• आ त्वाहार्षमन्तरेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः ।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत् ॥ -- ऋग्वेद 10.173.1-2
ऋग्वेद के इस मन्त्र में राजा के चुनाव की ओर संकेत किया गया है। यहां पर राजा से कहा गया है कि तुम राष्ट्र के अधिपति बनाए गए हो। तुम राष्ट्र के स्वामी और स्थिर मति , अटल विचर और दृढ़ कार्यों को करने वाले बनो। तुम्हारी प्रजा तुम्हारे प्रति अनुरक्त रहे और तुम्हारे राष्ट्र का अमंगल न हो। तुम पर्वत के समान अटल होकर यहां निवास करो। जैसे इन्द्र अविचलित रूप से रहते हैं उसी प्रकार तुम भी निश्चल होकर रहो तथा अपने राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने वाले बनो।
  • कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम् ।
इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम् ॥ -- महाभारत, शान्ति पर्व
(भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि) काल राजा को बनाता है या राजा काल को? इसमें तुम कभी संशय मत करना। राजा ही काल को बनाता है। (जैसा राजा होगा, वैसा समय।)
  • पित्राअपरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः।
अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत॥ -- विष्णुपुराण, १-१३-४८
जिस प्रजा को पिता वेन ने अप्रसन्न किया उसी को पृथु ने अनुरञ्जित (प्रसन्न) किया। इस कारण अनुरञ्जन करने से उनका नाम 'राजा' हुआ। (यह श्लोक 'राजा' शब्द को इस प्रकार परिभाषित करता है कि जो प्रजा को प्रसन्नता प्रदान करे वह राजा होता है।)
  • राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ -- चाणक्यनीति
यदि किसी देश का राजा (शासक) धार्मिक आचरण करने (राजधर्म का पालन करने वाला) वाला हो तो उस देश की प्रजा भी धार्मिक होती है। यदि राजा पापी (दुष्ट) हो तो प्रजा भी पापी होती है। प्रजा, राजा के आचरण का अनुसरण करती है। जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है।
  • प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥ -- कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण (विनयाधिकारिक), प्रकरण १५
प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है; प्रजा का हित ही राजा का वास्तविक हित है। वैयक्तिक स्तर पर राजा को जो अच्छा लगे उसमें उसे अपना हित न देखना चाहिए, बल्कि प्रजा को जो ठीक लगे, उसे ही राजा अपना हित समझे।
  • तस्मान्नित्योत्थितो राजा कुर्यादर्थानुशासनम् ।
अर्थस्य मूलमुत्थानमनर्थस्य विपर्ययः ॥ -- कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण (विनयाधिकारिक), प्रकरण १५
अतः उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए राजा को चाहिए कि वह प्रतिदिन उन्नतिशील-उद्यमशील होकर शासन-प्रशासन एवं व्यवहार के दैनिक कार्यव्यापार सम्पन्न करे। अर्थ के मूल में उद्योग में संलग्नता ही है, इसके विपरीत लापरवाही, आलस्य, श्रम का अभाव आदि अनर्थ (संपन्नता के अभाव या हानि) के कारण बनते हैं।
  • अश्विनी सूयते वत्सं कामधेनुस्तुरंगमम् ।
नद्यां संजायते वह्निर्यथा राजा तथा प्रजाः ॥ -- महासुभाषितसंग्रह
जैसा राजा होता हैं, वैसी ही उसकी प्रजा होती हैं। यदि राजा का व्यवहार सामान्य नहीं है, तो उसकी प्रजा विकृत रूप से व्यवहार करती हैं। (उस विकृत राज्य में) घोड़ी बछड़े को जन्म देती है, कामधेनु तुरंग को जन्म देती है, नदी में आग पैदा होती है। (यह सुभाषित अतिशयोक्ति अलंकार का एक उदाहरण हैं। इसका उपयोग भावनाओं को तीव्रता से व्यक्त करने या अधिक प्रभावी बनाने के लिए किया जाता हैं, लेकिन इसका अर्थ शाब्दिक रूप से नहीं लेते हैं।)
  • नाराजके जनपदे धनवन्तः सुरक्षिताः ।
शेरते विवृतद्वाराः कृषिगोरक्षजीविनः ॥ -- वाल्मीकि रामायण
बिना राजा के राज्य में धनी जन सुरक्षित नहीं रह पाते हैं और न ही कृषिकार्य एवं गोरक्षा (गोपालन) से आजीविका कमाने वाले लोग ही दरवाजे खुले छोड़कर सो सकते हैं। अर्थात् राजा न होने पर सर्वत्र असुरक्षा फैल जाती है और चोरी-छीनाझपटी जैसी घटनाओं का उन्हें सामना करना पड़ता है।
  • अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात् ।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ मनुस्मृति ७।३ ॥
अर्थ : बिना राजा के इस लोक में सब ओर अराजकता फैल जायेगी, जिसके कारण सब लोग सब ओर से भय को प्राप्त होंगे। इन सबकी रक्षा के लिए परमात्मा ने राजा को बनाया।
  • राजन् दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां
तेनाद्य वत्समिव लोकममुं पुषाण ।
तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः ॥ -- भर्तृहरि, नीतिशतक, श्लोक ४६
