीना ॥ -- (ऋ० १०/३४/१०)
जूएबाज की पत्नी दीन-हीन होकर दुःख पाती है।
  • न स सखा यो न ददाति सख्ये ॥ -- (ऋ० १०/११७/४)
मित्र की सहायता न करने वाला मित्र नहीं होता।
  • मात्र तिष्ठः पराङ् मनाः ॥ -- (अथर्व० ८/१/९)
इस संसार में उदासीन मन से मत रहो।
  • अघमस्त्वघकृते ॥ -- (अथर्व० १०/१/५)
पापी को दुःख ही मिलता है।
  • न स्तेयमद्मि ॥ -- (अथर्व० १४/१/५७)
मैं चोरी का माल न खाऊँ।
  • असन्तापं मे ह्रदयम् ॥ -- (अथर्व० १६/३/६)
मेरा हृदय सन्ताप से रहित हो।
  • उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ॥ -- (ऋ० १०/१३७/१)
हे विद्वानो ! गिरे हुओं को ऊपर उठाओ।
  • अहं भूमिमददामार्याय ॥ -- (ऋ० ४/२६/२)
मैं यह भूमि आर्यों को देता हूँ।
  • मा भेर्मा संविक्थाऽऊर्जं धत्स्व ॥ -- (यजुः० ६/३५)
मत डर, मत घबरा, धैर्य धारण कर।
  • तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः-(१०/८/१)
उस ज्येष्ठ ब्रह्म को हमारा नमस्कार।
  • नेत् त्वा जहानि॥ -- (१३/१/१२)
हे प्रभु! मैं तुझे कदापि न छोडूँ।
  • तव स्मसि॥ -- (२०/१५/५)
हे प्रभु ! हम तेरे हैं।
  • न घा त्वद्रिगपवेति मे मनः॥ -- (२०/१७/२)
मेरा मन तो तुझमें लगा है,तुझसे हटता ही नहीं।
  • त्वे इत् कामं पुरुहूतं शिश्रय)
हे प्रभु ! मैंने अपनी चाह को तुझ में ही केन्द्रित कर दिया है।
  • त्वामीमहे शतक्रतो॥ -- (२०/१९/६)
हे भगवन् ! हम तेरे आगे हाथ पसारते हैं।
  • स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥ -- (२०/६८/६)
हम प्रभु की ही शरण पकड़ें।
  • हवामहे त्वोपगन्तवा उ॥ -- (२०/९६/५)
हे प्रभु ! हम तेरे समीप पहुँचने के लिए पुकार रहे हैं।
  • एक एव नमस्यः॥ -- (२/२/१)
याद रखो,एक ही परमेश्वर है जो नमस्करणीय है।
  • एको राजा जगतो बभूव॥ -- (४/२/२)
जगत् का राजा एक ही है।
  • एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।)
एक ही परमेश्वर को विप्रजन अनेक नामों से पुकारते हैं।
  • द्यावाभूमी जनयन् देव एकः॥ -- (१३/२/२६)
आकाश-भूमि को पैदा करने वाला देव एक ही है।
  • सखा नो असि परमं च बन्धुः॥ -- (५/११/११)
तू हमारा सखा और परम बन्धु है।
  • सद्यः सर्वान् परिपश्यसि॥ -- (११/२/२५)
तुरन्त तू सबको देख लेता है।
  • महस्ते सतो महिमा पनस्यते॥ -- (२०/५८/३)
तुझ महान की महिमा का सर्वत्र गान हो रहा है।
  • न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन॥ -- (१/२०/४)
प्रभु के मित्र को कोई मार या जीत नहीं सकता।
  • द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः॥ -- (४/१६/२)
कोई दो बैठकर के जो मन्त्रणा करते हैं प्रभु तीसरा होकर उसे जान लेता है।
  • भीमा इन्द्रस्य हेतयः॥ -- (४/३७/८)
प्रभु के दण्ड बड़े भयङ्कर हैं।
  • यत्र सोमः सद्मित् तत्र भद्रम्॥ -- (७/१८/२)
जहाँ प्रभु है,वहाँ कल्याण ही कल्याण है।
  • विष्णोः कर्माणि पश्यत्॥ -- (७/१९/१)
व्यापक प्रभु के आश्चर्य-जनक कर्मों को देखो।
  • न वा उ सोमो वृजिनं हिनोति॥ -- (७/२६/६)
प्रभु पापी को कभी नहीं बढ़ाते।
  • सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः॥ -- (१०/८/२३)
प्रभु सबसे पुरातन है,पर आज भी वह नया है।
  • ततः परं नाति पश्यामि किंचन॥ -- (अथर्व० १८/२/३२)
प्रभु से बढ़कर मुझे कुछ नहीं दीखता।
