दयानन्द सरस्वती

आर्य समाज के संस्थापक व समाज-सुधारक (1824-1883)

महर्षि दयानन्द सरस्वती (12 फरवरी 1824 – 30 अक्टूबर 1883) भारत के एक महान समाजसुधारक, धर्मोपदेशक तथा आर्यसमाज के संस्थापक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से 'सत्यार्थ प्रकाश' सबसे प्रमुख है।

दयानन्द सरस्वती

सूक्तियाँ

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  • ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, अन्तर्यामी, अजर, अमर. अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करने योग्य है।
  • उस सर्वव्यापक ईश्वर को योग द्वारा जान लेने पर हृदय की अविद्यारुपी गांठ कट जाती है, सभी प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं और भविष्य में किये जा सकने वाले पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं, अर्थात ईश्वर को जान लेने पर व्यक्ति भविष्य में पाप नहीं करता।
  • जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान है, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खींच सके वह पण्डित कहाता है।
  • वेदों मे वर्णित सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि 'जीवन' का मूल बिन्दु क्या है।
  • ये 'शरीर' 'नश्वर' है, हमे इस शरीर के माध्यम से केवल एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, 'मनुष्यता' और 'आत्मविवेक' क्या है।
  • क्रोध का भोजन 'विवेक' है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योंकि 'विवेक' नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
  • अहंकार मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाता है, जिसमें वह 'आत्मबल' और 'आत्मज्ञान' को खो देता है।
  • मानव जीवन मे 'तृष्णा' और 'लालसा' है, और ये दुःख के मूल कारण है।
  • क्षमा करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकी ये मनुष्य को बहुत बङा बना देता है।
  • हिन्दू धर्म यहाँ की स्त्रियों के कारण जीवित है। यहाँ की नारियाँ शील और सद्धर्म पालन में अग्रणी न रही होतीं तो आर्य जाति का गौरव कभी का विलुप्त हो गया होता।
  • 'काम' मनुष्य के 'विवेक' को भरमा कर उसे पतन के मार्ग पर ले जाता है।
  • लोभ वो अवगुण है, जो दिन प्रति दिन तब तक बढता ही जाता है, जब तक मनुष्य का विनाश ना कर दे।
  • मोह एक अत्यंन्त विस्मित जाल है, जो बाहर से अति सुन्दर और अन्दर से अत्यंन्त कष्टकारी है; जो इसमे फँसा वो पुरी तरह उलझ ही गया।
  • ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये 'मनुष्य' को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
  • मद 'मनुष्य की वो स्थिति या दिशा' है, जिसमे वह अपने 'मूल कर्तव्य' से भटक कर 'विनाश' की ओर चला जाता है।
  • संस्कार ही 'मानव' के 'आचरण' का नीव होता है, जितने गहरे 'संस्कार' होते हैं, उतना ही 'अडिग' मनुष्य अपने 'कर्तव्य' पर, अपने 'धर्म' पर, 'सत्य' पर और 'न्याय' पर होता है।
  • अगर 'मनुष्य' का मन 'शान्त' है, 'चित्त' प्रसन्न है, ह्रदय 'हर्षित' है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का 'फल' है।
  • जिस 'मनुष्य' मे 'संतुष्टि' के 'अंकुर' फुट गये हों, वो 'संसार' के 'सुखी' मनुष्यों मे गिना जाता है।
  • यश और 'कीर्ति' ऐसी 'विभूतियाँ' है, जो मनुष्य को 'संसार' के माया जाल से निकलने मे सबसे बड़े 'अवरोधक' हैं।
  • आत्मा, 'परमात्मा' का एक अंश है, जिसे हम अपने 'कर्मों' से 'गति' प्रदान करते हैं। फिर 'आत्मा' हमारी 'दशा' तय करती है।
  • मानव को अपने पल-पल को 'आत्मचिन्तन' मे लगाना चाहिए, क्योंकि हर क्षण हम 'परमेश्वर' द्वारा दिया गया 'समय' खो रहे है।
  • मनुष्य की 'विद्या उसका अस्त्र', 'धर्म उसका रथ', 'सत्य उसका सारथी' और 'भक्ति रथ के घोड़े हैं।
  • वेद सभी सत्य विधाओं कि किताब है, वेदों को पढना-पढाना, सुनना-सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है।
  • अगर किसी इंसान के मन में शांति है, ध्यान में प्रसन्नता है और हृदय में खुशी है, तो अवश्य ही यह उसके अच्छे कर्मो का फल है।
  • अगर आप इस दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ देते है तो यकीन मानिये आपके पास भी सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
  • मूर्ख होना गलत नही है लेकिन मूर्ख ही बने रहना बिल्कुल गलत है।
