इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम् ॥ -- महाभारत, शान्ति पर्व
(भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि) काल राजा को बनाता है या राजा काल को? इसमें तुम कभी संशय मत करना। राजा ही काल को बनाता है। (जैसा राजा होगा, वैसा समय।)
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ -- चाणक्यनीति
यदि किसी देश का राजा (शासक) धार्मिक आचरण करने (राजधर्म का पालन करने वाला) वाला हो तो उस देश की प्रजा भी धार्मिक होती है। यदि राजा पापी (दुष्ट) हो तो प्रजा भी पापी होती है। प्रजा, राजा के आचरण का अनुसरण करती है। जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है।
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥ -- कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण (विनयाधिकारिक), प्रकरण १५
प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है; प्रजा का हित ही राजा का वास्तविक हित है। वैयक्तिक स्तर पर राजा को जो अच्छा लगे उसमें उसे अपना हित न देखना चाहिए, बल्कि प्रजा को जो ठीक लगे, उसे ही राजा अपना हित समझे।
तस्मान्नित्योत्थितो राजा कुर्यादर्थानुशासनम् ।
अर्थस्य मूलमुत्थानमनर्थस्य विपर्ययः ॥ -- कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण (विनयाधिकारिक), प्रकरण १५
अतः उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए राजा को चाहिए कि वह प्रतिदिन उन्नतिशील-उद्यमशील होकर शासन-प्रशासन एवं व्यवहार के दैनिक कार्यव्यापार सम्पन्न करे। अर्थ के मूल में उद्योग में संलग्नता ही है, इसके विपरीत लापरवाही, आलस्य, श्रम का अभाव आदि अनर्थ (संपन्नता के अभाव या हानि) के कारण बनते हैं।
अश्विनी सूयते वत्सं कामधेनुस्तुरंगमम् ।
नद्यां संजायते वह्निर्यथा राजा तथा प्रजाः ॥ -- महासुभाषितसंग्रह
बिना राजा के राज्य में धनी जन सुरक्षित नहीं रह पाते हैं और न ही कृषिकार्य एवं गोरक्षा (गोपालन) से आजीविका कमाने वाले लोग ही दरवाजे खुले छोड़कर सो सकते हैं। अर्थात् राजा न होने पर सर्वत्र असुरक्षा फैल जाती है और चोरी-छीनाझपटी जैसी घटनाओं का उन्हें सामना करना पड़ता है।
अर्थ : बिना राजा के इस लोक में सब ओर अराजकता फैल जायेगी, जिसके कारण सब लोग सब ओर से भय को प्राप्त होंगे। इन सबकी रक्षा के लिए परमात्मा ने राजा को बनाया।
हे राजा ! अगर आप पृथ्वी रुपी गाय को दुहना चाहते हैं, तो प्रजा रुपी बछड़े का पालन-पोषण कीजिये। यदि आप प्रजा रुपी बछड़े का अच्छी तरह पालन-पोषण करेंगे तो पृथ्वी कल्पलता की तरह आपको नाना प्रकार के फल देगी।
जिस प्रकार इन्द्र वर्ष में चार माह वर्षा करके सबको तृप्त कर देता है, वैसे ही राजा को अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि-शान्ति-उन्नति की इच्छाओं को पूर्ण करना चाहिए। उसको अपनी प्रजा को ऐश्वर्य-युक्त करना चाहिए। यह उसका इन्द्र-व्रत कहलाता है।
अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः ।
तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ मनु० ९।३०५ ॥
जिस प्रकार शेष आठ मास सूर्य, अपनी किरणों के द्वारा, सब वस्तुओं में से जल हरता रहता है, उसी प्रकार राजा भी, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, नित्य कर की वसूली करे । यह उसका अर्कव्रत होता है।
प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः ।
तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥ मनु० ९।३०६ ॥
जिस प्रकार वायु सब वस्तुओं में प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार राजा को गुप्तचरों द्वारा अपनी राष्ट्र के हर भाग में प्रवेश करके, वहां की सूचना रखनी चाहिए। यह उसका मारुत-व्रत कहलाता है।
यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति ।
तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम् ॥ मनु० ९।३०७ ॥
जिस प्रकार यम, समय आने पर कर्मानुसार सब को प्रिय या अप्रिय कर्मफल देकर नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार राजा को प्रजा को दण्ड और लाभ देकर नियन्त्रण में रखना चाहिए। यह उसका यम-व्रत होता है।
परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः ।
तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः ॥ मनु० ९।३०९ ॥
जिस प्रकार पूर्ण चन्द्र को देखकर मानव हर्ष करते हैं, वैसी ही प्रकृति राजा की होनी चाहिए। अर्थात् राजा की आर्थिक व नैयायिक व्यवस्था से सन्तुष्ट जन उसको देखकर आह्लादित होने चाहिए । वही राजा चान्द्रव्रतिक कहलाता है।
जिस प्रकार अग्नि शाक, धातु, आदि के दोषों को जला देती है, उसी प्रकार राजा को चाहिए कि वह पापकर्मों में प्रतापी और तेजस्वी हो, अर्थात् स्वयं भयभीत न हो, अपितु पापी को भय दिलाए, और दुष्ट मन्त्री, अधिकारी तक को भी कठोर दण्ड दे। राजा के प्रतिनिधि ही यदि अत्याचार करेंगे, तो प्रजा में न्यायव्यवस्था स्थापित ही नहीं हो सकती । यह राजा का आग्नेय-व्रत होता है ।
यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् ।
तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम् ॥ मनु० ९।३११ ॥
जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों को समान भाव से धारण करती है, उसी प्रकार राजा को सारी प्रजा का पक्षपात-रहित होकर पालन-पोषण करना चाहिए । यह उसका पार्थिव व्रत कहलाता है।
स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग, राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला) कहा गया है।
अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदण्डनीय नहीं होता है।
अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व
जिसमें क्रोध का अभाव होता है, जो दुर्व्यसनों से दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया है वह राजा हिमालय के समान सम्पूर्ण प्राणियों का विश्वासपात्र बन जाता है।
राजा चरति चेद् धर्मं देवत्वाय कल्पते।
स चेदधर्मं चरति नरकायैव गच्छति॥ -- महाभारत
राजा यदि धर्म के अनुसार आचरण करता है तो देवता बन जाता है और यदि वह अधर्म का आचरण करता है तो नरकगामी हो जाता है।
मैं वास्तव में एक राजा हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि खुद पर शासन कैसे करना है। -- Pietro Aretino