• न जातु गच्छेद्विश्वासं सन्धितोऽपि हि बुद्धिमान् ।
अद्रोहसमयं कृत्वा वृत्रमिन्द्रः पुराऽवधीत् ॥ -- कामन्दकीय नीतिसार ॥ ५३ ॥
संधि करके भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करें। 'मैं फिर वैर ना करूंगा' यह कहकर भी इंद्र ने वृत्र असुर को मार डाला।
  • यस्य प्रभावाद्धवनं शाश्वते पथि तिष्ठति ।
देवः स जयति श्रीमान् दण्डधारो महीपतिः ॥१॥
जिसके प्रभाव से यह त्रिभुवन सनातन मर्यादा नीतिमार्ग में निरन्तर स्थिति करता है उस परात्पर दण्डधारी परमेश्वर की सदा जय हो, अथवा जिसके प्रताप से यह भूमण्डल निरन्तर धर्ममार्ग में प्रवर्तित होता है, उस प्रबल प्रतापी राजा की सदा जय हो ॥ १ ॥
  • वंशे विशालवेश्यानायुषीणाणिव भूयसाम् ।
अप्रतिमाहकाणां यो बभूव भुवि विभुतः ॥ २॥
जिसने अप्रतिग्रहशील विशालकुलमें बड़े महर्षियोंकी समान प्रसिद्धवंशमें जन्म ग्रहण कियाहै जो पृथ्वीमें विख्यातहै ॥ २ ॥
  • जातवेदा इवार्चिष्मान वेदान् वेदविदां वरः।
योऽधीतवान् सुचतुरश्चतुरोऽप्येकवेदवत् ॥ ३ ॥
जो अग्निके समान तेजस्वी जिसने एक बेदके समान ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, चारों वेदोंका अध्ययन कियाहै ॥ ३ ॥
  • यस्याभिचारवजेण बजज्वलनतेजसः ।
पपात मूलतः श्रीमान् सुपर्वा नन्दपर्वतः ॥४॥
जा बत्र और आमिके ममान तनम्बी निमकं मवाभिचारम्प पत्रमहारम जर पर्वपाला श्रीमान नन्दवशम्प पर्वत समूल नष्ट होगया ॥४॥
  • एकाकी मन्त्रशच्या यः शक्त्या शक्तिधरोपमः। .
आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम् ॥५॥
जो पराक्रम में साक्षात कार्तिकय के समान जिसने इन्टही मग्रम्प शक्ति के प्रभास चन्द्रगुप्त राना को मामान्य दिया ॥ ५॥
  • नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः।
समुद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेवसे ॥६॥
निसने अर्थशास्त्ररुप महासमुद्र से नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला उस असीम गुणसम्पन्न विष्णुगुप्त (चाणक्य) के निमित्त नमस्कार है ॥ ६ ॥
  • दर्शनात् तस्य सुदृशो विद्यानां पारदृश्वनः।
राजविद्यानियतया संक्षिप्तग्रन्थमर्थवत् ॥ ७॥
आन्वीक्षिकी, त्रयी, बानी और दण्डनीति प्रभृति सर्वशास्त्रविशारद निर्मल ज्ञान सम्पन्न उस गुन्वर विष्णुगुप्तपणीत शासका अनुशीलन करके

मन जो ज्ञान माप्तकिया उसके अनुमार राजनीतिषियताकै कारण सक्षपसे – यह “नीतियथ” मकान करताह ॥७॥

  • उपार्जन पालने च भूमे मीश्वरं प्रति ।
यत्किञ्चिदुपदेश्यामो राजविद्याविदां मतम् ॥८॥
राज्यलाभ और राज्यमतिपालन सम्बन्ध मे राजा को जो उपाय अवलम्बन करने उचित हैं, हम इस ग्रथम वह वर्णन करते हैं ॥ ८॥….
  • राज प्रतिष्ठा, राज गौरव पाना आसान नहीं जिसके प्रति सभी निष्ठा व्यक्त करें। मर्यादा का जरा सा उल्लंघन करने पर यज्ञ जैसी पवित्रता पर भी कलंक लगता है। (कामंदकीय नीतिसार ११.३८)

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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