  • किसी भी कार्य को करने से पहले सोचना अक्लमंदी होती है और काम को करते हुए सोचना सावधानी कहलाती है, लेकिन काम को करने के बाद सोचना मूर्खता कहलाती है।
  • इंसान को किसी से भी ईर्ष्या नही करनी चाहिए, क्योंकि ईर्ष्या इंसान को अंदर ही अंदर जलाती रहती है, और पथ से भटकाकर पथ को भ्रष्ट कर देती है।
  • निर्बल इंसानों पर दया करना और उनको क्षमा करना ही मनुष्य का निजी गुण होता है।
  • नुकसान की भरपाई करने में सबसे जरूरी चीज है उस नुकसान से कुछ सबक लेना, तभी आप सही मायने में विजेता बन सकते है।
  • पैसा एक वस्तु है, जो ईमानदारी और न्याय से कमाया जाता है, वहीं इसके विपरित अधर्म का खजाना होता है।
  • मानव शरीर नश्वर है, इस शरीर के जरिए आपको एक मौका मिला है खुद को साबित करने का, की मनुष्यता और आत्मविवेक क्या होता है।
  • इंसान के अंदर लोभ वो अवगुण है, जो तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि वो उस इंसान का विनाश नही कर देता है।
  • अहंकार इंसान की वह स्थिति है, जिसमें वह अपने मूल कर्तव्यों को भूलकर विनाश की ओर चला जाता है।
  • आपको अपने नश्वर शरीर से प्रेम करने की बजाय ईश्वर से प्रेम करना चाहिए, सत्य और धर्म से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि ये नश्वर नही है।
  • जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर गर्व किया है, उसका पतन निश्चित हुआ है।
  • जो इंसान हर काम से संतुष्ट हो जाए वो ही इंसान इस संसार का सबसे खुशनसीब इंसान होता है।
  • वह लोग जो दूसरों के लिए अच्छा करते है वह कभी भी आत्म सम्मान और दुरूपयोग के बारे में नही सोचते है।
  • अगर किसी व्यक्ति पर हमेशा ऊँगली उठाई जाती है तो वह व्यक्ति भावनात्मक रूप से ज्यादा समय तक खड़ा नही रह सकता है।
  • वह मनुष्य सबसे अच्छा और अक्लमंद है जो हमेशा सत्य बोलता है, धर्म के अनुसार काम करता है और दूसरों को उत्तम और प्रसन्न बनाने का प्रयास करता है।
  • लोभ कभी समाप्त न होने वाला रोग है।
  • आर्य समाज की स्थापना करने का मुख्य उद्देश्य संसार के लोगों का उपकार (भला) करना है।
  • जो ताकतवर होकर कमजोर लोगों की मदद करता है, वही वास्तविक मनुष्य कहलाता है, ताकत के अहंकार में कमजोर का शोषण करने वाला तो पशु की श्रेणी में आता है।
  • लोगों को कभी भी तस्वीरों की पूजा पाठ नही करनी चाहिए, मानसिक अन्धकार का फैलाव मूर्ति पूजा के प्रचलन की वजह से है।
  • वर्तमान जीवन का कार्य अन्धविश्वास पर पूर्ण विश्वास से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • मनुष्यों के भीतर संवेदना है, इसलिए अगर वो उन तक नही पहुंचता जिन्हें देखभाल की ज़रुरत है तो वो प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन करता है।
  • भारतवर्ष में असंख्य जातिभेद के स्थान पर केवल चार वर्ण रहें। ये जातिभेद भी गुण-कर्म के द्वारा निश्चित हों, जन्म से नहीं। वेद के अधिकार से कोई भी वर्ण वंचित न हो।
  • इंसान को दिया गया सबसे बड़ा संगीत यंत्र आवाज है।
  • आत्मा अपने स्वरुप में एक है, लेकिन उसके अस्तित्व अनेक हैं।
  • सबसे उच्च कोटि की सेवा ऐसे व्यक्ति की मदद करना है जो बदले में आपको धन्यवाद कहने में असमर्थ हो।
  • भगवान का ना कोई रूप है ना रंग है। वह अविनाशी और अपार है, जो भी इस दुनिया में दिखता है वह उसकी महानता का वर्णन करता है।
  • किसी भी रूप में प्रार्थना प्रभावी है क्योंकि यह एक क्रिया है इसलिए इसका परिणाम होगा। यह इस ब्रह्मांड का नियम है जिसमें हम खुद को पाते हैं।
  • आप दूसरों को बदलना चाहते हैं ताकि आप आजाद रह सकें लेकिन, ये कभी ऐसे काम नहीं करता। दूसरों को स्वीकार करिए और आप मुक्त हैं।
  • अगर आप पर हमेशा ऊंगली उठाई जाती रहे तो आप भावनात्मक रूप से अधिक समय तक खड़े नहीं हो सकते।
  • गीत व्यक्ति के मर्म का आह्वान करने में मदद करता है और बिना गीत के मर्म को छूना मुश्किल है।
  • धन एक वस्तु है जो ईमानदारी और न्याय से कमाई जाती है, इसका विपरीत है अधर्म का खजाना।
  • प्रबुद्ध होना- ये कोई घटना नहीं हो सकती. जो कुछ भी यहाँ है वह अद्वैत है। ये कैसे हो सकता है? यह स्पष्टता है।
  • कोई मूल्य तब मूल्यवान है जब मूल्य का मूल्य स्वंय के लिए मूल्यवान हो।
  • जीह्वा को उसे व्यक्त करना चाहिए जो हृदय में है।