  • इन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरुणि॥ -- ( अथर्व० २०/११/६)
प्रभु के सब कर्म शोभा के होते हैं।
  • हत्वी दस्यून् प्रार्यं वर्णमावत्॥ -- (अथर्व० २०/११/९)
प्रभु दुष्टों का विनाश कर आर्यजनों की रक्षा करता है।
  • प्रत्यङ् नः सुमना भव॥ -- (अथर्व० ३/२०/२)
हे प्रभु ! हम पर कृपालु मन वाला हो।
  • यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु॥ -- (७/८०/३०)
हे प्रभु ! जिस शुभ इच्छा से हम तेरा आह्वान करें, वह हमारी पूर्ण हो।
  • मा नो हिंसीः पितरं मातरं च -- (अथर्व० ११/२/२९)
हे प्रभु ! हमारे माता-पिता को कष्ट मत दो।
  • वि द्विषो वि मृधो जहि॥ -- (अथर्व० १९/१५/१)
हमारी द्वेषवृत्तियों और हिंसकवृत्तियों को नष्ट कर।
  • अग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ -- (अथर्व० २०/१३/३)
हे प्रभु ! तेरी मैत्री पाकर हम विनाश से बच जायें।
  • मा त्वायतो जरितुः काममूनयोः॥ -- (अथर्व० २०/२१/३)
हे प्रभु ! तेरी चाह वाले मुझ भक्त के मनोरथ को अपूर्ण मत रख।
  • न स्तोतारं निदे करः॥ -- (अ० २०/२३/६)
मुझ स्तोता को निन्दा का पात्र मत कर।
  • बहुप्रजा निऋर्तिमा विवेश ॥ -- (ऋ०१/१६४/32)
बहुत सन्तान वाले बहुत कष्ट पाते हैं।
  • मा ते रिषन्नुपसत्तारोऽग्ने ॥ -- (अथर्व० २/६/२)
प्रभो ! आपके उपासक दुःखित न हों।
  • कस्तमिन्द्र त्वावसुमा मतर्यों दधर्षति ॥ (ऋ०७/३२/१४)
ईश्वर भक्त का तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।
  • मा त्वा वोचन्नत्रराधसं जनासः ॥ -- (अथर्व० ५/११/७)
लोग मुझे कंजूस न कहें।
  • इमं नः श्रृणवद्धवम् ॥ -- (ऋ०१०/२६/९)
वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सुने।
  • स्तोतुर्मघवन्काममा पृण ॥ -- (ऋ० १/५७/५)
भगवान् ! भक्त की कामनाओं को पूर्ण करो।
  • ओ३म् खं ब्रह्म ॥ -- (यजु० ४०/१७)
ओ३म् परमात्मा सर्वव्यापक है।
  • विश्वेषामिज्जनिता ब्रह्मणामसि ॥ -- (ऋ०२/२३/२)
सम्पूर्ण विद्याओं का आदि मूल तू ही है।
  • देवो देवानामसि ॥ -- (ऋ० १/९४/१३)
तू देवों का देव है।
  • यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ॥ -- (अथर्व० ९/१०/१८)
जो उस प्रभु को नहीं जानता वह वेद से ही क्या फल प्राप्त करेगा।
  • स नः पर्षदति द्विषः ॥ -- (ऋ० १०/१८७/५)
वह परमात्मा हमें सब कष्टों से पार करे।
  • आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥ -- (यजु० १९/३८)
दुष्ट पुरुषों को दूर भगाओ।
  • मा नः प्रजां रीरिषः ॥ -- (ऋ० १०/१८/१)
हे ईश्वर ! तू हमारी सन्तान का नाश न कर।
  • सत्या मनसो मेऽस्तु ॥ -- ( ऋ० १०/१२८/४)
मेरे मन की भावनाएं सच्ची हों।
  • लोकं कृणोतु साधुया ॥ -- (यजु० २३/४३)
जनता को सच्चरित्र बनावें।
  • तनूपाऽअग्न्रिः पातु दुरितादलद्यात् ॥ -- ( यजु० ४/१५)
ईश्वर हमें निन्दनीय दुराचरण से बचावे।
  • दस्यूनव धूनुष्व ॥ -- (अथर्व० १९/४६/२)
दस्युओं को धुन डाल।
  • आ वीरोऽत्र जायताम् ॥ -- (अथर्व० ३/२३/२)
वीर सन्तान उत्पन्न कर।
  • भियं दधाना ह्रदयेषु शत्रुनः ॥ -- (ऋ० १०/८४/७)
शत्रु के ह्रदय में भय उत्पन्न कर दो।
  • सखा सखिभ्यो वरीयः कृणोतु ॥ -- (अथर्व० ७/५१/१)
मित्र को मित्र की भलाई करनी चाहिये।
  • दूर ऊनेन हीयते ॥ -- (अथर्व० १०/८/१५)
