स्वामी श्रद्धानन्द
स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (मूल नाम : मुंशीराम विज ; 22 फरवरी, 1856 - 23 दिसम्बर, 1926) भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय सहित अनेक शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा 1920 के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की। उन्होने अस्पृश्यता को मिटाने के लिये भी महान कार्य किया। डॉ भीमराव आम्बेडकर ने सन १९२२ में कहा था कि श्रद्धानन्द अछूतों के "महानतम और सबसे सच्चे हितैषी" हैं।[१]
काग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से महत्त्वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में 'गुरु का बाग सत्याग्रह' के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । सिक्खों के धार्मिक अधिकार की रक्षार्थ उन्होंने सत्याग्रह किया जिस पर 1922 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
विचार
सम्पादन- हमारे यहाँ टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिंसिपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं है। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं।
- छुआछूत ने इस देश में अनेक जटिलताओं को जन्म दिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था द्वारा ही इसका अन्त कर अछूतोद्धार सम्भव है।
- अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मान्तरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है।
- भारत को सेवकों की आवश्यकता है, लीडरों की नहीं।
- ऋषिवर! कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है। परन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूँ कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा लाभ करने योग्य बनाया। -- (अपनी जीवन गाथा में)
- प्यारे भाइयो! आओ, दोनों समय नित्य प्रति संध्या करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करें और उसकी सत्ता से इस योग्य बनने का यत्न करें कि हमारे मन, वाणी और कर्म सब सत्य ही हों। सर्वदा सत्य का चिन्तन करें। वाणी द्वारा सत्य ही प्रकाशित करें और कमरें में भी सत्य का ही पालन करें।
- संसार के सम्प्रदाय धर्म की रक्षा के लिए स्थापन किये गए थे , परन्तु आज वे ही सम्प्रदाय मूल धर्म को भूल कर गौण मतभेद के धर्म के वादानुवाद में लगे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने के लिए अन्न-फल आदि के आहार की आवश्यकता हैं, इसी प्रकार आत्मिक जीवन की संरक्षा के लिए भी धर्म रुपी आत्मिक आहार की आवश्यकता होती हैं। शरीर रक्षा के लिए अन्न और फल मुख्य है, परन्तु उसी अन्न और फल की रक्षा के लिए खेत वा वाटिका के इर्द-गिर्द बाड़ लगानी पड़ती हैं। कैसा मुर्ख वह इंसान हैं, जो अन्न-फल को भुलाकर अन्य किसानों की बाड़ो से ही अपनी बाड़ का मुलाबला कर उनका तिरस्कार करता हैं? इसी प्रकार जीवात्मा का आहार धर्म अर्थात प्रकृति के संसर्ग से छुट कर परमात्मा में स्वतंत्र रूप से विचरण मुख्य हैं। उसकी रक्षा के लिए जो सांप्रदायिक विधियां नियत की गई हैं, वे खेतों की बाड़ों के सदृश ही गौण हैं। कितना मुर्ख वह सांप्रदायिक पुरुष हैं, जो गौण नियमों के विवाद में फंसकर अपने मुख्य धर्म को भूल जाता हैं।
- आचार परमो धर्म अर्थात धर्म की सबसे उत्तम परिभाषा आचार अर्थात आचरण को कहा गया हैं। इसलिए आचरण को पवित्र बनाने पर जोर दीजिये साम्प्रदायिकता पर नहीं।
स्वामी श्रद्धानन्द के प्रति महापुरुषों के विचार
सम्पादन- स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं – ‘लो, चलाओ गोलियां’। इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा? -- सरदार बल्लभ भाई पटेल
- स्वामी जी दलितों के सर्वोंत्तम हितकर्ता व हितचिन्तक थे। -- बाबा साहेब अम्बेडकर, 1945 के ‘कांग्रेस और गांधी जी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया?’ नामक ग्रंथ में, (पृष्ठ 29-30) । कांग्रेस में रहते हुए स्वामी शरद्धानन्द ने जो कार्य किया उसकी बाबा साहब ने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामी जी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी मांग की थी, परन्तु उनकी मांग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृष्ठ 29)।
- स्वामी श्रद्धानन्द एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण और दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा। -- बाबा साहेब अम्बेडकर, उपरोक्त ग्रन्थ में, पृष्ठ 223 पर।
- वह वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परन्तु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे। -- महात्मा गांधी
इन्हें भी देखें
सम्पादनसन्दर्भ
सम्पादन- ↑ Dr. Babasaheb Ambedkar Writings & Speeches Vol. 9. Dr. Ambedkar Foundation. 1991. pp. 23–24. ISBN 978-93-5109-064-9.