वेद पर विचार

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  • वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं। उनमें कोई बात ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से विपरीत नहीं है। कोई बात सृष्टि क्रम के विपरीत नहीं है। वेद का ज्ञान परमात्मा ने मनुष्यों को उन्नति करने में सहायता देने के लिए दिया है। वेद का अर्थ प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के अनुकूल होना चाहिए। वेद में सभी सत्य विद्या एवं विज्ञानों का वर्णन है।

धर्म और अधर्म पर विचार

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  • जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूलाचरण, ईश्वराज्ञा का पालन, परोपकार करना आदि धर्म है और जो इससे विपरीत वह अधर्म कहाता है। क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्योंकर न कहावे ?
  • हमें अज्ञान को दूर करना चाहिए और ज्ञान को बढ़ावा देना चाहिए।
  • ईश्वर समस्त सत्य ज्ञान और ज्ञान से ज्ञात होने वाली सभी बातों का कारण है।
  • सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
  • सभी के प्रति हमारा आचरण प्रेम, धार्मिकता और न्याय से निर्देशित होना चाहिए।
  • किसी को भी केवल अपना भला करने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए; इसके विपरीत, सभी का भला करने में अपना भला देखना चाहिए।
  • मनुष्य को हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए, चाहे राह में कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएं।
  • वह अच्छा और बुद्धिमान है जो हमेशा सच बोलता है, धर्म के अनुसार काम करता है और दूसरों को उत्तम और प्रसन्न बनाने का प्रयास करता है।
  • वेदों का अध्ययन जीवन में सही दिशा देता है, क्योंकि वे सत्य और धर्म का स्रोत हैं।
  • सत्य को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, सत्य स्वयं में सिद्ध होता है।
  • वर्तमान जीवन का कार्य अन्धविश्वास पर पूर्ण भरोसे से अधिक महत्त्वपूर्ण है।

सत्य पर विचार

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  • जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म है।
  • मेरी उँगलियों को चाहे बत्ती बना कर जला दिया जाए, फिर भी मैं सत्य के साथ समझौता नहीं करूंगा।
  • इस ग्रंथ (सत्यार्थ प्रकाश) को बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या प्रतिपादित करना है, जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिए सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। सत्योपदेश ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है। -- अपनी अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ॠषि दयानंद सरस्वती
  • "सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानी:" - अर्थात् सर्वदा सत्य की विजय और असत्य की पराजय होती है और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है।

जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक ही मानव जाति है ठीक इसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिस का आधार सत्य है, इसके अतिरिक्त बाकी तो सब भ्रम ही है न कि सत्य या धर्म । सत्य हमारे जीवन को सरल बनाता है। सत्य से हमें सुरक्षा का भाव मिलता है। सत्यवादी कभी ऊबता या दुखी नहीं होता। सत्यवादी के जीवन में सम्पूर्ण समरसता होती है।