बुरी संगत से मनुष्य अवनत होता है।
  • गोस्तु मात्रा न विद्यते ॥ -- (यजु० २३/४८)
गौ का मूल्य नहीं है।
  • निन्दितारो निन्द्यासो भवन्तु ॥ -- (ऋ० ५/२/६)
निन्दक सबसे निन्दित होते हैं।
  • विश्वम्भर विश्वेन मा भरसा पाहि ॥ -- (अथर्व० २/१६/५)
प्रभो ! अपनी शक्ति से मेरी रक्षा करो।
  • न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डिता ॥ -- (ऋ० १/८४/१९)
हे ईश्वर !तुम्हारे सिवाय सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है।
  • आर्य ज्योतिरग्राः ॥ -- (ऋ० ७/३३/७)
आर्य प्रकाश (ज्ञान) को प्राप्त करने वाला होता है।
  • करो यत्र वरिवो बाधिताय ॥ -- ( ऋ० ६/१८/१४)
पीड़ितों की सहायता करने वाले हाथ ही उत्तम हैं।
  • प्राता रत्नं प्रातरिश्वा दधाति ॥ -- (ऋ० १/१२५/१)
प्रातः जागने वाला प्रभात बेला में ऐश्वर्य पाता है।
  • मिथो विघ्नाना उपयन्तु मृत्युम् ॥ -- (अथर्व० ६/३२/३)
परस्पर लड़ने वाले मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
  • अधः पश्यस्व मोपरि ॥ -- (ऋ० ८/३३/१९)
हे नारि ! नीचे देख ऊपर मत देख ।
  • मा दुरेवा उत्तरं सुम्नमुन्नशन् ॥ -- (ऋ० २/२३/८)
दुराचारी उत्तम सुख को मत प्राप्त करें।
  • प्रमृणीहि शत्रून् ॥ -- (यजु०१३/१३)
शत्रुओं को कुचल डालो।
  • परि माग्ने दुश्चरिताद् बाधस्व ॥ -- (यजु० ४/२८)
हे ईश्वर ! आप मुझे दुष्ट आचरण से हटायें।
  • शन्नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ -- (यजु० ३६/८)
प्रभु हमारे दोपाये मनुष्यों और चौपाये पशुओं के लिए कल्याणकारी और सुखदायी हो।
  • ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ॥ -- (अथर्व० ११/५/१७)
ब्रह्मचर्य रुपी तप के द्वारा राजा राष्ट्र का संरक्षण करता है।
  • मा पुरा जरसो मृथाः ॥ -- (अथर्व० ५/३०/१७)
हे मनुष्य ! तू बुढ़ापे से पहले मत मर।
  • सहोऽसि सहो मयि धेहि ॥ -- (यजु० १९/९)
हे प्रभो ! आप सहनशील हैं मुझमें सहनशीलता धारण करिये।
  • नेनद्दवा आप्नुवन पूर्वमषत् ॥ -- (यजु० ४०/४)
परमात्मा भौतिक इन्द्रियों और अविद्वानों का विषय नहीं है।
  • यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।
अग्निर्मा तत्र नयत्वग्निर्मेधा दधातु मे । अग्नये स्वाहा ॥ -- अथर्ववेदः १९।४३।१॥[]
हे अग्नि, मुझे वहाँ ले चलिये जहाँ दीक्षा और तप से युक्त ब्रह्मविद जाते हैं। अग्नि मुझे मेधा प्रदान करें। अग्नि के लिये स्वाहा (मैं अग्नि के मार्ग पर चलने के लिये कटिबद्ध हूँ)।
  • यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।
वायुर्मा तत्र नयतु वायुः प्राणान् दधातु मे । वायवे स्वाहा ॥ -- अथर्ववेदः १९।४३।२॥
हे वायु, मुझे वहाँ ले चलिये जहाँ दीक्षा और तप से युक्त ब्रह्मविद जाते हैं। वायु मुझे प्राण दें। वायु के लिये स्वाहा ॥

वेदों पर महापुरुषों तथा ग्रन्थों के विचार

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  • वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च॥ -- मनुस्मृति (२-५)
अर्थात् समग्र वेद एवं वेदज्ञ (मनु, पराशर, याज्ञवल्क्या आदि ) की स्मृति, शील, आचार, साधु (धार्मिक) - के आत्मा का संतोष- ये सभी धर्म के मूल हैं।
  • सर्वज्ञानमयो हि सः -- मनु
वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान है।
  • नास्तिको वेदनिन्दकः -- मनु
जो वेद की निन्दा करता है उसे नास्तिक कहा जाता है।
  • श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयः। -- मनुस्मृति
वेदों को ही श्रुति कहते हैं।
  • श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।
सम्यक्संकल्पजः कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति (१। ७) में भी कहा गया है—
अर्थात् श्रुति, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार, अपने आत्मा की प्रीति और उत्तम संकल्प से हुआ (धर्माविरुद्ध) - पाँच धर्म के मूल हैं।
  • इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः। -- आचार्य सायण
अर्थात् इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार का अलौकिक उपाय बताने वाला ग्रन्थ वेद है।
  • विदन्ति जानन्ति विद्यन्ते भवन्ति। -- यास्क, निरुक्त में
अर्थात् जिसकी कृपा से अधिकारी मनुष्य ( द्विज) सद्विद्या प्राप्त करते हैं, जिससे वे विद्वान् हो सकते हैं, जिसके कारण वे सद्विद्या के विषय में विचार करनेके लिये समर्थ हो जाते हैं, उसे वेद कहते हैं।
  • चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः -- जैमिनि
वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है। (अर्थात जिस काम को करने के लिये वेद की आज्ञा हो वह धर्म है, और जो वेदविरुद्ध है वह अधर्म।)
  • वेदो नाम वेद्यन्ते ज्ञाप्यन्ते धर्मार्थकाममोक्षा अनेनेति व्युत्पत्त्या चतुर्वर्गज्ञानसाधनभूतो ग्रन्थविशेषः ॥ -- 'आर्यविद्या-सुधाकर'
अर्थात् पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष)-विषयक सम्यक्-ज्ञान होने के लिये साधनभूत ग्रन्थविशेष को वेद कहते हैं।
  • ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ -- गीता
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! यह संसार एक अविनाशी वृक्ष के समान है। जिसकी जड़ें, ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र हैं, जो व्यक्ति इस अविनाशी वृक्ष को अच्छी तरह जानता है, वही सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता है।
  • तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥ -- महाभारत, वनपर्व
जीवन जीने के असली मार्ग के निर्धारण के लिए कोई सुस्थापित तर्क नहीं है, श्रुतियां (शास्त्रों तथा अन्य स्रोत) भी भांति-भांति की बातें करती हैं, ऐसा कोई ऋषि/चिंतक/विचारक नहीं है जिसके वचन प्रमाण कहे जा सकें । वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है । ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति (महाजन) जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है ।
  • वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः ।
वेदो नारायणः साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम ॥ -- श्रीमद्भागवत (६ । १ । ४० )
वेद भगवान ने जिन कार्यों को करने की आज्ञा दी है वह धर्म है और उससे विपरीत करना अधर्म है। वेद नारायण रूप में स्वयं प्रकट हुआ है, ऐसा श्रुति में कहा गया है।
  • विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ॥ -- श्रीमद्भागवत (१० । ४। ४१ )
