• षड् दोषाः पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥ -- पञ्चतन्त्र
समृद्धि चाहने वाले मनुष्य को छः दोष समाप्त कर देने चाहिये- निद्रा, तन्द्रा (उंघना), भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता।
  • क्षमवतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनाः॥ -- महाभारत (विदुरनीति)
क्षमाशील पुरुषों का केवल एक दोष है कि उन क्षमायुक्त लोगों को दूसरे लोग अशक्त मानते है। उनमें दूसरा कोई दोष नहीं होता।
  • वनेऽपि दोषा प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पञ्चेन्द्रिय निग्रह स्तपः ।
अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ -- हितोपदेश
आसक्त लोगों का वन में रहना भी दोष उत्पन्न करता है। घर में रहकर पंचेन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो दुष्कृत्य में प्रवृत्त होता नहीं, और आसक्तिरहित है, उसके लिए तो घर हि तपोवन है।
  • खलः सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥
दुष्ट मनुष्य दूसरों के सरसों जितने (छोटे) दोष देख लेता है परन्तु अपने बेल जैसे (बड़े) दोषों को देखते हुए भी नहीं देखता।
  • गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नद्यः, समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः॥
गुणज्ञों में ही गुण, गुण के रूप में रहते हैं, वे ही (गुण) निर्गुणों में जाकर दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का जल सुसदु (मीठा) होता है किन्तु वही जल समुद्र में जाकर अपेय (न पीने योग्य) हो जाता है।
  • गुणायन्ते दोषाः सुजनवदने दुर्जनमुखे गुणा दोषायन्ते तदिदमपि नो विस्मयपदम्।
महामेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरं फणि क्षीरं वमति गरलं दुःसहतरम् ॥ -- सुभाषितरत्नाकर
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि सज्जन दूसरों के दोष लेकर उन्हें गुण में बदल देते हैं जबकि दुर्जन दूसरों के गुणों को भी दोष में बदल देते हैं। (उदाहरण के लिये) महान बादल (समुद्र का) खारा जल पीकर उसे मीठा जल बना देत है, जबकि साँप दूध पीकर भी दुःसह्य विष निकालता है।
  • कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्धिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ॥ --चाणक्यनीति
कृति का पुनर्भुगतान प्रतिकृति से तथा हिंसा का प्रतिहिंसा से करें। इस से कोई दोष नहीं लगता क्योंकि दुष्ट के साथ दुष्टता से पेश आना चाहिए।
  • गूढार्थमर्थान्तरमर्थहीनं भिन्नार्थमेकार्थमभिप्लुतार्थम् ।
न्यायादपेतं विषयं विसन्धि शब्दच्युतं वै दशकाव्यदोषाः ॥ -- भरत मुनि, नाट्यशास्त्र
  • प्रतिकूलवर्णमुपहतलुप्तविसर्गं विसन्धि हतवृत्तम् ।
न्यूनाधिककथितपदं पतत्प्रकर्षं समाप्तपुनरात्तम् ॥
अर्धान्तरैकवाचकमभवन्मतयोगमनभिहितवाच्यम् ।
अपदस्थपदसमासं संकीर्णं गर्भितं प्रसिद्धिहतम् ॥ -- आचर्य मम्मट, काव्यप्रकाश में
प्रतिकूलवर्णता, उपहतविसर्गता, विसन्धि, हतवृत्तता, न्यूनपदत्व, अधिकपदत्व, कथितपदत्व, पतत्प्रकर्षता, समाप्तपुनरात्तता, अर्थान्तरैकवाचकता, अभवन्मतयोग, अनभिहितवाच्यता, अपदस्थपदता, अपदस्थसमासता, सङ्कीर्णता, गर्भितता, प्रसिद्धिविरोध, भग्नप्रकमता, अक्रमता तथा अमतपरार्थता - ये वाक्यदोष हैं।[१]
  • सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥ -- रामचरितमानस
गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता।
  • दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने को बचाता है। -- स्वामी रामतीर्थ
  • जब तक आप दूसरों के अवगुण ढुंढने या उनके दोष देखने की आदत को दूर नहीं कर लेते तब तक आप ईश्‍वर का साक्षात नहीं कर सकते। -- स्वामी रामतीर्थ
  • निश्चित रूप से आपके मार्ग में आयेंगे ही। आपका दोष क्षमता की कमी या साधनों की कमी की दृष्टि से नहीं है, वरन दोष इस बात मे है की आपमें संकल्प का अभाव है। -- बाल गंगाधर तिलक
  • स्वतंत्रता की रक्षा करने में अतिवादी होने में कोई दोष नहीं है, न्याय करने में अतिवादी न होना कोई गुण नहीं है। -- बैरी गोल्डवाटर
  • कानून के दृष्टि से कोई व्यक्ति तब दोषी माना जाता है जब वह दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करता है लेकिन धर्म की दृष्टि से जब कोई किसी दूसरे के अधिकारों के हनन के बारे में सोचता है तब भी वह दोषी है। -- इमानुएल काण्ट

सन्दर्भ सम्पादन

इन्हें भी देखें सम्पादन