  • सत्य और असत्य को ठीक प्रकार से जानने के लिए पाँच प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए-
पहली – जो-जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वाभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह वह सत्य और उससे विरूद्ध असत्य है। वेद ही सब सत्य विद्या की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग का विधि-निषेधमय ज्ञान वेद है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा प्रदत्त होने से निर्भांन्त एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किए और जीवनयापन किया।
दूसरी – जो-जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह वह सत्य और जो जो विरूद्ध है, वह सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है। ये सभी नियम त्रिकालाबाधित है। प्रत्येक पदार्थ के गुण-कर्म-स्वाभाव सदा एक से रहते हैं। अभाव से भाव की उत्पत्ति अथवा असत् का सदभाव, कारण के बिना कार्य, स्वाभाविक गुणों का परित्याग, जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति अथवा चेतन का जड़ रूप होना, ईश्वर का जीवों की भांति शरीर धारण करना आदि सब सृष्टि क्रम के विरुद्ध होने से असत्य है।
तीसरी – आप्त अर्थात जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सबके सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा व्यक्ति छल कपट और स्वार्थ आदि दोषों से रहित होता है और धार्मिक और विद्वान होता है और सदा सत्य का ही उपदेश करने वाला होता है। सब पर कृपादृष्टि रखते हुए सब के सुख के लिए अविद्या-अज्ञान को दूर करना ही अपना कर्तव्य समझता है। ऐसे वेदानुकूल विद्या का ही उपदेश करने वाले आप्त के कथन अनुकरणीय होते हैं। इस लिए कहा जाता है कि सत्यज्ञानी, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी और जो पक्षपात रहित विद्वान जिसकी कथनी और करनी एक जैसी हो, उसकी बात सब को मन्तव्य होती है।
चौथी – मनुष्य का आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है तथापि अपने हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। मनुष्य की आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है, अर्थात् आत्मा में सत्य और असत्य का विवेक करने की शक्ति है। अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल अर्थात जैसा अपने आत्मा को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है,ऐसी ही भावना सम्पूर्ण प्राणी मात्र में रखनी चाहिए। अर्थात् जिस आचरण को, व्यवहार को हम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए। धर्म और सत्य का सार-निचोड़ यही है, इसे ही सुनना और सुनकर इस पर ही आचरण करना मानव जाति का प्रथम कर्तव्य है।
पाँचवी – सत्य आठों प्रमाणों अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, सम्भव और अभाव - से प्रतिपादित होना चाहिए। []

पाखण्ड पर विचार

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  • गुण-कर्म-स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था ही वेद सम्मत है।
  • वेद पढ़ना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। सब मनुष्यों को बिना भेदभाव के समान अधिकार मिलने चाहिए. कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं हो सकता।
  • यज्ञोपवीत विद्या का चिह्न है और इतिहास में अनेक विदुषी नारियों का उल्लेख आता है। अतः पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत पहनने का समान अधिकार है।
  • जो तुम स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्विता का प्रभाव है।
  • भला जो पुरुष विद्वान और स्त्री अविदुषी तथा स्त्री विदुषी व पुरुष अविद्वान हो, तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में ही मचा रहे, फिर सुख कहां?
  • इससे अधिक हृदय-विदारक, दारुण वेदना और क्या हो सकती है कि विधवाओं की दुखभरी आहों से, अनाथों के निरंतर आर्तनाद से और गो-वध से इस देश का सर्वनाश हो रहा है?

शिक्षा पर विचार

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  • राजनियम और जाति नियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे वह दण्डनीय हो। -- सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में
  • सच्चा ज्ञान वही है, जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए।
  • शिक्षा का उद्देश्य केवल रोज़गार प्राप्त करना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मज्ञान प्राप्त करना है।
  • शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को केवल विद्वान बनाना नहीं, बल्कि उसे सद्गुणी और नैतिकता से युक्त बनाना है।
  • हर मनुष्य का अधिकार है कि वह शिक्षा प्राप्त करे, चाहे उसका जन्म किसी भी वर्ग या जाति में क्यों न हुआ हो।
  • अज्ञानता ही सभी बुराइयों की जड़ है, और शिक्षा का कार्य है इस अंधकार को समाप्त करना।
  • यदि स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया, तो समाज का आधा हिस्सा हमेशा अंधकार में रहेगा।
  • विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना ही सही ज्ञान का आधार है।
  • वेदों का ज्ञान ही मानवता के कल्याण का मार्ग दिखाता है।
  • अज्ञानी होना गलत नहीं है, अज्ञानी बने रहना गलत है।