अर्थात् वेदज्ञ (सदाचारी भी ) ब्राह्मण, दुधारू गाय, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, सहनशीलता और यज्ञ – ये श्रीहरि ( परमेश्वर ) के स्वरूप हैं।
  • जैमिनीय मीमांसक, कुमारिल आदि मीमांसक, आधुनिक मीमांसक तथा सांख्यवादियों के मत में वेद अपौरुषेय, नित्य एवं स्वतः प्रमाण हैं । मीमांसक वेद को स्वयम्भू (ईश्वरकृत नहीं) मानते हैं। उनका कहना है कि वेद की निर्मिति का प्रयत्न किसी व्यक्ति विशेष का अथवा ईश्वर का नहीं है।
  • नैयायिक ऐसा समझते हैं कि वेद तो ईश्वरप्रोक्त है। वे कहते हैं कि ईश्वर ने जैसे सृष्टि की, वैसे ही वेद का भी निर्माण किया, ऐसा मानना उचित ही है।
  • अनन्ता वै वेदाः । -- श्रुति भगवती
भावार्थ - वेद का अर्थ है ज्ञान । ज्ञान अनन्त है, अतः वेद भी अनन्त हैं।
  • यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्। -- सायणाचार्य, अपने वेदभाष्य में
वेद परमेश्वर का निःश्वास है, अतः परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है। वेद से ही समस्त जगत का निर्माण हुआ है। इसीलिये वेद को अपौरुषेय कहा गया है।
  • वेद अनादि, नित्य एवं अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत) ही है। वेद का अर्थ समझे बिना केवल वेदपाठ करना पशु की तरह पीठपर बोझा ढोना ही है; क्योंकि अर्थज्ञानरहित शब्द (मन्त्र) प्रकाश (ज्ञान) नहीं दे सकता। जिसे वेद-मन्त्रों का अर्थ-ज्ञान हुआ है, उसी का लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण होता है। -- निरुक्तकार 'यास्काचार्य' , अपने महाग्रन्थ वेदभाष्य में
  • अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व ( २३२ । २४)
अर्थात् जिसमें से सर्वजगत् उत्पन्न हुआ, ऐसी अनादि वेद-विद्यारूप दिव्य वाणी का निर्माण जगन्निर्माता ने सर्वप्रथम किया।
  • बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥ -- तुलसीदास
मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता।
  • विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः। तथ आदिसृष्टिमारभ्याद्यापर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्ते अनया सा श्रुतिः। -- ऋषि दयानन्द
अर्थात् जिनके पढने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ के विद्वान् होते है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-ठीक सत्य-असत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक् संहितादि का नाम वेद है। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज तक और ब्रह्मादि से लेकर हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं इससे वेदों का श्रुति नाम पड़ा है।
  • अंति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यन्ति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥
अर्थ - मनुष्य समीप रहने वाले परमात्मा अथवा अपने आत्मा को नहीं देखता है। उस पास रहने वाले को छोड़ भी नहीं सकता। हे मनुष्य ईश्वर के काव्य (वेद) को देख , वह न तो पुराना होता है , न मरता है।
  • वेदों में सारे विज्ञान सूक्ष्मरूप से विद्यमान हैं। -- पं. सत्यव्रत सामश्रमी अपने ‘त्रयी-चतुष्टय’ नामक ग्रन्थ में
  • वेदों के आधार पर ही इस ग्रन्थ को बनाया गया है। -- यन्त्रसर्वस्व के ‘वैमानिक-प्रकरण’ में
