मित्र
दो या अधिक व्यक्तियों के बीच पारस्परिक लगाव का संबंध
(मैत्री से अनुप्रेषित)
मित्र का महत्व इस बात से लगाया जा सकता है कि पञ्चतन्त्र के पाँच तन्त्रों में से प्रथम दो तन्त्र मित्र से ही सम्बन्धित हैं। पहला तन्त्र 'मित्रभेद' (मित्रों में एक-दूसरे पर अविश्वास उत्पन्न करना) तथा दूसरा तंत्रर 'मित्रसम्प्राप्ति' (नये मित्र की प्राप्ति) है।
उक्तियाँ
सम्पादन- यानि कानि च मित्राणि कृतानि शतानि च ।
- पश्य मूषकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ॥ -- पंचतंत्र
- अर्थ : जो कोई भी हों , सैकड़ों मित्र बनाने चाहिये । देखो, (जैसे कि) मित्र चूहे की सहायता से कबूतर (जाल के) बन्धन से मुक्त हो गये थे (वैसे ही अधिकाधिक मित्र रहने पर विपत्ति में कोई न कोई मित्र काम आ सकता है)!
- मित्रवान्साधयत्यर्थान्दुःसाध्यानपि वै यतः।
- तस्मान्मित्राणि कुर्वीत समानान्येव चात्मनः।। -- पञ्चतंत्र मित्रसंप्राप्ति
- मित्रवान व्यक्ति कठिन से कठिन कार्यों को भी (मित्र की सहायता से) सिद्ध कर लेता है। अतः अपने अनुकूल मित्र अवश्य बनाना चाहिए।
- असाधना वित्तहीना बुद्धिमन्तः सुहृन्मताः ।
- साधयन्त्याशु कार्याणि काककूर्ममृगाखुवत्॥ -- हितोपदेश
- साधनरहित और धनहीन होते हुए भी जो बुद्धिमान एक-दूसरे के हितैषी (मित्र) होते हैं, वे अपने कार्य वैसे ही शीघ्र ही साध लेते हैं (पूरा कर लेते हैं), जिस तरह कौए, कछुए, मृग और चूहे ने अपने कार्य साध लिये थे।
- उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे ।
- राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥ -- हितोपदेश १.७७॥
- हर्ष में, शोक में, दुर्भिक्ष पड़ने पर, राज्य क्रान्ति के समय, राज-द्वार (कचहरी) में और श्मशान में जो साथ देता है, वही सच्चा मित्र है।
- आपत्काले तु सम्प्राप्ते यन्मित्रं मित्रमेव तत् ।
- वृद्धिकाले तु सम्प्राप्ते दुर्जनोऽपि सुह्रद्भवेत्॥ -- पञ्चतंत्र, मित्रसंप्राप्ति
- मनुष्य के विपत्ति के समय जो मित्र उसकी मदद करे , वही उसका सच्चा मित्र होता है । अच्छे समय में तो दुर्जन मनुष्य भी अच्छे मित्र बन जाते है । सच्चे मित्र की पहचान तो विपत्ति के समय में होती है ।
- हिरण्यभूमिलाभेभ्यो मित्रलब्धिर्वरा यतः ।
- अतो यतेत तत्प्राप्त्यै रक्षेत्सत्यं समाहितः ॥ -- याज्यवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३५२
- अरिर्मित्रं उदासीनोऽनन्तरस्तत्परः परः ।
- क्रमशो मण्डलं चिन्त्यं सामादिभिरुपक्रमैः ॥ -- याज्यवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३४५
- स्वर्ण, भूमि और मित्र के लाभ में मित्र लाभ उत्तम है। इसलिए मित्र लाभ की ओर चेष्टा करे और अपनी सच्चाई की भी सावधानी से रक्षा करें।
- अपने राज्य में जिस राजा की सीमा हो वह और उससे परे जो हो तथा इससे भी परे जो राजा है - ये क्रमशः शत्रु , मित्र ओर उदासीन होते हैं। इसका अभिप्राय समझ कर साम आदि उपाय करता रहे।
- कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्ष्मणी।
- अविचार्य प्रियं कुर्यात्तन्मित्रं मित्रमुच्यते।। -- सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
- जैसे दोनों हाथ शरीर का बिना विचारे हित करते हैं, दोनों पलकें आँखों का बिना विचारे ध्यान रखती हैं, वैसे ही जो मित्र, मित्र का बिना विचारे हित करे, वही मित्र (वास्तव में) मित्र होता है।
- मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ -- योगसूत्र १.३३
- सब के साथ मित्रवत् व्यवहार करें, परेशान करने वाले लोगों के प्रति प्रेमवत् व्यवहार करें और विपरीत परिस्थिति हो या नहीं, सदैव प्रसन्न चित्त रहें।