विद्या पर विचार

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विद्या चार प्रकार से आती है - आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहारकाल।

आगमकाल उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान होकर ध्यान देके विद्यादि पदार्थ ग्रहण कर सके।

स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित हों उनको एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक ठीक हृदय में दृढ़ कर सके।

प्रवचनकाल उसको कहते हैं कि जिससे दूसरे को प्रीति से विद्याओं को पढ़ा सकना।

व्यवहारकाल उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है तब यह करना, यह न करना है वह ठीक-ठीक सिद्ध होके वैसा ही आचरण करना हो सके, ये चार प्रयोजन हैं।

चार कर्म विद्याप्राप्‍ति के लिए हैं - श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार।

श्रवण उसको कहते हैं कि आत्मा मन के और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करने हारे शब्द निकलें उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा में एकत्र करते जाना।

मनन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस शब्द, कौन अर्थ किस अर्थ और कौन सम्बन्ध किस सम्बन्ध के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और और इनके मेल में किस प्रयोजन की सिद्धि और उल्टे होने में क्या क्या हानि होती है।

निदिध्यासन उसको कहते हैं कि जो जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध सुने विचारे हैं वे ठीक ठीक हैं वा नहीं ? इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ़ निश्चय करना।

साक्षात्कार उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने विचारे और निश्चित किये हैं उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्‍ति के साधन हैं।

राजनीति और राजधर्म पर विचार

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  • भारत भारतीयों का है, और हमें किसी भी विदेशी शासन को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
  • स्वाधीनता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे किसी भी स्थिति में छीना नहीं जा सकता।
  • जो व्यक्ति सबसे कम ग्रहण करता है और सबसे अधिक योगदान देता है वह परिपक्कव है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति के जीने में ही आत्म-विकास निहित होता है।
  • सभी मनुष्य जन्म से समान हैं, किसी के साथ जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • प्रत्येक मनुष्य को अपनी धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का अधिकार होना चाहिए।
  • शासन का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि जनकल्याण करना होना चाहिए।
  • दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिये और आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
  • जो देश आत्मनिर्भर नहीं होता, वह कभी स्वतंत्र नहीं रह सकता।
  • सच्चा धर्म वही है, जो राष्ट्र और समाज की सेवा में समर्पित हो।
  • स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग ही सच्ची देशभक्ति है।

स्वराज्य

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  • अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। -- सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में

इस्लाम, कुरान और अल्लाह पर विचार

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  • जो कुरान का खुदा संसार का पालन करने हारा होता और सब पर क्षमा और दया करता होता तो अन्य मत वाले और पशु आदि को भी मुसलमानों के हाथ से मरवाने का हुक्म न देता । जो क्षमा करनेहारा है तो क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ? और जो वैसा है तो आगे लिखेंगे कि "काफिरों को कतल करो" अर्थात् जो कुरान और पैगम्बर को न मानें वे काफिर हैं ऐसा क्यों कहता ? इसलिये कुरान ईश्वरकृत नहीं दीखता।[][]