  • सायणाचार्य का वेदविषयक ज्ञान अति विशाल और अति गहन है, जिसकी समकक्षता का दावा कोई भी यूरोपीय विद्वान् नहीं कर सकता। -- प्रो० विल्सन
  • यदि मुझे सायणाचार्य द्वारा रचित बृहद् वेदभाष्य पढ़ने को नहीं मिलता तो मैं वेदार्थों के दुर्भेद्य किला में प्रवेश ही नहीं पा सका होता। -- प्रो० मैक्समूलर
  • विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय वेद ही है, जो दैविक एवं आध्यात्मिक विचारों को काव्यमय भाषा में अद्भुत रीति से प्रकट करने वाला कल्याणप्रदायक है। वेद परावाक् है। -- मैक्समूलर
  • जब कभी भी मैने वेदों का कोई भाग पढ़ा है, मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि कोई अलौकिक और अनजान प्रकाश मुझे प्रकाशित कर रहा है। वेदों की महान शिक्षा में सम्प्रदायवाद का कोई स्पर्श नहीं है। यह युगों और सभी राष्ट्रीयताओं की है। वेद महान ज्ञान की प्राप्ति के राजपथ हैं। जब मैं इस राजपथ पर होता हूँ तब मुझे लगता है कि किसी ग्रीष्म की रात्रि को झिलमिलाते हुए स्वर्ग में हूँ। -- हेनरी डेविड थोरो, "Explore Hinduism", P. 21. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • वेद ज्ञान की पुस्तक है। इसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार आदि विषयों की पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान और वस्तुतः वेद ज्ञान-विज्ञान से ओत-प्रोत हैं। -- प्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चानजी
  • कितनी आश्‍चर्यजनक सच्चाई है। सम्पूर्ण ईश्‍वरीय ज्ञानों में हिन्दुओं का ईश्‍वरीय ज्ञान वेद ही ऐसा है जिसके विचार वर्त्तमान विज्ञान से पूर्णरूपेण मिलते हैं। क्योकि वेद भी विज्ञानानुसार जगत् की मन्द और क्रमिक रचना का प्रतिपादन करते हैं। -- फ्रांस के विद्वान जैकालियट ने अपने ग्रन्थ 'द बाइबल इन इण्डिया' में
  • केवल इसी देन (यजुर्वेद) के लिए पश्‍चिम पूर्व का ऋणी रहेगा। -- -- फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान वाल्टेयर
  • अतः हमारे लिए इस परिणाम पर पहुंचना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचारों का किकास नहीं हुआ, अपितु ह्रास ही हुआ है, उत्थान नहीं अपितु पतन ही हुआ। इसलिए हम यह परिणाम निकालने में न्यायशील हैं कि वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर विचार एक प्रारम्भिक ईश्‍वरीय ज्ञान का परिणाम थे। -- ईसाई पादरी मौरिस फिलिप
  • यदि भारत की कोई बाइबल संकलित की जाए तो उसमें वेद, उपनिषदें और भगवत्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान सबसे ऊपर उठे हुए ग्रन्थ होंगे। -- जे. मास्करो (J. Mascaro)
  • मुझे आशा है, मैं उस कार्य (वेदों के सम्पादन) को पूर्ण कर दूँगा। यद्यपि में उसे देखने के लिए जीवित नहीं रहूंगा, परन्तु मुझे पूर्ण निश्‍चय है कि मेरा यह वेदों का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों के आत्मविश्‍वास पर एक वज्र-प्रहार होगा। वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को दिखा देना, उससे पिछले तीन सहस्र वर्षों में जो कुछ निकला है, उसको मूलसहित उखाड़ फेंकने का सबसे उत्तम प्रकार है। -- मैक्समूलर

बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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