आर्तिं वा महतीं याति न चैतद् व्रतमादिशेत् ॥ (हारीत ऋषि)
अर्थ - धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों द्वारा पापी को उसकी आयु, समय और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए दण्ड (प्राय्श्चित) देना चाहिए। दण्ड ऐसा हो कि वह पापी का सुधार (शुद्धि) करे, ऐसा नहीं जो उसके प्राण ही ले ले। पापी या अपराधी के प्राणों को संकट में डालने वाला दण्ड देना उचित नहीं है।
अर्थ - (राजन! शाकद्वीप के मंक, मशक, मानस, मदंग नामक जनपद में) न कोई राजा था, न दण्ड है और न दण्डदेनेवाला। वहाँ के लोग धर्म के ज्ञाता थे और स्वधर्म पालन के ही प्रभाव से एक दूसरे की रक्षा करते थे।
दण्ड द्वारा प्रजा की रक्षा करनी चाहिये लेकिन बिना कारण किसी को दंड नहीं देना चाहिये। -- रामायण
चोर केवल दंड से ही नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता जितना कि अपमान से। -- प्रेमचन्द
अपराध करने के बाद भय उत्पन्न होता है और यही उसका दंड है। -- वाल्टेयर