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

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  • यह हैं भारत–दिवाकर दयानन्द, जिन्होंने इस पाप परिपुष्ट युग में जन्म लेकर जीवन भर निष्कण्टक ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो विद्या में, वाक्पटुता में, तार्किकता में, शास्त्रदर्शिता में, भारतीय आचार्य मण्डली के बीच में शंकराचार्य के ठीक परवर्ती आसन पर आरूढ़ होने के सर्वथा योग्य थे, वेद निष्ठा में, वेद व्याख्या में, वेद ज्ञान की गम्भीरता में, जिनका नाम व्यासादि महर्षिगण के ठीक नीचे लिखे जाने योग्य था, जो अपने को हिन्दुओं के आदर्श सुधारक पद पर प्रतिष्ठित कर गये हैं, और इस मृत प्रायः आर्यजाति को जागरित करके उठाने के उद्देश्य से मृत संजीवनी औषध के भाण्ड को हाथ में लेकर जिन्होंने भरतखण्ड में चतुर्दिक् परिभ्रमण किया था। -- स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन लेखक, बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय
  • डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
  • श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
  • फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
  • ऋषि दयानन्द ने भारत के शक्तिशून्य शरीर में अपनी अजेय शक्ति, अविचल कर्मण्यता तथा सिंह के समान पराक्रम फूँक दिया। वे उच्चतम व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष थे। कर्मयोगी, विचारक और नेता के उपयुक्त प्रतिभा ये सभी प्रकार के दुर्लभ गुण उनमें विद्यमान थे। वह सिंह समान व्यक्तियों में से एक हैं। यूरोप भारत के विषय में निर्णय करते हुए सम्भवतः भारत को तो भूल जाए, पर शायद उसे दयानन्द को याद करने को बाध्य होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें प्रतिभाशाली नेतृत्व से युक्त कर्मशील विचारणा का अद्भुत संगम था। -- रोमां रोलां
  • फ्रेञ्च लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।
  • महर्षि दयानन्द स्वराज्य के सर्वप्रथम सन्देशवाहक तथा मानवता के उपासक थे। -- बाल गंगाधर तिलक
  • दयानंद सरस्वती ने हमें सिखाया कि वैदिक धर्म की शुद्धता और शक्ति में ही भारत की सच्ची स्वतंत्रता निहित है। उनके विचार हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुए। -- बाल गंगाधर तिलक
  • महर्षि दयानन्द ने हमें हमारे प्राचीन वैदिक ज्ञान और संस्कृति की ओर लौटने की प्रेरणा दी। उनका जीवन और उनके सिद्धान्त हर भारतीय के लिए अनुकरणीय है। -- मदन मोहन मालवीय
  • स्वामी दयानन्द के विषय में मेरा मन्तव्य यह है कि वह हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों, सुधारकों और श्रेष्ठ पुरूषों में अग्रणी थे। उनका ब्रह्मचर्य, समाज सुधार, स्वातन्त्र्य स्वराज्य, सर्वप्रतिप्रेम, कार्यकुशलता आदि गुण लोगों को मुग्ध करते थे। -- महात्मा गांधी
  • स्वामी दयानन्द के जीवन में सत्य की खोज दिखाई देती है इसीलिए वे केवल आर्य समाजियों के लिये ही नहीं अपितु समग्र संसार के लिए पूजनीय हैं। -- कस्तूरबा गांधी
  • स्वामी दयानन्द मेरे गुरु हैं। उन्होंने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया। -- लाला लाजपत राय
  • दयानंद सरस्वती का आर्य समाज भारतीय समाज में नई चेतना और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बना। -- लाला लाजपत राय
  • मैंने स्वराज शब्द सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों से सीखा। -- दादाभाई नौरोजी
  • महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे। -- वीर सावरकर
  • महर्षि दयानंद सरस्वती स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दूजाति के रक्षक थे, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने राष्ट्र को महान सेवा की है। स्वतंत्रता के संग्राम में आर्यसमाजियों का बड़ा हाथ रहा है। -- विनायक दामोदर सावरकर
  • मैंने राष्ट्र, जाति तथा समाज की जो सेवा की है उसका श्रेय महर्षि दयानंद सरस्वती को प्राप्त है। मैंने जो कुछ प्राप्त किया है, उसमें सबसे बड़ा हाथ उस सर्वहितैषी, वेदज्ञ और तेजस्वी युगद्रष्टा का है। मुझे उस स्वतंत्र विचारक का शिष्य होने में अभिमान है। -- श्यामजी कृष्ण वर्मा
  • स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने देश को किंकर्तव्यविमूढ़ता के गहरे गडढे में गिरने से बचाया। उन्होंने भारत की स्वाधीनता की वास्तविक नींव डाली। -- वल्लभभाई पटेल
  • महर्षि दयानन्द ने राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक उद्धार का बीड़ा उठाया। स्वाभी जी ने जो स्वराज्य का पहला सन्देश हमें दिया उसकी रक्षा हमें करनी है। उनके उपदेश सूर्य के समान प्रभावशाली हैं। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन
  • स्वामी दयानंद ने भारत के युवाओं को आत्मसम्मान, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन
