याज्ञवल्क्य स्मृति
- स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।
- मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥३५३॥
- स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग (किला), राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला) कहा गया है।
- तदवाप्य नृपो दण्डं दुर्वृत्तेषु निपातयेत् ।
- धर्मो हि दण्डरूपेण ब्रह्मणा निर्मितः पुरा ॥३५४॥
- ऐसा राज्य पा लेने पर राजा दुर्वृत्ति यानी दुराचरण में लिप्त जनों पर दण्ड गिराए (उन्हें दंडित करे)। वस्तुतः सृष्टिकर्ता ब्रह्म ने पहले (आरम्भ में) धर्म का दण्ड के रूप में निर्माण किया था।
- स नेतुं न्यायतोऽशक्यो लुब्धेनाकृतबुद्धिना ।
- सत्यसन्धेन शुचिना सुसहायेन धीमता ॥३५५॥
- लोभी प्रकृति एवं अस्थिर बुद्धि वाले राजा के लिए दंड का प्रयोग न्यायपूर्वक कर पाना संभव नहीं है। सत्यनिष्ठ एवं निर्दोष आचरण वाले बुद्धिमान् राजा ही सद्व्यवहारी सहायकों के सहयोग से ऐसा कर सकता है।
- अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।
- नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥३५८॥
- भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदण्डनीय नहीं होता।
- ब्रह्मणेषु क्षमी स्निग्द्येष्वाजिह्मः क्रोधनोऽरिषु।
- स्याद्राजा भृत्यवर्गेषु प्रजासु च यथा पिता॥
- राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील होना चाहिए। अनुराग रखने वालों के प्रति सरल , शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान दयावान एवं हितकारी होना चाहिए।
- मन्त्रमूलं यतो राज्यं तस्मान्मन्त्रां सुरक्षितम्।
- कुर्यार्द्यथाऽस्य न विदुः कर्मणामा फलोदयात्॥
- राज्य कार्य का मुख्य आधार मन्त्र (सम्यक विचार) है , इसलिए मन्त्र को इस प्रकार राजा गुप्त रखे कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके।
- हिरण्यं व्यापृतानितं भाण्डागारेषु निक्षिपेत्।
- पश्येच्चारांस्ततो इतान्प्रेषयेन्मन्त्रिसंगतः॥
- स्वर्ण आदि लाने के लिए नियुक्त व्यक्तियों द्वारा लाए गए स्वर्ण को भण्डार में रखना चाहिए तथा गुप्तचरों से बातें करने के उपरान्त मंत्री के साथ बैठकर दूतों को निर्दिष्ट कार्य करने के लिए भेजना चाहिए।
- दुर्ग में स्थित एक धनुर्धर सौ धनुर्धरों को तथा सौ धनुर्धर एक सहस्त्र धनुर्धरों को मार गिरा सकते हैं।
- हिरण्भूमिलाभेभ्यो मित्रलब्धिर्वरा यतः।
- अतो यतेत तत्प्राप्त्यै रक्षेत् सत्यं समाहितः॥
- हिरण्य , भूमि के लाभ से मित्रलाभ उत्तम है। इसलिए मित्र लाभ की ओर चेष्टा करे और अपनी सच्चाई की भी सावधानी से रक्षा करें।[१]