दण्ड प्रजा का शासनकर्ता और रक्षक है। सभी के सोने पर भी दण्ड जागता रहता है। इसलिए विद्वज्जन दण्ड को ही धर्म मानते हैं।
अपराधानुरूपेण दुष्टं दण्डेन शासयेत्।
धर्मः प्रवर्तते तत्र यत्र दण्डरुचिर्नृपः।
न धर्मो विद्यते तत्र यत्र राजा क्षमान्वितः॥
अशिष्टशासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्।
वध्यांश्च घातयेद् यस्तु अवध्यान परिरक्षति॥ -- महाभारत, अनुशासन पर्व
दुष्ट को अपराध के अनुरूप दण्ड देकर नियन्त्रण में रखना चाहिये। जहाँ राजा दण्ड में रुचि रखता है, वहाँ धर्म बचा रहता है। जहाँ राजा क्षमा करता है, वहाँ धर्म नहीं रहता।
अशिष्ट को नियन्त्रित करना धर्म है। शिष्टों का परिपालन करना धर्म है। जो वध्य हैं, उन्हें मारना चाहिये। अवध्यों (वध न किये जाने योग्य) की रक्षा करना चाहिये।
यथावयो यथाकालं यथाप्राणञ्च ब्राह्मणे।
प्रायश्चितं प्रदातव्यं ब्राह्मणैर्धर्मपाठकैः।
येन शुद्धिमवाप्नोति न च प्राणैर्वियुज्यते।
आर्तिं वा महतीं याति न चैतद् व्रतमादिशेत् ॥ -- हारीत ऋषि
अर्थ - धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों द्वारा पापी को उसकी आयु, समय और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए दण्ड (प्राय्श्चित) देना चाहिए। दण्ड ऐसा हो कि वह पापी का सुधार (शुद्धि) करे, ऐसा नहीं जो उसके प्राण ही ले ले। पापी या अपराधी के प्राणों को संकट में डालने वाला दण्ड देना उचित नहीं है।
दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोशस्य च समप्रवृद्धिः ।
दुष्टों को दंड देना, सज्जनों का सम्मान करना, न्याय से कोष बढाना, किसी के साथ पक्षपात न करना और राष्ट्र की रक्षा करना - ये पाँच राजा के कर्तव्य हैं।
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात् प्रवासनम्॥ -- मनुस्मृति
जो भ्रष्टबुद्धि घुसखोरी का काला काला कम करते हैं, उनका सर्वस्व हर कर राजा उन्हें देशनिकाला दे दे।
यावत् भ्रियेत जठरं तावत् सत्वं हि देहीनाम् ।
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥ -- महाभारत, मनुस्मृति, श्रीमद्भागवत
जब तक पेट भरता है तभी तक देह में शक्ति (सत्व) है। अतः जो भी अपने उदर की क्षमता से अधिक पाने की इच्छा रखता है वह चोर (दूसरों के हक को छीनने वाला) दण्ड दिये जाने के योग्य है।
यदि राजा दण्डित किए जाने योग्य दुर्जनों के ऊपर दण्ड का प्रयोग न करे तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाऐंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है।
प्रथम बार अपराध करने पर वाग्दण्ड, दूसरी बार धिग्दण्ड, तीसरी बार अर्थदण्ड तथा इसके बाद वधदण्ड करना चाहिये।
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते ॥ -- मनुस्मृति
यह संसार दण्ड के द्वारा ही जीते जाने योग्य है, अर्थात् दण्ड के द्वारा ही इसे नियंत्रण में रखा जा सकता है । ऐसा व्यक्ति दुर्लभ है जो स्वभाव से ही साफ-सुथरा एवं सच्चरित्र हो, न कि दण्ड के भय से । दण्ड के भय से ही वह व्यवस्था बन पाती है जिसमें लोग अपनी संपदा का भोग कर पाते हैं ।
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा ।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति ॥ -- मनुस्मृति
जहां श्याम वर्ण एवं लाल नेत्रों वाला और पापों (पापियों?) का नाश करने वाला ‘दण्ड’ विचरण करता है, और जहां शासन का निर्वाह करने वाला उचितानुचित का विचार कर दण्ड देता है वहां प्रजा उद्विग्न या व्याकुल नहीं होती ।
उस दण्ड का समुचित प्रयोग करने वाला राजा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की दृष्टि से समृद्ध होता है। अर्थात् न्याय के मार्ग पर चलने वाले राजा को आर्थिक संपन्नता के साथ सुखभोग और धर्म-संपादन में सफलता मिलती है । इसके विपरीत जो राजा भोगविलास या सत्तासुख में डूबा रहता है, जो लोगों के प्रति असमान या गैरबराबरी (अन्यायपूर्ण) का बरताव करता हो, और जो नीच स्वभाव का हो, वह उसी दण्ड के द्वारा मारा जाता है ।
अर्थ - (राजन! शाकद्वीप के मंक, मशक, मानस, मदंग नामक जनपद में) न कोई राजा था, न दण्ड है और न दण्डदेनेवाला। वहाँ के लोग धर्म के ज्ञाता थे और स्वधर्म पालन के ही प्रभाव से एक दूसरे की रक्षा करते थे।
न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित् ।
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ॥ -- संस्कृत सुभाषितानि
काल ( भाग्य) किसी व्यक्ति को यदि दण्ड देता है तो किसी दण्ड (शस्त्र ) से न दे कर केवल उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। उसकी शक्ति इसी में निहित है कि वह उस व्यक्ति की अपना भला बुरा समझने की शक्ति को ही नष्ट कर देता है जिस के फलस्वरूप वह हर बात का उलटा मतलब निकाल कर नष्ट हो जाता है।
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना ।
न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेव विषयेषु च ॥ -- मनुस्मृति ७/३०
जो राजा (शासक) योग्य सहायकों (मन्त्री, सेनापति, कोषाधिकारी न्यायाधीश आदि) से रहित हो, मूर्ख, लोभी, शास्त्रों के ज्ञान से रहित हो परन्तु विषय वासना में लिप्त हो तो वह इस दण्डव्यस्था का न्यायपूर्ण चालन कदापि नहीं कर सकता है।
कार्षापणं भवेद् दण्ड्यो यत्राण्यः प्राकृतो जनः ।
तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा ॥ -- मनुस्मृति
जब एक सामान्य व्यक्ति पर एक 'कार्षपण' का जुर्माना लगाया जाएगा, तो राजा पर एक हजार का जुर्माना लगाया जाना चाहिए; ऐसा स्थापित नियम है।
( राजा पृथु ने आगे कहा :) भगवत्कृपा से मैं इस लोक का राजा नियुक्त हुआ हूँ और मैं प्रजा के ऊपर शासन करने, उसे विपत्ति से बचाने तथा वैदिक आदेश से स्थापित सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक की स्थिति के अनुसार उसे आजीविका प्रदान करने के लिए यह राजदण्ड धारण कर रहा हूँ।
दण्ड द्वारा प्रजा की रक्षा करनी चाहिये लेकिन बिना कारण किसी को दंड नहीं देना चाहिये। -- रामायण
चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता जितना कि अपमान से। -- प्रेमचन्द
अपराध करने के बाद भय उत्पन्न होता है और यही उसका दंड है। -- वाल्टेयर