  • गांधी राष्ट्रपिता हैं तो दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। -- प्रथम लोकसभा अध्यक्ष डॉ० श्री अनन्तशयनम् आयंगर
  • स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज से जातिवाद और भेदभाव मिटाने का जो संकल्प लिया, वह हर युग के लिए अनुकरणीय है। -- डॉ० भीमराव अंबेडकर
  • मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरू दयानन्द को जिन्होंने भारत वर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्व के अज्ञान से मुक्तकर सत्य और पवित्रता की जागृति में ला खड़ा किया, उसे मेरा बारम्बार प्रणाम । -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  • स्वामी दयानंद ने समाज को नई दिशा दी और लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया। उनकी शिक्षाएँ हमें अपने अतीत से जोड़ती हैं और भविष्य की दिशा दिखाती हैं। -- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  • स्वामी दयानंद ने जिस प्रकार समाज में जागरूकता और वैदिक ज्ञान का प्रचार किया, वह अद्वितीय है। उनकी शिक्षाएँ भारतीय समाज को नई ऊँचाइयों पर ले जाने वाली हैं। -- स्वामी विवेकानन्द
  • महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषों में से थे जिन्होंने आधुनिक भारत का विकास किया जो उसके आवार सम्बंधी पुनरूत्थान तथा धार्मिक पुनरूत्थान के उत्तरदाता हैं। हिन्दू समाज का उद्धार करने में आर्य समाज का बहुत बड़ा हाथ है। संगठन कार्य दृढ़ता, उत्साह और समन्वयपालकता की दृष्टि से आर्य समाज की समता कोई और समाज नहीं कर सकता। -- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
  • स्वामी दयानन्द संस्कृत के बड़े विद्वान् और वेदों के बहुत बड़े समर्थक थे। उत्तम विद्वान् के अतिरिक्त साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके अनुयायी उनको देवता मानते थे और बेशक वे इसी लायक थे। हमसे स्वामी दयानन्द की बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत आदर करते थे। वह ऐसे व्यक्ति थे जिनकी उपमा इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। -- सर सैयद अहमद खाँ
  • स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे। -- सैयद अहमद खां
  • निहायत अफसोस की बात है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो संस्कृत के बड़े आलम (विद्वान) और वेद के बड़े मुहक्किल (समर्थक) थे, 30 अक्तूबर 1883 को 7 बजे शाम को अजमेर में इन्तकाल किया। वे इलावा इलमी फजल (उत्तम विद्या के अतिरिक्त) निहायत नेक और दरवेश सिफत (साधु स्वभाव) आदमी थे। इनके मोहत किद (अनुयायी) इनको देवता मानते थे। और बेशक वे इसी लायक थे। वे सिर्फ ज्योति स्वरूप निराकार के सिवाय, दूसरे की पूजा जायज (विहित) नहीं मानते थे। हममें और स्वामी दयानंद मरहूम (स्वर्गीय) में बहुत मुलाकात थी। हम हमेशा इनका निहायत अदब (आदर) करते थे। जबकि हरेक मजहब वाले को इनका अदब लाजिमी (आवश्यक) था। बहरहाल वे ऐसे शख्स थे, जिनका मसल (उपमा) इस वक्त हिन्दुस्तान में नहीं है। और हरेक शख्स को उपकी वफात (मृत्यु) का गम (शोक) करना लाजिमी है कि ऐसा बेनजीर शख्स (अनुपम मनुष्य) इनके दरमियान से जाता रहा। -- सर सैयद अहमद खाँ के अलीगढ इंस्टिट्यूट मैगजीन 6 नवम्बर 1883 में प्रकाशित विचार
  • दयानन्द दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक तथा विश्व को प्रभु की शरण में लाने वाले योद्धा थे। वह मनुष्यों और संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं के वीर विजेता थे। उनके व्यक्तित्व की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है- "एक मनुष्य जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन तत्व में से अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति गढ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वे स्वयं एक दृढ चट्टान थे। उनमें ऐसी दृढ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ और सुड़ौल बना सकें।" -- अरविन्द घोष
  • महर्षि दयानन्द की यह धारणा कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सच्चाईयाँ पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद अथवा कल्पित बात नहीं है। वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या, कोई भी हो, महर्षि दयानन्द का यथार्थ निर्देशों के प्रधान आविर्भावक के रूप में सदा मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग को मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उनकी दृष्टि थी कि जिसने सच्चाई को निकाल लिया और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था उनकी चाबियों को उन्होंने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उन्होंने तोड़कर परे फेंक दिया। -- अरविन्द घोष

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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