• त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति। -- चरकसंहिता, शरीरस्थान
(शरीररुपी भवन को धारण करनेवाले) तीन उपस्तम्भ हैं; आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य ।
  • ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। -- अथर्ववेद, ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्रह्मचर्य के तप द्वारा देवता मृत्यु को मार भगाते हैं।
  • ब्रह्मचर्यस्य च गुणं श्रृणु त्वं वसुधाधिप ।
आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह ॥१ ॥ -- महाभारत
न तस्य कि चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप ।
बह्यः को्ट्यस्त्वृषीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत ॥२॥ -- महाभारत
(भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि) हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन । जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेके मरणपर्य्यन्त ब्रह्मचारी होता है उसको कोई शुभगुण अप्राप्त नहीं रहता। ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक करोड़ ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं।
  • सत्ये रतानां सततं दान्तानामूध्र्वरेतसाम् ।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम् ॥३॥ -- महाभारत
जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट, शुभगुण स्वभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमसहित शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि और सत्य शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादि करते हैं उनके वे सब बुरे काम और दुःखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति करानेहारे होते हैं । और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं।
  • मन, वाणी तथा शरीर से सदा सर्वत्र तथा सभी परिस्थितियों में सभी प्रकार के मैथुनों से अलग रहना ही ब्रह्मचर्य है। -- याज्ञवल्क्य
  • जो इस ब्रह्मलोक को ब्रह्मचर्य के द्वारा जानते हैं, उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है तथा उनकी सम्पूर्ण लोकों में यथेच्छ गति हो जाती है। -- छान्दोग्य उपनिषद्
  • स्त्री अथवा उसके चित्र के विषय में चिन्तन करना, स्त्री अथवा उसके चित्र की प्रशंसा करना, स्त्री अथवा उसके चित्र के साथ केलि करना, स्त्री अथवा उसके चित्र को देखना, स्त्री से गुह्य भाषण करना, कामुकता से प्रेरित होकर स्त्री के प्रति पापमय कर्म करने की सोचना, पापमय कर्म करने का दृढ संकल्प करना तथा वीर्यपात में परिणमित होने वाली क्रिया निवृत्ति - ये मैथुन के आठ लक्षण हैं। ब्रह्मचर्य इन आठ लक्षणों से सर्वथा विपरीत है। -- दक्षस्मृति
  • आपको ज्ञात हो कि आजीवन अखण्ड ब्रह्मचारी रहने वाले व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है। ..... एक व्यक्ति चारों वेदों का ज्ञाता है तथा दूसरा व्यक्ति अखण्ड ब्रह्मचारी है। इन दोनों में पश्चादुक्त व्यक्ति (दूसरा व्यक्ति) ही पूर्वोक्त ब्रह्मचर्य रहित व्यक्ति से श्रेष्ठ है। -- महाभारत
  • बुद्धिमान व्यक्ति को विवाहित जीवन से दूर रहना चाहिए जैसे कि वह जलते हुए कोयले का एक दहकता हुवा गर्त हो। सन्निकर्ष से संवेदन होता है, संवेदन से तृष्णा होती है और तृष्णा से अभिनिवेश होता है। सन्निकर्ष से विरत होने से जीव सभी पापमय जीवन धारण से बच जाता है। -- भगवान बुद्ध
  • ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ तप है ऐसा निष्कलंक ब्रह्मचारी मनुष्य नहीं साक्षात देवता है। ...... अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक अपने वीर्य की रक्षा करने वाले ब्रह्मचारी के लिए संसार में क्या अप्राप्य है? वीर्य संवरण की शक्ति से कोई भी व्यक्ति मेरे समान बन जायेगा। -- शंकर भगवत्पाद
  • काम की सहज प्रवृत्ति जो प्रथम तो एक सामान्य लघूर्मि की भांति होती है, कुसंगति के कारण सागर का परिमाण धारण कर लेती है। -- नारद
  • विषयासक्ति जीवन, कान्ति, बल, ओज, स्मृति, सम्पत्ति, कीर्ति, पवित्रता तथा भगवद्-भक्ति को नष्ट कर डालती है। -- भगवान श्रीकृष्ण
  • इसमें सन्देह नहीं है कि वीर्यपात से अकाल मृत्यु होती है। ऐसा जानकर योगी को सदा वीर्य का परिरक्षण तथा अति नियमनिष्ठ ब्रह्मचर्यमय जीवन यापन करना चाहिए। -- शिवसंहिता
  • ब्राह्मण नग्न स्त्री को न देखें। -- मनु
  • भोजन में सावधानी रखना तिगुना उपयोगी है; परन्तु मैथुन में संयम रखना चौगुना उपयोगी है। स्त्री की ओर कभी न देखना, यह सन्यासी के लिए एक नियम था और अब भी है। -- आत्रेय

ब्रह्मचर्य पर महर्षि दयानन्द सरस्वती के विचार

सम्पादन

१. मनुष्य ब्रह्मचर्यादि उत्तम नियमों से त्रिगुण चतुर्गुण आयु कर सकता है, अर्थात् चार सौ वर्ष तक भी सुख से जी सकता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदसंज्ञाविचार)

२. जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज-निर्बुद्धि और उत्साह-साहस-धैर्य-बल, पराक्रम आदि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)

३. आयु वीर्यादि धातुओं की शुद्धि और रक्षा करना तथा युक्तिपूर्वक ही भोजन-वस्त्र आदि का जो धारण करना है, इन अच्छे नियमों से आयु को सदा बढ़ाओ। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोक्तधर्मविषय)

४. देखो, जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, उसको आरोग्य, बुद्धि, बल और पराक्रम बढ़ कर बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण की यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का सङ्ग, विषयों का ध्यान, स्त्री दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग सदा पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)

५. जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कार्यों को करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास)

६. जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिनका वीर्य अधःस्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)

७. जिस देश में ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है, वही देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य, विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था वाले अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)

८. जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

९. ब्रह्मचर्य जो कि सब आश्रमों का मूल है। उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम होते हैं और बिगड़ने से बिगड़ जाते हैं। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय)

१०. सर्वत्र एकाकी सोवे। वीर्य स्खलित कभी न करें। जो कामना से वीर्य स्खलित कर दे तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

११. ब्रह्मचर्य सेवन से यह बात होती है कि जब मनुष्य बाल्यावस्था में विवाह न करे, उपस्थेन्द्रिय का संयम रखे, वेदादिशास्त्रों को पढ़ते-पढ़ाते रहें। विवाह के पीछे भी ऋतुगामी बने रहें। तब दो प्रकार का वीर्य अर्थात् बल बढ़ता है, एक शरीर का और दूसरा बुद्धि का। उसके बढ़ने से मनुष्य अत्यन्त आनन्द में रहता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपासनाविषय)

१२. अड़तालीस वर्ष के आगे पुरुष और चौबीस वर्ष के आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये। परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों के लिए है। और जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकें तो भले ही रहें। परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन कार्य है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रख सके। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

१३. ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सब खटाई, प्राणियों की हिंसा, अङ्गों का मर्दन, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आंखों में अञ्जन, जूतों और छत्रधारण, काम-क्रोध, लोभ-मोह-भय-शोक-ईर्ष्याद्वेष, नाच-गान और बाजा बजाना, द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरों की हानि आदि कुकर्मों को छोड़ देवें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

१४. पाठशाला से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहे। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

१५. जहां विषयों वा अधर्म की चर्चा भी होती हो, वहां ब्रह्मचारी कभी खड़े भी न रहें। भोजन छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग-वीर्य हानि, वा प्रमाद न बढ़े। जो बुद्धि का नाश करने हारे नशे के पदार्थ हों उनको ग्रहण कभी न करें। (व्यवहारभानु)

१६. जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मना, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और अविद्या आदि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश)

१७. सब को तुल्य वस्त्र, खान-पान और तुल्य आसन दिया जावे। चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

१८. उनके माता-पिता अपनी सन्तानों से वा सन्तान माता-पिता से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें। जिससे संसारिक चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रखें। जब भ्रमण की जावे, तब उनके साथ अध्यापक रहें। जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

१९. जो वहां अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा भृत्य अनुचर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे। अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहें, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन-स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें। जिससे उत्तम विद्या, शिक्षाशील, स्वभाव, शरीर और आत्मा से बलयुक्त होके आनन्द को नित्य बढ़ा सकें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

२०. यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को साङ्गोपाङ्ग पढ़ के जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास)

२१. स्त्रियां आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती थीं, और साधारण स्त्रियों के भी उपनयन और गुरु गेह में वासादि संस्कार होते थे। (उपदेश मञ्जरी)

२२. ब्रह्मचर्य पूर्ण करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे। (संस्कार विधि, संन्यास संस्कार)

२३. परन्तु जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा कर जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यास आश्रमी नहीं कर सकता। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)

२४. जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्य संरक्षण के गुण जाने हैं, वह विषयासक्त कभी नहीं होता, और उनका वीर्य विचार अग्नि का ईंधनवत् है अर्थात् उसी में व्यय हो जाता है। जैसे वैद्य और औषधियों की आवश्यकता रोगी के लिये होती है, वैसे निरोगी के लिये नहीं, इस प्रकार जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास)

२५. जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास)

२६. सब आश्रमों के मूल, सब उत्तम कर्मों में उत्तम कर्म और सब के मुख्य कारण ब्रह्मचर्य को खण्डित करके महादुःख सागर में कभी नहीं डुबना। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)

२७. यदि कोई इस सर्वोत्तम धर्म से गिराना चाहे, उसको ब्रह्मचारी उत्तर देवे कि अरे छोकरों के छोकरे! मुझ से दूर रहो। तुम्हारे दुर्गन्ध रूप भ्रष्ट वचनों से मैं दूर रहता हूं। मैं इस उत्तम ब्रह्मचर्य का लोप कभी न करूंगा। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार)

इन्हें भी देखें

सम्पादन