आसक्त लोगों का वन में रहना भी दोष उत्पन्न करता है। घर में रहकर पंचेन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो दुष्कृत्य में प्रवृत्त होता नहीं, और आसक्तिरहित है, उसके लिए तो घर हि तपोवन है।
खलः सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥
दुष्ट मनुष्य दूसरों के सरसों जितने (छोटे) दोष देख लेता है परन्तु अपने बेल जैसे (बड़े) दोषों को देखते हुए भी नहीं देखता।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
गुणज्ञों में ही गुण, गुण के रूप में रहते हैं, वे ही (गुण) निर्गुणों में जाकर दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का जल सुसदु (मीठा) होता है किन्तु वही जल समुद्र में जाकर अपेय (न पीने योग्य) हो जाता है।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि सज्जन दूसरों के दोष लेकर उन्हें गुण में बदल देते हैं जबकि दुर्जन दूसरों के गुणों को भी दोष में बदल देते हैं। (उदाहरण के लिये) महान बादल (समुद्र का) खारा जल पीकर उसे मीठा जल बना देत है, जबकि साँप दूध पीकर भी दुःसह्य विष निकालता है।
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्धिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ॥ --चाणक्यनीति
कृति का पुनर्भुगतान प्रतिकृति से तथा हिंसा का प्रतिहिंसा से करें। इस से कोई दोष नहीं लगता क्योंकि दुष्ट के साथ दुष्टता से पेश आना चाहिए।
गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता।
दूसरों में दोष न निकालना, दूसरों को उतना उन दोषों से नहीं बचाता जितना अपने को बचाता है। -- स्वामी रामतीर्थ
जब तक आप दूसरों के अवगुण ढुंढने या उनके दोष देखने की आदत को दूर नहीं कर लेते तब तक आप ईश्वर का साक्षात नहीं कर सकते। -- स्वामी रामतीर्थ
निश्चित रूप से आपके मार्ग में आयेंगे ही। आपका दोष क्षमता की कमी या साधनों की कमी की दृष्टि से नहीं है, वरन दोष इस बात मे है की आपमें संकल्प का अभाव है। -- बाल गंगाधर तिलक
स्वतंत्रता की रक्षा करने में अतिवादी होने में कोई दोष नहीं है, न्याय करने में अतिवादी न होना कोई गुण नहीं है। -- बैरी गोल्डवाटर
कानून के दृष्टि से कोई व्यक्ति तब दोषी माना जाता है जब वह दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करता है लेकिन धर्म की दृष्टि से जब कोई किसी दूसरे के अधिकारों के हनन के बारे में सोचता है तब भी वह दोषी है। -- इमानुएल काण्ट