महाभारत

प्राचीन भारत के दो प्रमुख संस्कृत महाकाव्य में से एक

महाभारत संस्कृत का एक महाकाव्य है जिसकी रचनाकाल के बारे में बहुत मतभेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचनाकाल ३१०० ईसापूर्व से लेकर ४०० ईसवी तक मानते हैं। मैकडोनाल्ड और भण्डारकर इसका रचनाकाल रामायण (१६०० ई.पू.) तथा गृहसूत्रों (४००ई.पू.) के मध्य ५०० ई.पू. मानते हैं। महाभारत की सबसे बड़ी पाण्डुलिपि में लगभग २० लाख शब्द हैं। कभी-कभी इसे विश्व का सबसे बड़ा काव्य माना जाता है।


  • निर्वनो वध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनम् ।
तस्माद्व्याघ्रो वनं रक्षेद्वनं व्याघ्रं च पालयेत् ॥
बिना वन के व्याघ्र (वाघ) का वध हो जाता है, (और) व्याघ्ररहित वन भी काट दिया जाता है। इसलिए व्याघ्र को चाहिये कि वह वन की रक्षा करे और वन को चाहिए कि वह (अपने अन्दर) व्याघ्र को पाले।
  • अत्यन्त लोभी का धन तथा अधिक आसक्ति रखनेवाले का काम - ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं।
  • अधिक बलवान तो वे ही होते हैं जिनके पास बुद्धि बल होता है। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तविक बलवान नहीं होते।
  • अपनी दृष्टि सरल रखो, कुटिल नहीं। सत्य बोलो, असत्य नहीं। दूरदर्शी बनो, अल्पदर्शी नहीं। परम तत्व को देखने का प्रयास करो, क्षुद्र वस्तुओं को नहीं।
  • अपनी निन्दा सहने की शक्ति रखने वाला व्यक्ति मानों विश्व पर विजय पा लेता है।
  • अपनी प्रभुता के लिए चाहे जितने उपाय किए जाएं परन्तु शील के बिना संसार में सब फीका है।
  • अपने पूर्वजों का सम्मान करना चाहिए। उनके बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। उनके दिए उपदेशों का आचरण करना चाहिए।
  • अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता।
  • अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है।
  • अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती और हो भी जाए, तो जो विश्वासपात्र नहीं है उससे कुछ लेने को जी ही नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है।
  • अशांत को सुख कैसे हो सकता है। सुखी रहने के लिए शान्ति बहुत जरुरी है।
  • अहंकार मानव का और मानव समाज का इतना बङा शत्रु है, जो सम्पुर्ण मानव जाति के कष्ट का कारण और अन्ततः विनाश का द्वार बनता है।
  • अहिंसा परम धर्म है अहिंसा परम तप है अहिंसा परम ज्ञान है अहिंसा परम पद है।
  • आशा ही दुख की जननी है और निराशा ही परम सुख शांति देने वाली है।
  • उसी की बुद्धि स्थिर रह सकती है जिसकी इंद्रियाँ उसके वश मेँ हो।
  • एक बुरा आदमी उतना ही प्रसन्न होता है जितना कि एक अच्छा आदमी दूसरों के बीमार बोलने से व्यथित होता है।
  • एकमात्र विद्या ही परम तृप्ति देने वाली है।
  • कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है।
  • कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो।
  • किसी का सहारा लिए बिना कोई ऊंचे नहीं चढ़ सकता, अतः सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिए।
  • किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए और न किसी प्रकार उसे सुनना ही चाहिए।
  • किसी के प्रति मन मेँ क्रोध रखने की अपेक्षा उसे तत्काल प्रकट कर देना अधिक अच्छा है जैसे पल मेँ जल जाना देर तक सुलगने से अच्छा है।
  • क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है।
  • गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता।
  • चतुर मित्र सबसे श्रेष्ठ व मार्ग-प्रदर्शक होता है।
  • जब बोलते समय वक्ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिए अपनी बात कहता है, तब वह वाक्य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है।
  • जहां कृष्ण हैं वहां धर्म है, और जहां धर्म है वहां जय है।
  • जहां लुटेरो के चंगुल मे फंस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहां झूठ बोलना ही ठीक है। ऐसे मे उसे ही सत्य समझना चाहिए।
  • जहाँ सब लोग नेता बनने के इच्छुक हों, जहाँ सब सम्मान चाहते हों और पंडित बनते हों, जहाँ सभी महत्वाकांक्षी हों, वह समुदाय पतित और नष्ट हुए बिना नहीं रह सकता।
  • जिस परिवार व राष्ट्र में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वह पतन व विनाश के गर्त में लीन हो जाता है।
  • जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता।
  • जिस राजा की प्रजा हमेशा कर के भार से पीड़ित रहे, प्रतिदिन दुखी रहे और जिसे तरह-तरह के अनर्थ झेलने पड़ते हैं, उस राजा की हमेशा पराजय होती है।
  • जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुनः-पुनः किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है।
  • जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
  • जिसके साथ सत्य हो, उसके साथ धर्म है, और जिसके साथ धर्म हो, उसके साथ परमेश्वर है, और जिसके साथ स्वयं परमेश्वर हो उसके पास सब कुछ है।
  • जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है, और जो इच्छा का बंधुआ मज़दूर है, उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्याबी जहां रहे वहीं वन और वही भवन-कंदरा है।
  • जिसने पहले तुम्हारा उपकार किया हो, वह यदि बड़ा अपराध करे तो भी उनके उपकार की याद करके उसका अपराध क्षमा दो।
  • जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपटपूर्ण हो, वह सत्य नहीं है।