हे राजा ! अगर आप पृथ्वी रुपी गाय को दुहना चाहते हैं, तो प्रजा रुपी बछड़े का पालन-पोषण कीजिये। यदि आप प्रजा रुपी बछड़े का अच्छी तरह पालन-पोषण करेंगे तो पृथ्वी कल्पलता की तरह आपको नाना प्रकार के फल देगी।
  • वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति ।
तथाभिवर्षेत् स्वं राष्ट्रं कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥ मनुस्मृति ९।३०४ ॥
जिस प्रकार इन्द्र वर्ष में चार माह वर्षा करके सबको तृप्त कर देता है, वैसे ही राजा को अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि-शान्ति-उन्नति की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहिए। उसको अपनी प्रजा को ऐश्वर्य-युक्त करना चाहिए। यह उसका इन्द्र-व्रत कहलाता है।
  • अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः ।
तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ मनु० ९।३०५ ॥
जिस प्रकार शेष आठ मास सूर्य, अपनी किरणों के द्वारा, सब वस्तुओं में से जल हरता रहता है, उसी प्रकार राजा भी, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, नित्य कर की वसूली करे । यह उसका अर्कव्रत होता है।
प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः ।
तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥ मनु० ९।३०६ ॥
जिस प्रकार वायु सब वस्तुओं में प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार राजा को गुप्तचरों द्वारा अपनी राष्ट्र के हर भाग में प्रवेश करके, वहां की सूचना रखनी चाहिए। यह उसका मारुत-व्रत कहलाता है।
  • यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति ।
तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम् ॥ मनु० ९।३०७ ॥
जिस प्रकार यम, समय आने पर कर्मानुसार सब को प्रिय या अप्रिय कर्मफल देकर नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार राजा को प्रजा को दण्ड और लाभ देकर नियन्त्रण में रखना चाहिए। यह उसका यम-व्रत होता है।
  • परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः ।
तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः ॥ मनु० ९।३०९ ॥
जिस प्रकार पूर्ण चन्द्र को देखकर मानव हर्ष करते हैं, वैसी ही प्रकृति राजा की होनी चाहिए। अर्थात् राजा की आर्थिक व नैयायिक व्यवस्था से सन्तुष्ट जन उसको देखकर आह्लादित होने चाहिए । वही राजा चान्द्रव्रतिक कहलाता है।
  • प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।
दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम् ॥ मनु० ९।३१० ॥
जिस प्रकार अग्नि शाक, धातु, आदि के दोषों को जला देती है, उसी प्रकार राजा को चाहिए कि वह पापकर्मों में प्रतापी और तेजस्वी हो, अर्थात् स्वयं भयभीत न हो, अपितु पापी को भय दिलाए, और दुष्ट मन्त्री, अधिकारी तक को भी कठोर दण्ड दे। राजा के प्रतिनिधि ही यदि अत्याचार करेंगे, तो प्रजा में न्यायव्यवस्था स्थापित ही नहीं हो सकती । यह राजा का आग्नेय-व्रत होता है ।
  • यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् ।
तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम् ॥ मनु० ९।३११ ॥
जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों को समान भाव से धारण करती है, उसी प्रकार राजा को सारी प्रजा का पक्षपात-रहित होकर पालन-पोषण करना चाहिए । यह उसका पार्थिव व्रत कहलाता है।
  • महोत्साहः स्थूललक्षः कृतज्ञो वृद्धसेवकः ।
विनीतः सत्त्वसंपन्नः कुलीनः सत्यवाक्शुचिः ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३०९
अदीर्घसूत्रः स्मृतिमानक्षुद्रोऽपरुषस्तथा ।
धार्मिकोऽव्यसनश्चैव प्राज्ञः शूरो रहस्यवित् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३१०
स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च ।
विनीतस्त्वथ वार्तायां त्रय्यां चैव नराधिपः ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३११
राजा महान उत्साही , अत्यन्त धन देने वाला , विनित , सत्त सम्पन्न , सम्पत्ति एवं विपत्ति में एक - सा आचरण करने वाला हो। वह कुलीन, सत्य वचन बोलने वाला' पवित्र' आलस्य रहित , जानते हुए कार्यों का स्मरण रखने वाला' सद्गुणी , दूसरे को दुःख न देने वाला, आर्थिक व्यसन न करने वाला, बुद्धिमान , वीर , रहस्य को छिपाने में चतुर तथा अपने राज्य के प्रवेश द्वारों को गुप्त रखने वाला हो। आन्वीक्षिकी , दण्डनीती और वार्ता इन विद्याओं में राजा प्रवीण होना चाहिए।
  • स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग, राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला) कहा गया है।
  • अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदण्डनीय नहीं होता है।
