तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ -- ईशावाश्योपनिषद्
इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील, वैयक्तिक जगत् है-यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सबके त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भभयं
सर्वं वस्तु भयावहं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ -- वैराग्यशतकम् 31
भोग में रोग का भय रहता है; पारिवारिक प्रतिष्ठा गिरने का भय रहता है; धन में राजाओं का भय रहता है; प्रतिष्ठा में अपमान का भय रहता है; सत्ता में शत्रु या विरोधी का भय रहता है; सुंदरता में बुढ़ापे का डर होता है; शास्त्र-विद्या में विद्वान् विरोधियों का भय रहता है; सदाचार में दुष्ट निंदा करने वाले व्यक्ति का भय रहता है; शरीर में मृत्यु का भय रहता है। मनुष्य के लिए, इस दुनिया में हर चीज़ भय से जुड़ी है। वैराग्य ही अभय प्रदान करता है।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता: तपो न तप्तं वयमेव तप्ता:।
कालो न यातो वयमेव याता: तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:॥ -- भर्तृहरि, वैराग्यशतक में
भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए।