दुर्ग
दुर्ग का शाब्दिक अर्थ है, "जहाँ जाना कठिन हो" । किला । प्राचीन भारतीय राजनीति में दुर्ग का बहुत महत्व बताया गया है। राज्य के सात अंगों में दुर्ग भी एक है।
प्राचीन काल में युद्ध के साधन आजकल के साधनों से सर्वथा भिन्न थे। उस समय की सेना के मुख्य अस्त्र-शस्त्रों में धनुष, बाण, तलवार आदि ही होते थे। यही कारण है कि उस समय दुर्ग आदि का महत्व बहुत ही अधिक रहता था। राजधानी पर शत्रु के अधिकार से गम्भीर भय उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि वहीं भोज्य पदार्थ एकत्र रहता है। वहीं प्रमुख तत्त्व एवं सैन्य बल का आयोजन रहता है। राजधानी ही शासन यन्त्र की धुरी है, राजधानी देश की सम्पत्ति का दर्पण है और यदि वह ऊँची दीवारों से सुदृढ़ रहती है तो सुरक्षा का कार्य भी करती है। अतः पञ्चतन्त्र में दुर्ग को आवश्यक सामग्रियों से युक्त होना बतलाया गया है।
प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र और शिल्प के ग्रंथों में दुर्गों के विभिन्न प्रकार के भेद और लक्षण का वर्णन बताये गये हैं- गिरि दुर्ग, जल दुर्ग, भूमि दुर्ग, धान्वन दुर्ग व वन दुर्ग। शुक्रनीतिकार ने दुर्गों के नौ भेद बताये हैं- एरण दुर्ग, पारिख दुर्ग, पारिध दुर्ग, वन दुर्ग, धन्व दुर्ग, जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, सैन्य दुर्ग व सहाय दुर्ग।
उक्तियाँ
सम्पादन- स्वाम्यमात्यौ जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
- मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति
- स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग, राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं।
- स्वाम्यमात्यदुर्गकोशदण्डराष्ट्रमित्राणि प्रकृतयः॥ -- विष्णुधर्मसूत्र - 3/33
- स्वाम्यमात्यजनदुर्गकोशदण्डमित्राणि प्रकृतयः। -- कौटिलीय अर्थशास्त्र - 6/1/1
- स्वामी, अमात्य, जन, दुर्ग, कोश, दण्ड, और मित्र।
- (कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव-शरीर से की है तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्त्व मानव शरीर के अंगो के समान परस्पर सम्बन्धित, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते हैं। स्वामी (राजा) शिर के तुल्य है। अमात्य (मंत्री) राज्य की आँखे हैं। जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं। दुर्ग (किला) राज्य की बाहें हैं। कोष (राजकोष) मुख के समान है। दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मस्तिष्क है। मित्र राज्य के कान हैं।)
- स्वाम्यमात्यसुहृद् दुर्ग कोशदण्ड जनाः ॥ -- गौतमधर्मसूत्र, पृ. सं. 45
- स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा।
- सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥ -- मनुस्मृति - 9/294
- स्वाम्यमात्य सुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च।
- सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः॥ -- शुक्रनीतिसार
- स्वामी (राजा), अमात्य (मंत्री), सुहृद् (मित्र), कोश, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना ये राज्य के सात अंग हैं। इनमें राजा का स्थान सबसे ऊपर है।
- राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे।
- आत्मामात्याश्च कोशाश्व दण्डो मित्राणि चैव हि॥
- तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन।
- एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः ॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व - 69/64-65
- स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्तथैव च।
- मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ -- अग्निपुराण - 233/12
- स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रं च दुर्ग कोशो बलं सुहृत्।
- एतावदुच्यते राज्य सत्वबुद्धिब्यपाश्रयम् ।
- परस्परोपकारीदं सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ -- कामन्दकीय नीतिसार - 1/18/4/1