नीतिशास्त्र मानव आचरण में सही या गलत क्या है, इसका अध्ययन है। यह दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जो नैतिक सिद्धांतों का अध्ययन करती है। नीतिशास्त्र समाज द्वारा प्रतिस्थापित मानंदड एवं नैतिक सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उचित और अनुचित मानवीय कृत्यों एवं आचरण का अध्ययन करता है।

भारत में नीतिशास्त्र की बड़ी पुरानी परम्परा रही है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। भर्तृहरि का नीतिशतक, चाणक्यनीति, विदुरनीति, शुक्रनीति, कमन्दकीय नीतिसार आदि अत्यन्त प्राचीन और प्रसिद्ध हैं। शुक्राचार्य ने नीतिशास्त्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है-

क्रियैकदेशबोधीनि शास्त्राण्यन्यानि संति हि।
सर्वोपजीवकं लोक स्थिति कृन्नीतिशास्त्रकम्।
धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः॥ -- शुक्रनीति
अन्य जितने शास्त्र हैं वे सब व्यवहार के एक अंश को बतलाते हैं किन्तु सभी लोगों का उपकारक, समाज की स्थिति को सुरक्षित रखने वाला नीतिशास्त्र ही है क्योंकि यह धर्म, अर्थ तथा काम का प्रधान कारण और मोक्ष को देनेवाला कहा गया है।

कामन्दक द्वारा रचित नीतिसार में कहा गया है-

नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः ।
समुद्दध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ॥ -- कामन्दकीय-नीतिसार १.६
उन बुद्धिमान विष्णुगुप्त (चाणक्य) को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अर्थशास्त्र के महान समुद्र से नीति-शास्त्र रूपी अमृत निकाला।

उक्तियाँ सम्पादन

  • प्रागेव विग्रहो न विधिः -- पञ्चतन्त्र
पहले ही ( बिना साम, दान , दण्ड का सहारा लिये ही ) युद्ध करना कोई अच्छी नीति नहीं है।
  • शठे शाठ्यं समाचरतेत्।
दुष्ठ के साथ दुष्ठता का व्यवहार करना चाहिये।
  • बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीत।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुंदर नीति ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥ -- रामचरितमानस

चाणक्य के नीति के वचन सम्पादन

  • ऋण, शत्रु और रोग को कभी छोटा नही समझना चाहिए और हो सके तो इन्हें हमेसा समाप्त ही रखना चाहिए।
  • भाग्य भी उन्ही का साथ देता है जो कठिन से कठिन स्थितियों में भी अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहते है।
  • अच्छे आचरण से दुखों से मुक्ति मिलती है विवेक से अज्ञानता को मिटाया जा सकता है और जानकारी से भय को दूर किया जा सकता है।
  • संकट के समय हमेसा बुद्धि की ही परीक्षा होती है और बुद्धि ही हमारे काम आती है।
  • अन्न के अलावा किसी भी धन का कोई मोल नही है और भूख से बड़ी कोई शत्रु भी नही है।
  • विद्या ही निर्धन का धन होता है और यह ऐसा धन है जिसे कभी चुराया नही जा सकता है और इसे बाटने पर हमेसा बढ़ता ही है।
  • फूलों की सुगन्ध हवा से केवल उसी दिशा में महकती है जिस दिशा में हवा चल रही होती है जबकि इन्सान के अच्छे गुणों की महक चारो दिशाओ में फैलती है।
  • उस स्थान पर एक पल भी नही ठहरना चाहिए जहा आपकी इज्जत न हो, जहा आप अपनी जीविका नही चला सकते है जहा आपका कोई दोस्त नही हो और ऐसे जगह जहा ज्ञान की तनिक भी बाते न हो।
  • दूसरे व्यक्ति के धन का लालच करना नाश का कारण बनता है।
  • व्यक्ति हमेसा हमे गुणों से ऊँचा होता है ऊचे स्थान पर बैठने से कोई व्यक्ति ऊचा नही हो जाता है।
  • हमेशा खुश रहना दुश्मनों के दुखो का कारण बनता है और खुद का खुश रहना उनके लिए सबसे सजा है।
  • अपने गहरे राज किसी से प्रकट नही करना चाहिए क्योंकि समय आने पर हमारे यही राज वे दूसरे के सामने खोल सकते हैं।
  • भविष्य की सुरक्षा के लिए धन का इकट्ठा करना आवश्यक है लेकिन जरूरत पड़ने पर इन धन को खर्च करना उससे कही अधिक आवश्यक होती है
  • मन से सोचे हुए काम किसी के सामने जाहिर करना खुद को लोगो के सामने हंसी का पात्र बनने के बराबर है यदि मन में ठान लिया है तो उसे मन में ही रखते हुए पूरे मन से करने में लग जाना ही बेहतर है।
  • जिसे समय का ध्यान नही रहता है यह व्यक्ति कभी भी अपने जीवन के प्रति सचेत नही हो सकता है।
  • धूर्त और कपटी व्यक्ति हमेसा हमे स्वार्थ के लिए ही दूसरे की सेवा करते है अतः इनसे हमेसा बचके ही रहना चाहिए।
  • सर्प के फन में, मक्खी के मुख में, बिच्छु के डंक में ही जहर भरा होता है जबकि दुष्ट व्यक्ति के पूरे शरीर में औरों के लिए जहर भरा होता है।
  • मित्रता सदा बराबर वालों से ही करना चाहिए अधिक धनी या निर्धन व्यक्ति से मित्रता कर लेने पर कभी कभी भरपाई करनी पड़ती है जो कभी भी सुख नही देती है।
  • अपनी कमियों को कभी भी दूसरे के सामने नही बताना चाहिए। ये अपने लिए ही अहितकर हो सकता है।

भर्तृहरि के नीति के वचन सम्पादन

विदुर के नीति के वचन सम्पादन

महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति का प्रसंगवस वर्णन हुआ है। उनकी नीतियों में मानवता के श्रेष्ठ सिद्धान्त भरे हुए हैं।मान्यता के अनुसार, जो विदुर नीति का पालन अपने जीवन में अपना लेता है तो संसार में उससे सुखी और कोई नहीं हो स्कता।

  • सुलभाः पुरुषा रजन्! सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥
अप्रिय अर्थात् कठोर बोलने वाला, किन्तु पथ्य अर्थात् सही मार्ग बताने वाला, हितकारी बोलने वाला वक्ता इस संसार में दुर्लभ होते हैं और साथ ही ऐसी वाणी सुनने वाले श्रोता भी दुर्लभ होते हैं ।
  • यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ [१]
जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (उंघना ), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों में अधिक समय लगाने की आदत )- इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए।
  • षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः॥
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव ), क्षमा तथा धैर्य – इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।
  • ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुः खिताः॥
ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला – ये छः सदा दुखी रहते हैं।
  • अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता – ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।
  • क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्।
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥
ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं। किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

कामन्दकीय नीतिसार सम्पादन

शुक्रनीति सम्पादन

रहीम के नीति के दोहे सम्पादन

विविध सम्पादन

  • येषां बाहुबलं नास्ति येषां नास्ति मनोबलम्।
तेषां चन्द्रबलं देव किं कुर्यादम्बरस्थितम्॥ (यशस्तिलकम् )
हे राजन्! जिनका स्वयं का शारीरिक बल नहीं है और मानसिक बल भी नहीं हैं, हे देव, उनके लिये गगन में स्थित चन्द्रबल भी क्या भला कर सकता है?
  • इमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है। -- अज्ञात

सन्दर्भ सम्पादन