  • जिसे सत्य पर विश्वास होता है, और जो अपने संकल्प पर दृढ होता है, उसका सदैव कल्याण होता रहता है।
  • जुआ खेलना अत्यंत निष्कृष्ट कर्म है। यह मनुष्य को समाज से गिरा देता है।
  • जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए।
  • जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है।
  • जैसे बिना नाविक की नाव जहाँ कहीं भी जल में बह जाती है और बिना सारथी का रथ चाहे जहाँ भटक जाता है। उसी प्रकार सेनापति बिना सेना जहाँ चाहे भाग सकती है।
  • जैसे सूखी लकड़ी के साथ मिली होने पर गीली लकड़ी भी जल जाती है, उसी प्रकार दुष्ट-दुराचारियों के साथ सम्पर्क में रहने पर सज्जन भी दुःख भोगते है।
  • जो केवल दया से प्रेरित होकर सेवा करते हैँ उन्हें निःसंशय सुख की प्राप्ति होती है।
  • जो जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है अवश्य ही उसका फल भोगता है।
  • जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली।
  • जो मनुष्य अपने माता-पिता की सेवा पुरे सद्भाव से करते है, उनकी ख्याति इस लोक मे ही नही बल्कि परलोक मे भी होती है।
  • जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह अपनी और क्रोध करने वाले की महा संकट से रक्षा करता है। वह दोनों का रोग दूर करने वाला चिकित्सक है।
  • जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे उसके साथ भी उसे वैसा व्यवहार करना चाहिए, यह धर्म है।
  • जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज़ की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है।
  • जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में सम भाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है।
  • जो विपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय आने पर दुख भी सह लेता है, उसके शत्रु पराजित ही हैं।
  • जो वेद और शास्त्र के ग्रंथों को याद रखने में तत्पर है किन्तु उनके यथार्थ तत्व को नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है।
  • जो सज्जन ता का अतिक्रमण करता है उसकी आयु संपत्ति, यश, धर्म, पुण्य, आशीष, श्रेय नष्ट हो जाते हैँ।
  • ज्ञानरूप, जानने योग्य और ज्ञान से प्राप्त होने वाला परमात्मा सबके हृदय में विराजमान है।
  • झूठे पर विश्वास और विश्वस्त पर भी विश्वास सहसा नहीं करना चाहिए।
  • दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करन।
  • दुखों में जिसका मन उदास नहीं होता, सुखों में जिसकी आसक्ति नहीं होती तथा जो राग, भय व क्रोध से रहित होता है, वही स्थितिप्रज्ञ है।
  • दूसरों के लिए भी वही चाहो जो तुम अपने लिए चाहते हो।
  • दूसरों से घृणा करने वाले, दूसरों से ईर्ष्या करने वाले, असंतोषी, क्रोध, सभी बातों में शंका करने वाले और दूसरे के धन से जीविका निर्वाह करने वाले ये छहों सदा दुखी रहते हैं।
  • दो प्रकार के व्यक्ति संसार में स्वर्ग के भी ऊपर स्थिति होते हैं- एक तो जो शक्तिशाली होकर क्षमा करता है और दूसरा जो दरिद्र होकर भी कुछ दान करता रहता है।
  • द्वैष से सदैव दूर रहें।
  • धर्म का पालने करने पर जिस धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है।
  • धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी सब शील के ही आश्रय पर रहते हैं। शील ही सबकी नींव है।
  • न कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। स्वार्थ से ही मित्र और शत्रु एक-दूसरे से बंधे हुए हैं।
  • नारी प्रकृति की बेटी है, उस पर क्रोध मत करो, उसका हृदय कोमल है, उस पर विश्वास करो।
  • नारी वह धुरी है, जिसके चारों ओर परिवार घूमता है।
  • निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निभर्य होकर रहना- ये मनुष्य के सुख हैं।
  • परिवर्तन इस संसार का अटल नियम है, और सब को इसे स्वीकारना ही पड़ता है; क्योकि कोई इसे बदल नही सकता।
  • परोपकार सबसे बड़ा पुण्य और परपीड़ा यानि दूसरों को कष्ट देना सबसे बड़ा पाप है।
  • पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है।
  • पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्र, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी का उपयोग नहीं कर सकते।
  • प्रयत्न न करने पर भी विद्वान लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है। इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे।
  • प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना।
  • प्रिय वस्तु प्राप्त होने पर भी तृष्णा तृप्त नहीं होती, वह ओर भी भड़कती है जैसे ईधन डालने से अग्नि।
  • प्रेम जैसा कोई सुख नहीँ है।
  • बड़े से बड़ा शूरवीर भी अगर अधर्म और अन्याय का साथ देता है तो धर्म के आगे उसे अन्ततः झुकना ही पड़ता है।
  • बलवती आशा कष्टप्रद है। नैराश्य परम सुख है।
  • बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से कटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है, किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता।
  • बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे।
  • बुरे कर्मों का बुरा परिणाम निकलता है।
  • बैर के कारण उत्पन होने वाली आग एक पक्ष को स्वाहा किए बिना कभी शांत नहीं होती।
  • मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है।
  • मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है।
  • मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है।
  • मन से दुखों का चिंतन न करना ही दुखों के निवारण की औषधि है।
  • मन, वचन और कर्म से प्राणी मात्र के साथ अद्रोह, सब पर कृपा और दान यही साधु पुरूषों का सनातन धर्म है।
  • मन, वचन और कर्म से सब प्राणियों के प्रति अदोह, अनुग्रह और दान - यह सज्जनों का सनातन धर्म है।
  • मनुष्य का पराक्रम उसके सब अनर्थ दूर कर देता है।
  • मनुष्य को अपनी मातृभूमि सर्वोपरि रखनी चाहिए और हर परिस्थत मे उसकी रक्षा करनी चाहिए।
  • मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि वह उपकारी के उपकार को कभी न भूले। उसके उपकार से बढ़ कर उसका उपकार कर दे।
  • मनुष्य दूसरे के जिस कर्म की निंदा करे उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरे की निंदा करता है किंतु स्वयं उसी निंद्य कर्म में लगा रहता है, वह उपहास का पात्र होता है।
  • माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है, वह निर्धन होता हुआ भी मानो अन्नपूर्णा के पास चला आता है।
  • मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत।
  • मोह मे फंसकर अधर्म का प्रतिकार न करने के कारण ही महाभारत जैसे युध्द से महान जन-धन की हानि हुई।
  • मौत आती है, और एक आदमी को अपना शिकार बनाती है, एक ऐसा आदमी जिसकी शक्तियां अभी तक अनपेक्षित हैं; फूलों के इरादे को इकट्ठा करने की तरह, जिनके विचार दूसरे तरीके से बदल जाते हैं। अच्छी प्रैक्टिस करने के लिए दांव लगाना शुरू करें, ऐसा न हो कि भाग्य आपके लिए योजनाओं और परवाह के दौर को अनदेखा कर दे; दुःखद कार्य करने के लिए दिन का समापन।
  • यदि अपने पास धन इकट्ठा हो जाए, तो वह पाले हुए शत्रु के समान है क्योंकि उसे छोड़ना भी कठिन हो जाता है।
  • यदि पानी पीते – पीते उसकी बूंद मुंह से निकलकर भोजन में गिर पड़े तो वह खाने योग्य नहीं रहता। पीने से बचा हुआ पानी पुनः पीने के योग्य नहीं होता।
  • ये इन्द्रियाँ ही स्वर्ग और नरक है। इनको वश में रखना स्वर्ग और स्वतंत्र छोड़ देना नर्क है।
  • राजधर्म एक नौका के समान है। यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है।
  • राजन, यद्यपि कहीं-कहीं शीलहीन मनुष्य भी राज्य लक्ष्मी प्राप्त कर लेते हैं, तथापि वे चिरकाल तक उसका उपभोग नहीं कर पाते और मूल सहित नष्ट हो जाते हैं।
  • राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर होती है। जिसे पुरवासी और देशवासियों को प्रसन्न रखने की कला आती है, वह राजा इस लोक और परलोक में सुख पाता है।
  • लज्जा नारी का अमूल्य रत्न है।
  • लोभ धर्म का नाशक है।
  • लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है।
  • विजय की इच्छा रखने वाले शूरवीर अपने बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पाते, जैसी कि सत्य, सज्जनता, धर्म तथा उत्साह से प्राप्त कर लेते हैं।
  • विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
  • विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और धैर्य, ये पांच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र हैं। बुद्धिमान लोग हमेशा इनके साथ रहते हैं।
  • विधि के विधान के आगे कोई नही टिक सकता। एक पुरुर्षाथी को भी वक्त के साथ मिट कर इतिहास बन जाना पड़ता है।
  • विपत्ति के आने पर अपनी रक्षा के लिए व्यक्ति को अपने पड़ोसी शत्रु से भी मेल कर लेना चाहिए।
  • विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं।
  • विषयों के भोगों से विषय वासना की शांति नहीं होती, हवन से बढती हुई अग्नि के समान यह काम वासना नित्य बढती ही जाती है।
  • व्यक्ति को अभिमान नहीं करना चाहिए नहीं तो दुर्योधन जैसा हाल होगा।
  • शरणागत की रक्षा करना बहुत ही पुनीत कर्म है, ऐसा करने से पापी के भी पाप का प्रायश्चित हो जाता है।
  • शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं।
  • सच्चा धर्म यह है कि जिन बातों को इन्सान अपने लिए अच्छा नहीं समझता दूसरों के लिए भी न करे।
  • सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किए हुए बैर को नहीं।
  • सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है।
  • सत्य ही धर्म, तप और योग है। सत्य ही सनातन ब्रह्मा है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका है।
  • सत्य, धर्म, सम्मान, आदि जगहो पे झुकने से मनुष्य कीर्तिवान, और यशस्वी बन जाता है।
  • सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है तथा धर्म से आयु बढ़ती है।
  • सभी को भ्रातृभाव से रहना चाहिए।
  • समय अत्यधिक बलवान होता है, एक क्षण मे समस्त परिस्थितियाँ बदल जाती है।
  • संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है जो मनुष्य की आशाओं का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं।
  • संसार में वही मनुष्य प्रशंसा के योग्य है, वही उत्तम है, वही सत्पुरुष और वही धनी है, जिसके यहाँ से याचक या शरणागत निराश न लौटे।
  • सो कर नींद जीतने का प्रयास न करें। कामोपयोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न करें।
  • स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं।
  • स्वार्थ बड़ा बलवान है। इसी कारण कभी-कभी मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु मित्र।