- न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपुः ।
- व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपस्तथा ॥ -- चाणक्य
- अर्थ : न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
- विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
- व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥
- घर से दूर प्रवास के समय विद्या मित्र है, घर में पत्नी मित्र है, रोग में औषधि मित्र है और मृतक का मित्र धर्म है।
- उपकाराच्च लोकानां निमित्तान्मृगपक्षिणाम्।
- भयाल्लोभाच्च मूर्खाणां मैत्री स्यात् दर्शनात् सताम्॥
- साधारण लोगों के बीच मित्रता उपकार के कारण होती है। पशुपक्षियों के बीच किसी हेतु से, मूर्खों के बीच भय और लोभ के कारण और सज्जनों के बीच दर्शन से मित्रता होती है।
- अबन्धुरबन्धुतामेति नैक्टयाभ्यास योगतः।
- यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम् ॥ -- योगवाशिष्ठ
- बार-बार मिलने पर अबन्धु भी बन्धु बन जाता है जबकि दूरी के कारण परस्पर मिलने का अभ्यास छूट जाने से भाई से भी स्नेह की कमी हो जाती है।
- पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूर्खो हितकारकः ।
- वानरेण हतो राजा विप्राश्चौरेण रक्षिताः ॥ -- पञ्चतन्त्र
- पण्डित (विद्वान्) भी यदि शत्रु हो तो वह ठीक है न कि हितकारक मूर्ख मित्र। (मूर्ख) वानर ने रज को मार दिया (जबकि बुद्धिमान) चोर ने विप्रों की रक्षा की।
- ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् ।
- तयोर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ -- पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति
- जिनका (दो व्यक्तियों का) समान वित्त हो, जिनका कुल समान हो, उन्हीं में परस्पर मित्रता एवं विवाह ठीक है न कि सक्षम एवं असक्षम के बीच।
- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
- वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥
- पीठ पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।
- आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई॥
- जाकर चित अहिगत सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
- जो सामने बना-बनाकर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुरी भावना रखता है तथा जिसका मन सांप की चाल के जैसा टेढा है- ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है।
- धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपद काल परखिये चारी । -- गोस्वामी तुलसीदास
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी॥
- निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
- जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होता है उसे देखने से भी भारी पाप लगता है। अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए।
- जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
- जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल जिद करके ही किसी से मित्रता करते हैं। सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाता है और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है।
- देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
- विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
- मित्र से लेन देन करने में शंका न करे। अपनी शक्ति अनुसार सदा मित्र की भलाई करे। संकट के समय वह सौ गुना स्नेह-प्रेम करता है। श्रुति अच्छे मित्र के यही गुण बताती है।
- सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥ -- गोस्वामी तुलसीदास
- देवता, आदमी, मुनि – सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं।
- शत्रु ऐसे राजा का नाश नहीं कर सकता जिसके पास दोष बताने वाले, असहमति जताने वाले और सुधार करने वाले मित्र हों। -- सन्त तिरुवल्लुवर
- व्यापार पर खड़ी मैत्री, मैत्री पर खड़े व्यापार से श्रेष्ठतर है। -- जॉन डी. रॉकफेलर
- प्रेम एक फूल है, मैत्री आश्रय देने वाला एक वृक्ष। -- सैमुअल टेलर कोलेरिज
- यदि आपके पास एक सच्चा मित्र है तो समझिए आपको आपके हिस्से से अधिक मिल गया। -- थॉमस फुलर
- मित्र पाने का एकमात्र तरीका यह कि आप मित्र बन जाएं। -- राल्फ वाल्डो एमर्सन
- आपके हृदय में एक चुम्बक होता है जो सच्चे मित्रों को आपकी ओर आकर्षित करता है। वह चुंबक है आपकी निःस्वार्थता और दूसरों के बारे में पहले सोचने का स्वभाव। जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तब दूसरे आपके लिए जीने लगते हैं। -- परमहंस योगानन्द
- जब आप मित्र बनाएं तो व्यक्तित्व की बजाए चरित्र को महत्व दें। -- सॉमरसेट मॉम
- यदि आप मित्र बनाने निकलेंगे तो आपको बहुत कम मित्र मिलेंगे। यदि आप मित्र बनने निकलेंगे तो सर्वत्र आपको मित्र मिलेंगे। -- जिग जिगलर
- ऐसा प्रेम जो दोस्ती की बुनियाद पर नहीं टिका होता, रेत के किले की तरह होता है। -- एला व्हीलर
- जीवन में केवल तीन सच्चे मित्र होते हैं: वृद्ध पत्नी, पुराना कुत्ता और वर्तमान धन। -- बेंजामिन फ्रैंकलिन
- जो मित्रता बराबरी की नहीं होती वह हमेशा घृणा पर ही समाप्त होती है। -- गोल्डस्मिथ
- महान व्यक्तियों की मित्रता नीचों से नहीं होती, हाथी सियारों के मित्र नहीं होते। -- भारवि
- मित्र बनाना सरल है, मैत्री पालन दुष्कर है, चित्तों की अस्थिरता के कारण अल्प मतभेद होने पर भी मित्रता टूट जाती है। -- वाल्मीकि
- बुद्धिमान और वफादार मित्र से बढ़कर कोई दूसरा संबंधी नहीं है। -- बेंजामिन फ्रैंकलिन
- मित्र के तीन लक्षण हैं – अहित से रोकना, हित में लगाना और विपत्ति में साथ नहीं छोड़ना। -- अश्वघोष
- विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और धैर्य – ये पांच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताये गए है। विद्वान पुरुष इन्हीं के द्वारा जगत के कार्य करते हैं। -- वेदव्यास
- सम्पन्नता तो मित्र बनाती है, किन्तु मित्रों की परख विपदा में ही होती है। -- विलियम शेक्सपीयर
- मित्रों से जहाँ लेन-देन शुरू हुआ, वहां मन मुटाव होते देर नहीं लगती। -- प्रेमचंद
- विवाह और मित्रता सामान स्थिति वालों से करनी चाहिए। -- हितोपदेश
- जो व्यक्ति अकेले में तुम्हारा दोष बताये उसे अपना मित्र समझो। -- थैकर
- मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा होता है। -- वेदव्यास
- मरते हुए प्राणी का मित्र धर्म है। आचरण करने पर ज्ञान मित्र है। शत्रु सामने हो तो शस्त्र मित्र है। शस्त्र का मित्र साहस है। जो जरुरत पड़ने और संकट के समय पर काम आ जाए वह भी मित्र है। पर जो व्यक्ति स्वार्थी, नीच मनोवृत्तिवाला, कटु भाषी और धूर्त होता है उसका कोई मित्र नहीं होता, न वह ख़ुद किसी का मित्र होता है। -- चाणक्य
- मैत्री धीरे-धीरे करो, लेकिन जब कर लो तो उसमें दृढ़ रहो। -- सुकरात
- मुझे एकांत से बढ़कर योग्य साथी कभी नहीं मिला। -- थोरो
- परदेश में मित्र विद्या होती है और घर में मित्र पत्नी होती है, रोगियों का मित्र दवा और मरने के बाद धर्म ही मित्र होता है। -- चाणक्य
- सामने मिष्ठान सा मधुर बोलनेवाले और पीठ पीछे विष भरी छुरी मारने वाले मित्र को त्याग देना चाहिए। -- हितोपदेश
- यदि कोई हमारा सच्चा मित्र न हो तो धरती निर्जन वन के समान प्रतीत होगा। -- बेकन
- सच्चे दोस्त सामने से छुरा भोंकते हैं। -- ऑस्कर वाइल्ड