  • ब्राह्मणेषु क्षमी स्निग्धेष्वजिह्मः क्रोधनोऽरिषु ।
स्याद्राजा भृत्यवर्गेषु प्रजासु च यथा पिता ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३३४
राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, अनुराग रखने वालों के प्रति सरल , शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान दयावान एवं हितकारी होना चाहिए।
  • मन्त्रमूलं यतो राज्यं तस्मान्मन्त्रं सुरक्षितम् ।
कुर्याद्यथास्य न विदुः कर्मणां आफलोदयात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३४४
राज्य कार्य का मुख्य आधार मन्त्र है। इसलिए मन्त्र को इस प्रकार राजा गुप्त रखे कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके।
  • स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गं उच्यते ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३५३
राजा , अमात्य, प्रजा , दुर्ग , कोष , दण्ड (सेना) और मित्र ये राज्य के मूल कारण हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग कहा जाता है।
  • अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व
जिसमें क्रोध का अभाव होता है, जो दुर्व्यसनों से दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया है वह राजा हिमालय के समान सम्पूर्ण प्राणियों का विश्वासपात्र बन जाता है।
  • राजा चरति चेद् धर्मं देवत्वाय कल्पते।
स चेदधर्मं चरति नरकायैव गच्छति॥ -- महाभारत
राजा यदि धर्म के अनुसार आचरण करता है तो देवता बन जाता है और यदि वह अधर्म का आचरण करता है तो नरकगामी हो जाता है।
  • नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व, सत्ययुग के हालात बताते हुए युधिष्ठिर को भीष्म का उपदेश
(उस समय) न राज्य था और ना राजा था , न दण्ड था और न दण्ड देने वाला । सारी प्रजा ही नैतिक आचरण से एक-दूसरे की रक्षा करती थी।
  • मैं वास्तव में एक राजा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि खुद पर शासन कैसे करना है। -- Pietro Aretino
  • आपको राजा बनने के लिए राजा को हराना होगा। कोई आपको स्वर्ण पदक देने वाला नहीं है। -- Donovan Bailey
  • मैं मूर्खों के राजकुमार के बजाय बच्चों का राजा बनना पसंद करूँगा। -- जैक ब्लैक
  • अगर मैं राजा नहीं होता, तो मैं एक विश्वविद्यालय का आदमी होता। -- राजा जेम्स प्रथम
  • मैं हमेशा मानता हूं कि राजा या आधिकारिक नेता का शासन पुराना है। अब हमें आधुनिक दुनिया के साथ चलना होगा। -- दलाई लामा
  • राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषण में, हमने अभी भी राजा का सिर नहीं काटा है। -- माइकेल फौकल्ट
  • मैं वहां रहना और प्यार करना पसंद करूंगा जहां मौत राजा है बजाय अनंत जीवन पाने के जहां प्यार नहीं है। -- Robert Green Ingersoll
  • राजा मर गया और फिर रानी मर गई यह एक कहानी है। राजा मर गया, और फिर रानी शोक से मर गई यह एक साजिश है। -- E. M. Forster
  • राजा कोई गलती नहीं कर सकता यह अंग्रेजी संविधान का एक आवश्यक और मौलिक सिद्धांत है। -- William Blackstone
  • राजा को मरना चाहिए ताकि देश जीवित रह सके। -- Maximilien Robespierre
  • मैं पढ़ने की इच्छा के बिना एक राजा की तुलना में किताबों से भरी झोपड़ी में गरीब होना पसंद करूंगा। -- Thomas Babington Macaulay
  • मैंने हमेशा कहा है, अगर आप अपने आप को एक रानी की तरह मानते हैं, तो आप एक राजा को आकर्षित करेंगे। -- Pepa
  • हमारी व्यवस्था के अधीन लोग, राजशाही में राजा की तरह, कभी नहीं मरते। -- Martin Van Buren
  • सत्ता एक मरते हुए राजा को भूल जाती है। -- अल्फ्रेड लॉर्ड टेन्नीसन
  • जो दयालु है वह स्वतंत्र है, यद्यपि वह दास है; जो दुष्ट है वह दास है, चाहे वह राजा ही क्यों न हो। -- सन्त अगस्ताइन
  • ऐसा कोई राजा नहीं है जिसके पूर्वजों में कोई दास न रहा हो, और न ऐसा कोई दास हुआ हो जिसका कोई राजा न हुआ हो। -- हेलेन केलर
  • ऐसा कोई राजा नहीं है जिसका झारखंड में कोई दास नहीं हो रहा है, और न ऐसा कोई दास हुआ है जिसका कोई राजा न हुआ हो। -- रॉबर्ट केनेडी
  • पृथ्वी पर आंसू की एक बूंद स्वर्ग के राजा को बुलाती है। -- Charles R. Swindoll
  • वह जो अपने भीतर राज करता है और जुनून, इच्छाओं और भय पर शासन करता है, वह राजा से बढ़कर है। -- जॉन मिल्टन
  • राजा की कृपा और सच्चाई उसकी रक्षा करते हैं, करूणा से उसकी गद्दी स्थिर रहती है। -- King Solomon
  • बदमाशों के देश में जिसकी नाक आधी होती है वही राजा होता है। -- Chris Farley
  • वह सबसे सुखी है, चाहे वह राजा हो या किसान, जिसे अपने घर में शांति मिलती है। -- Johann Wolfgang von Goethe

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