महाभारत में ज्ञान पर सूक्तियाँ

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  • ज्ञानस्यान्तो न विद्यते। -- आश्वमेधपर्व 44/21
ज्ञान का कोई अन्त नहीं है।
  • ज्ञानं ब्रह्म परं विदुः। -- आश्वमेधपर्व
ज्ञान को ही परब्रह्म का स्वरुप मानते हैं।
  • ज्ञाननिष्ठेषु कार्याणि प्रतिष्ठाप्यानि पाण्डव॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 26/6
हे पाण्डव! ज्ञानवान महापुरुषों को ही सभी तरह के कार्य सौंपने चाहिए।
  • ज्ञानमेव महाराज सर्वदुःखविनाशनम्॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 222/दा.पाठ
महाराज! ज्ञान ही सम्पूर्ण दुःखों को नष्ट करने वाला है।
  • ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन् सर्वत्र सिध्यति॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 238/1
ज्ञानयुक्त पुरूष ही कर्म करता हुआ सब जगह सफलता पाता है।
  • इष्टं त्वनिष्टं च न मां भजेतेत्येतत्कृते ज्ञानविधिः प्रवृत्तः॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 201/11
मुझे इष्ट और अनिष्ट फल दोनों ही न मिलें इसके लिये ज्ञानयोग का उपदेश किया गया है।
  • सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 28/37
ज्ञानरूपी नाव से सभी पापों से भली-भाँति मुक्त हो जाओगे।
  • ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेsर्जुन। महाभारत भीष्मपर्व 28/37
हे अर्जुन! ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है।
  • न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 28/37
इस जगत् में ज्ञान से अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है।
  • ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 28/39
मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त करता है।
  • सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 42/20
सात्त्विक ज्ञान वह होता है जिसके द्वारा सभी प्राणियों में एक ही अविनाशी परमात्मा की सत्ता दिखाई देती है। ऐसे ज्ञान से उसे अलग अलग प्राणियों में एक ही ईश्वर दिखाई देता है।
  • पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 42/21
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सभी प्राणियों में नाना प्रकार के भिन्न भिन्न स्वरुप देखता है ऐसा ज्ञान राजसिक कहलाता है।
  • यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत् तामसमुदाहृतम्॥ -- महाभारत भीष्मपर्व 42/22
जो व्यक्ति पंचमहाभूतों से बने या इनके कार्य अपने शरीर को ही सब कुछ समझता है और उसमें उसमें आसक्त रहता है, ऐसा ज्ञान तामसिक होता है।
  • ज्ञानं प्लावयते सर्वं यो ज्ञानं ह्यनुवर्तते।
ज्ञानादपेत्य या वृत्तिः सा विनाशयति प्रजाः ॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 269/50
जो ज्ञान का अनुसरण करता है ज्ञान उसे सारे सांसारिक बन्धनों से छुड़ा देता है। ज्ञान के बिना किया गया कोई भी काम प्रजा को जन्म-मरण के चक्र में डालकर नष्ट कर डालता है।
  • शरीरपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः।
कषाये कर्मभिः पक्वे रसज्ञाने तिष्ठति॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 270/38
कर्म, स्थूल और सूक्ष्म शरीर की शुध्दि करते हैं, किन्तु ज्ञान परमगति है। जब कर्मों द्वारा चित्त के राग आदि दोष जल जाते हैं तब मनुष्य रसस्वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता है।
  • न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवते्।
न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानास्याधिगमः समृतः॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 326/22
ज्ञान-विज्ञान के बिना मोक्ष नहीं मिलता। गुरू से पढ़े बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
  • एवमेव हि नोत्सेको कर्तव्यो ज्ञानसम्भवः।
फलं ज्ञानस्य हि शमः प्रशमाय यतेत् सदा॥ -- महाभारत अनुशासनपर्व 96/दा.पा.
किसी भी मनुष्य को अपने ज्ञान का अभिमान नहीं करना चाहिए। ज्ञान का फल शान्ति होता है, अतः मनुष्य को सदा शान्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • वृत्तशौचं मनःशौचं तीर्थशौचमतः परम्।
ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं स्मृतम्॥ -- महाभारत अनुशासनपर्व 108/12
ज्ञान से उत्पन्न पवित्रता, आचार-व्यवहार,मन तथा तीर्थ की पवित्रता से भी अधिक मानी गयी है।
  • ज्ञानं निःश्रेय इत्याहुर्वद्धा निश्चितदर्शिनः।
तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन मुच्यते सर्वकिल्विषैः॥ -- महाभारत आश्वमेधपर्व 50/3
निश्चित तत्व परमात्मा का साक्षात् करने वाले अनुभवी वृद्ध लोगों के अनुसार ज्ञान ही कल्याण का कारण है। इसलिए पवित्र ज्ञान से मनुष्य सभी पापों से छुटकारा पा जाता है।
  • मृगैर्मृगाणां ग्रहणं पक्षिणां पक्षिभिर्यथा।
गजानां च गजैरेव ज्ञेयं ज्ञानेन गृह्यते॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 203/12
जिस प्रकार हिरन हिरनों से, पक्षियों से तथा हाथी हाथियों से पकड़े जाते हैं उसी प्रकार ज्ञेय ज्ञान से पकड़ा जाता है।
  • अहिरेव ह्यहेः पादान् पश्यतीति हि नः श्रुतम्।
तद्वन्मूर्तिषु मूर्तिस्थं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ -- महाभारत शान्तिपर्व 203/13
हमने यह सुना है सांप के पांवों को सांप ही जानता है। उसी पद्धति से मूर्तियों में स्तिथ ज्ञेय को व्यक्ति ज्ञान से देख लेता है।

धर्म पर सूक्तियाँ

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धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
अर्थाः स्त्रिश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ -- आदि.२/३९१

धर्म एव हि साधूनां सर्वेषां हितकारणम्।
नित्यं मिथ्याविहीनानां न च दुःखावहो भवेत्॥ -- आदि.७४ दा.पा.२८-२९

मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद् वेत्ति मामिति।
विदन्ति चैनं देवाश्च यश्चैवान्तरपूरुषः॥ -- आदि.७४/२९

यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु कर्हिचित्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ -- आदि.७५/५२

धर्म एव परः कामादर्थाच्चेति व्यवस्थिताः॥ -- आदि.१००/५

धर्मो हि हतो हन्ति॥ -- आदि.४१/२२

शरीरगुप्त्यभ्यधिकं धर्मं गोपाय पाण्डव॥ -- आदि.१५४/२

आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः।
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते॥ -- आदि.१५४/१४

शरीरस्य विनाशेन धर्म एव विशिष्यते॥ -- आदि.२१२/२०

पुण्यं प्राणान् धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते।
येन येनाचरेद् धर्मं तस्मिन् गर्हा न विद्यते॥ -- आदि.१५४/१५

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ -- वन.२/७५

त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति॥ -- वन.४/४

एष धर्मः परमो यत् स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ -- वन.४/७

सर्वथा धर्ममूलोऽर्थो धर्मश्चार्थपरिग्रहः।
इतरेतरयोर्नीतौ विध्दि मेघोदधी यथा॥ -- वन.३३/२९

दानं यज्ञाः सतां पूजा वेदधारणमार्जवम्।
एष धर्मः परो राजन् बलवान् प्रेत्य चेह च॥ -- वन.३३/४६

धर्ममूलं जगद् राजन् नान्यद् धर्माद् विशिष्यते॥ -- वन.३३/४८

धर्मेऽप्रमादं कुरुताप्रमेया॥ -- वन.१२०/२९

धर्मं यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम॥ -- वन.१३१/११

धर्मात्मा हि सुखं राजन् प्रेत्य चेह च नन्दति॥ -- वन.१९१/१९

आचारसम्भवो धर्मो धर्मे वेदाः प्रतिष्ठिताः।
वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः॥ -- वन.१५०/२८

धर्मः परः पाण्डव राज्यलाभात् तस्यार्थमाहुस्तप एव राजन्॥ -- वन.१८३/१६

तस्मात् कल्याणवृत्तः स्यादनन्ताय नरः सदा।
विहाय चित्तं पापिष्ठं धर्ममेव समाश्रयेत्॥ -- वन.१९९/१५

धर्मः सुदुर्लभो विप्र नृशंसेन महात्मनाम्॥ -- वन.२०५/१४

सत्यार्जवे धर्ममाहुः परं धर्मविदो जनाः॥ -- वन.२०६/४०

श्रुतिप्रमाणो धर्मः स्यादिति वृद्धानुशासनम्॥ -- वन.२०६/४१

वेदोक्तः परमो धर्मः धर्मशास्त्रेषु चापरः।
शिष्टाचारश्च शिष्टानां त्रिविधं धर्मलक्षणम्॥ -- वन.२०७/८३

धर्मनित्यास्तु ये केचिन्न ते सीदन्ति कर्हिचित्॥ -- वन.२६३/४४

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः॥ -- वन.३१३/१२८

यशः सत्यं दमः शौचमार्जवं ह्नीरचापलम्।
दानं तपो ब्रह्मचर्यमित्येतास्तनवो मम॥ -- वन.३१४/७

अहिंसा समता शान्तिरानृशम्स्यममत्सरः।
द्वाराण्येतानि मे विद्धि प्रियो ह्यसि सदा मम॥ -- वन.३१४/८

यतो धर्मस्ततो जयः॥ -- उद्योग.३९/९; भीष्म.२/१४ द्रोण.१८३/६६।।

न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात् कामादन्यः प्रवर्तते॥ -- उद्योग.३९/७१

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं जह्याज्जीवितस्यापि हेतोः
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।
त्यक्त्वानित्यं प्रतितिष्ठस्व नित्ये संतुष्य त्वं तोषपरो हि लाभः॥ -- उद्योग.४०/१२, उद्योग.४०/१३, स्वर्ग.५/६३

उभयमेव तत्रोपयुज्यते फलं धर्मस्यैवेतरस्य च॥ -- उद्योग.४२/२३

त्यक्त्वाधर्मं च लोभं च मोहं चोद्यमास्थिताः।
युद्ध्यध्वमनहंकारा यतो धर्मस्ततो जयः॥ -- भीष्म.२१/११

यत्र धर्मो द्युतिः कान्तिर्यत्र ह्नीः श्रीस्तथा मतिः।
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः॥ -- भीष्म.२३/२८

धर्मे स्थितस्य हि यथा न कश्चिद् वृजिनं क्वचित्॥ -- भीष्म.५२/६२

नूनं धर्मस्ततोऽधिकः। स्त्री.१४/११

यो हि धर्मं परित्यज्य भवत्यर्थपरो नरः।
सोऽस्माच्च हीयते लोकात् क्षुद्रभावं च गच्छति॥ -- द्रोण.२४/१४

धर्मापेक्षी नरो नित्यं सर्वत्र लभते सुखम्।
प्रेत्यभावे च कल्याणं प्रसादं प्रतिपद्यते॥ -- द्रोण.८५/३१

न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम्॥ -- द्रोण.१४३/४१

सम्यग्धर्मानुरक्तस्य सिद्धिरात्मवतो यथा॥ -- ३१/५०

दुष्करं परमं ज्ञानं तर्केणानुव्यवस्यति।
श्रुतेर्धर्म इति ह्येके वदन्ति बहवो जनाः॥ -- कर्ण.६९/५५

यत् स्यादहिंसा संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।
अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्॥ -- कर्ण.६९/५७

धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।
यत् स्याद् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥ -- कर्ण.६९/५८

कथं तेषां जयो न स्याद् येषां धर्मो व्यपाश्रयः॥ -- शल्य.१९/२७

धर्मः सुचरितः सद्भिः स च द्वाभ्यां नियच्छति॥ -- शल्य.६०/२१

अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्मः स सतां मतः॥ -- शान्ति.२१/११

अद्रोहः सत्यवचनं संविभागो दया दमः।
प्रजनं स्वेषु दारेषु मार्दवं ह्नीरचापलम्।
एवं धर्मं प्रधानेष्टं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ -- शान्ति.२१/१२

अदत्तस्यानुपादानं दानमध्ययनं तपः।
अहिंसा सत्यमक्रोध इज्या धर्मस्य लक्षणम्॥ -- शान्ति.३६/१०

स एव धर्मः सोऽधर्मः देशकाले प्रतिष्ठितः।
आदानमनृतं हिंसा धर्मो ह्यावस्थिकः स्मृतः॥ -- शान्ति.३६/११

धर्मे वर्धति वर्धन्ति सर्वभूतानि सर्वदा।
तस्मिन् ह्रसति ह्रीयन्ते तस्माद् धर्मं न लोपयेत्॥ -- शान्ति.९०/१७

प्रभवार्थं हि भूतानां धर्मः सृष्टः स्वयम्भुवा॥ -- शान्ति.९०/१९

अस्मिंल्लोके परे चैव धर्मात्मा सुखमेधते॥ -- शान्ति.९१/५२

न कामान्न च संरम्भान्न द्वेषाद् धर्ममुत्सृजेत्॥ -- शान्ति.९३/९

धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा॥ -- शान्ति.९५/१७

तस्मात् धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेत भूमिपः॥ -- शान्ति.९५/२२

सत्येन हि स्थितो धर्म उपपत्या तथा परे।
साध्वाचारतया केचित् तथैवौपयिकादपि॥ -- शान्ति.१००/२

सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्॥ -- शान्ति.१०९/६

प्रभवार्थाय भूतानां धर्म प्रवचनं कृतम्।
यः स्यात् प्रभव संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ -- शान्ति.१०८/१०

धारणाद् धर्ममित्याहु धर्मेण विधृताः प्रजाः।
यः स्याद् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ -- शान्ति.१०९/११

अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।
यः स्यादहिंसासंपृक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ -- शान्ति.१०८/१२

सर्वो हि लोको नृप धर्ममूलः॥ -- शान्ति.१२०/५६

धर्ममूलः सदैवार्थः कामोऽर्थफलमुच्यते।
संकल्पमूलास्ते सर्वे संकल्पो विषयात्मकः॥ -- शान्ति.१२३/४

विषयाश्चैव कार्त्स्न्येन सर्व आहारसिद्धये।
मूलमेतत् त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते॥ -- शान्ति.१२३/५

धर्माच्छरीरसंगुप्तिर्धर्मार्थं चार्थ उच्यते।
कामो रतिफलश्चात्र सर्वे ते च रजस्वलाः॥ -- शान्ति.१२३/६

अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य निगूहनम्।
सम्प्रमोदमलः कामो भूयः स्वगुणवर्जितः॥ -- शान्ति.१२३/१०

यो धर्मार्थौ परित्यज्य काममेवानुवर्तते।
स धर्मार्थ परित्यागात् प्रज्ञानाशमिहार्च्छति॥ -- शान्ति.१२३/१५

प्रज्ञानाशात्मको मोहस्तथा धर्मार्थनाशकः।
तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते॥ -- शान्ति.१२३/१६

धर्मो ह्यणीयान् वचनाद् बुद्धिश्च भरतर्षभ।
श्रुत्वोपास्य सदाचारैः साधुर्भवति स क्वचित्॥ -- शान्ति.१३०/६

यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते।
तथा तथा विजानाति विज्ञानमथ रोचते॥ -- शान्ति.१३०/१०

यश्चतुर्गुणसम्पन्नं धर्मं ब्रूयात् स धर्मवित्।
अहेरिव धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम्॥ -- शान्ति.१३२/२०

अतिधर्माद् बलं मन्ये बलाद् धर्मः प्रवर्तते।
बले प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जङ्गमम्॥ -- शान्ति.१३४/६

धूमो वायोरिव वशे बलं धर्मोऽनुवर्तते।
अनीश्वरो बले धर्मो द्रुमे वल्लीव संश्रिता॥ -- शान्ति.१३४/७

वशे बलवतां धर्मः सुखं भोगवतामिव।
नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वे बलवतां शुचि॥ -- शान्ति.१३४/८

स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति॥ -- शान्ति.१४१/७६

धर्मेणैवर्षयस्तीर्णा धर्मे लोकाः प्रतिष्ठिताः।
धर्मेण देवा ववृधुर्धर्मे चार्थः समाहितः॥ -- शान्ति.१६७/७

धर्मो राजन् गुणः श्रेष्ठो मध्यमो ह्यर्थ उच्यते।
कामो यवीयानिति च प्रवदन्ति मनीषिणः॥ -- शान्ति.१६७/८

युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम्।
कृते धर्मे भवेत् कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम्॥ -- शान्ति.१७५/१६

सदाचारः स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्।
चतुर्थमर्थमित्याहुः कवयो धर्मलक्षणम्॥ -- शान्ति.२५९/३

लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः॥ -- शान्ति.२५९/४

धर्मस्य निष्ठा त्वाचारस्तमेवाश्रित्य भोत्स्यसे॥ -- शान्ति.२५९/६

न हर्तव्यं परधनमिति धर्मः सनातनः॥ -- शान्ति.२५९/१२

मन्यन्ते बलवन्तस्तं दुर्बलैः सम्प्रवर्तितम्।
यदा नियतिदौर्बल्यमथैषामेव रोचते॥ -- शान्ति.२५९/१३

सर्वं प्रियाभ्युपगतं धर्ममाहुर्मनीषिणः॥ -- शान्ति.२५९/२५

न धर्मः परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम्॥ -- शान्ति.२६०/३

अन्यो धर्मः समस्थस्य विषमस्थस्य चापरः।
आपदस्तु कथं शक्याः परिपाठेन वेदितुम्॥ -- शान्ति.२६०/४

अद्रोहेण भूतानामल्प द्रोहेण वा पुनः।
या वृत्तिः स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले॥ -- शान्ति.२६२/६

सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले॥ -- शान्ति.२६२/९

नाहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।
आकाशस्येव विप्रेन्द्र पश्यंल्लोकस्य चित्रताम्॥ -- शान्ति.२६२/११

यथान्धबधिरोन्मत्ता उच्छ्वासपरमाः सदा।
देवैरपिहितद्वाराः सोपमा पश्यतो मम॥ -- शान्ति.२६२/१३

यथा वृध्दातुरकृशा निःस्पृहा विषयान् प्रति।
तथार्थकामभोगेषु ममापि विगता स्पृहा॥ -- शान्ति.२६२/१४

न भूतो न भविष्योऽस्ति न च धर्मोऽस्ति कश्चन।
योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम्॥ -- शान्ति.२६२/१७

यस्माद् उद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव।
वाक्क्रूरात् दण्डपरुषात् स प्राप्नोति महद् भयम्॥ -- शान्ति.२६२/१८

यथावद् वर्तमानानां वृद्धानां पुत्रपौत्रिणाम्।
अनुवर्तामहे वृत्तमंहिस्राणां महात्मनाम्॥ -- शान्ति.२६२/१९

आचाराज्जाजले प्राज्ञः क्षिप्रं धर्ममवाप्नुयात्।
एवं यः साधुभिर्दान्तश्चरेदद्रोहचेतसा॥ -- शान्ति.२६२/२१

वरं धर्मेण जीवितुम्॥ -- शान्ति.२७१/३२

देवता ब्राह्मणाः सन्तो यक्षा मानुष चारणाः।
धार्मिकान् पूजयन्तीह न धनाढ्यान् न कामिनः॥ -- शान्ति.२७१/५५

धने सुखकला काचिद् धर्मे तु परमं सुखम्॥ -- शान्ति.२७१/५६

लोभमोहाभिभूतस्य रागद्वेषान्वितस्य च।
न धर्मे जायते बुद्धिर्व्याजाद् धर्मं करोति च॥ -- शान्ति.२७३/६

धर्मे स्थितानां कौन्तेय सिद्धिर्भवति शाश्वती॥ -- शान्ति.२७३/२४

धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च॥ -- शान्ति.२९०/६

धर्मवृत्त्या च सततं कामार्थाभ्यां न हीयते॥ -- शान्ति.२९०/६४

धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम्।
धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः॥ -- शान्ति.३०९/६

अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्॥ -- अनुशासन.२२/१९

साधूनां पुनराचारो गरीयान् धर्मलक्षणः॥ -- अनुशासन.४५/५

न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।
एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते॥ -- अनुशासन.११३/८

परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम्।
अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम्॥ -- अनुशासन.१४१/२६

चित्तमूलो भवेद् धर्मो धर्ममूलं भवेद् यशः॥ -- अनु.१४१ दा.पा.

वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः।
शिष्टाचीर्णोऽपरः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः॥ -- अनु.१४१/६५

सर्वभूतेषु यः सम्यग् ददात्यभयदक्षिणाम्।
हिंसादोषविमुक्तात्मा स वै धर्मेण युज्यते॥ -- अनु.१४२/२७

सर्वभूतानुकम्पी यः सर्वभूतार्जवव्रतः।
सर्वभूतात्मभूतश्च स वै धर्मेण युज्यते॥ -- अनु.१४२/२८

आर्जवं धर्ममित्याहुरधर्मो जिह्म उच्यते।
आर्जवेनेह संयुक्तो नरो धर्मेण युज्यते॥ -- अनु.१४२/३०

क्षन्तो दान्तो जितक्रोधो धर्मभूतो विहिंसकः।
धर्मे रतमना नित्यं नरो धर्मेण युज्यते॥ -- अनु.१४२/३२

व्यपेततन्द्रिर्धर्मात्मा शक्त्या सत्पथमाश्रितः।
चारित्रपरमो बुद्धो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ -- अनु.१४२/३३

तदेव धर्ममित्याहुर्दोषसंयमनं प्रिये।
यमधर्मेण धर्मोऽस्ति नान्यः शुभतरः प्रिये॥ -- अनु.१४५ दा.पा.

यस्तस्य विपुलो दण्डः सम्यग्धर्मः स कीर्त्यते॥ -- अनु.१४८/५०

अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतच्चतुष्टयम्।
अजातशत्रो सेवस्व धर्म एष सनातनः॥ -- अनु.१६२/२३

ये तु धर्मं महाराज सततं पर्युपासते।
सत्यार्जवपराः सन्तस्ते वै स्वर्गभुजो नराः॥ -- अनु.१६२/२९

मनुष्या यदि वा देवाः शरीरमुपताप्य वै।
धर्मिणः सुखमेधन्ते लोभद्वेषविवर्जिताः॥ -- अनु.१६२/३१

मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि धर्ममेव समासते॥ -- अनु.१६२/६०

एक एव चरेद् धर्मं न धर्मध्वजिको भवेत्।
धर्मवाणिजका ह्येते ये धर्ममुपभुञ्जते॥ -- अनु.१६२/६१

अर्चेद् देवानदम्भेन सेवेतामायया गुरून्।
निधिं निदध्यात् पारत्र्यं यात्रार्थं दानशब्दितम्॥ -- अनु.१६२/६२

यदा च क्षीयते पापं कालेन पुरुषस्य तु।
तदा संजायते बुध्दिर्धर्मं कर्तुं युधिष्ठिर॥ -- आश्व.९२

एवं धर्मात् परं नास्ति महत्संसारमोक्षणम्।
न च धर्मात् परं किंचित् पापकर्मव्यपोहनम्॥ -- आश्व.९२

तस्मात् धर्मः सदा कार्यो मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
न हि धर्मानुरक्तानां लोके किंचन दुर्लभम्॥ -- आश्व.९२

एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रमीयते।
एकोऽनुभुङक्ते सुकृतमेकश्चाप्नोति दुष्कृतम्॥ -- आश्व.९२

मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुवर्तते॥ -- आश्व.९२

अनागतानि कार्याणि कर्तुं गणयते मनः।
शारीरकं समुद्दिश्य स्मयते नूनमन्तकः
तस्माद् धर्मसहायस्तु धर्मं संचिनुयात् सदा।
धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्॥ -- आश्व.९२

अहिंसा शैचमक्रोधमानृशंस्यं दमः शमः।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्॥ -- आश्व.९२

बाल्ये विद्यां निषेवेत यौवने दारसंग्रहम्।
वार्धके मौनमातिष्ठेत् सर्वदा धर्ममाचरेत्॥ -- आश्व.९२

ब्राह्मणान् नावमन्येत गुरून् परिवदेन्न च।
यतीनामनुकूलः स्यादेष धर्मः सनातनः॥ -- आश्व.९२

धर्मो धर्मेण वर्धते॥ -- आश्व.९२

सत्येन संवर्धयति यो दमेन शमेन च।
अहिंसया च दानेन तप्यमानः सनातनः॥ -- आश्रमवास.२८/१७

सर्वगश्चैव राजेन्द्र सर्वं व्याप्य चराचरम्।
दृश्यते देवदेवैः स सिद्धैर्निर्मुक्त कल्मषैः॥ -- आश्रमवास.२८/२०

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते॥ -- स्वर्ग.५/६२

महाभारत के बारे में

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  • धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्॥
अर्थ : धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विषय में जो भी ज्ञात है वह सब महाभारत में है। (किन्तु) जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है।
  • महाभारत में, राज्याभिषेक के समय उपदेश में यह भी कहा गया है कि राजा को माली (मालाकार) के समान होना चाहिये न कि लकड़ी का कोयला बनाने वाले (आङ्गारिक) की तरह। माला सामाजिक समरसता का संकेत करता है, यह धार्मिक विविधता का रूपक है जिसमें विभिन्न रंगों के फूल मिलकर अत्यन्त सुखदायक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। उसके विपरीत लकड़ी का कोयला बनाने वाला पाशविक शक्ति का प्रतीक है जो विविधता को (जलाकर) एकरूपता में बदलता है, जिसमें जीवित पदार्थ को निर्जीव एकसमान राख में बदल दिया जाता है। -- राजीव मल्होत्रा, इन्द्राज नेट में ;

उपरोक्त कथन में में राजीव मल्होत्रा निम्नलिखित श्लोक की बात कर रहे हैं-

मालाकारोपमो राजन् भव माङ्गारिकोपमः ।
तथायुक्तश्चिरं राष्ट्रं भोक्तुं शक्यसि पालयन् ॥

इन्हें भी देखें

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