रामचरितमानस
रामचरितमानस तुलसीदास कृत प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी रचना के सम्बन्ध में स्वयं गोस्वामी जी ने कहा है- ....स्वांतः सुखाय श्री रघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति। (अनेक पुराण,आगम-निगमों से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में निबद्ध करता है।)
- रामचरित मानस एहिनामा । सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा ॥
विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ सूक्तियाँ नीचे प्रस्तुत हैं -
संगति
सम्पादन- गगन चढ़इ रज पवन प्रंसगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥
- साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥
पवन के साथ मिलकर धूल आँधी बनकर आकाश तक छू जाती है और वही धूल नीचे की ओर बहने वाले जल के साथ कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना परमात्मा का नाम जपते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिन कर गालियाँ देते हैं।
- बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
- सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
- शठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पास परस कुधात सुहाई ॥
सत्संगति के बिना विवेक की प्राप्ति नहीं होती और भगवान की कृपा के बिना सत्संगति का प्राप्त होना सहज नहीं। यह सत्संगति आनन्द और कल्याण की मूल है, सत्संगति की प्राप्ति फल है और सब साधन फूल हैं। सन्तों की संगति पाकर दुष्ट व्यक्ति भी उसी प्रकार सुधर जाते हैं, जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सुहावना हो जाता है अर्थात् लोहा स्वर्ण में परिवर्तित होकर सुन्दर, मूल्यवान और सबका प्रिय बन जाता है।
- बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
- को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।
खराब संगति से सब बर्बाद हो जाते हैं। नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती हैं।
- एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की पुनि आध ।
- तुलसी संगत साधु की ,काटे कोटि अपराध॥
भावार्थ - साधु पुरुष की संगत से हमारे अनंत कोटि जन्मों के अपराध नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद सिर्फ प्रारब्ध भोगना ही शेष रह जाता है। व्यक्ति पूर्व जन्म के पापकर्मों के फल से यानी संचित कर्मों से मुक्त हो जाता है। अब करने को क्रियमाण कर्म (वह कर्म जो तुम अब कर रहे हो जिन्हें आगामी कर्म भी कहा जाता है क्योंकि इनका फल आगे के जन्मों में मिलता है ) और प्रारब्श कर्मफल ही शेष रह जाता है।
- मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
- नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं।
गोस्वामी जी की विनम्रता
सम्पादन- बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
- बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
अब मैं सन्त और असन्त दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि संत तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और असन्त मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं।
- करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
- सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ ॥
मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा हैं।
- मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥
- छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥
मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत् में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर सुनेंगे।
- कवि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥
- आखर अरथ अलंकृत नाना । छन्द प्रबंध अनेक बिधाना ॥
- भाव भेद रस भेद अपारा । कवित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥
- कवित विवेक एक नहिं मोरे । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे ॥
मैं न तो कवि हूँ और न बोलने में ही प्रवीण हूँ। सब कलाओं, सब विद्याओं से रहित हूँ। अक्षर, अर्थ, अनेक प्रकार के अलंकार ( और उनसे) अनेक प्रकार की छंद रचनाएँ, भावों और रसों के अपार भेद और अनेक प्रकार के दोष और गुण काव्य के होते हैं। काव्यसंबंधी एक भी ज्ञान मुझे नहीं है। मैं कोरे काग़ज़ पर लिखकर सत्य कहता हूँ।
- बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥
- राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई ॥
उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शोभा बहुत अधिक है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी की सुंदरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं।
मित्र
सम्पादन- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातकभारी॥
- निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
- जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥
- देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
- बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥
- आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
- जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥
- सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
- सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
राजा
सम्पादन- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥ -- अयोध्याकाण्ड 71/6
- जिस राजा के राज्य में प्यारी जनता दुखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरकगामी होता है।
- मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥ -- अयोध्याकाण्ड 126/3
- जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं।
- मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
- पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ॥ -- श्रीराम, भरतजी से ; अयोध्याकाण्ड 315
- मुखिया (घर का मालिक, राजा आदि) मुख के समान होना चाहिए। खाना-पानी केवल मुख में प्रवेश करता है, लेकिन वह अकेले उसे पचा नहीं जाता। उसे आगे बढ़ा देता है जिससे विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण होता है।
भक्ति
सम्पादनतुलसीदास ने यद्यपि भक्ति तथा ज्ञान का समन्वय किया है, परन्तु उन्होंने भक्ति की श्रेष्ठता को प्रतिपादित की है। "साधन सिद्धि राम पद नेहूँ " कहकर उन्होंने मोक्ष का साधन राम के चरण कमलों में प्रेम का होना स्वीकारा है।
- ग्यान भगति साधन अनेक सब सत्य झूठ कछु नाहीं ।
- तुलसीदास हरि कृपा मिटै भ्रम यह भरोस मन माहीं ॥
- भगति तात अनुपम सुख मूला। मिलै जो सन्त होइ अनुकूला॥
- जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोऊ कर उपाई ॥
- तथा मोच्छ-सुख सुन खगराई । रहि न सकड़ हरि भगति बिहाई ॥
- मोक्ष भक्ति रहित हो नहीं सकता दोनों एक-दूसरे पर आधारित हैं।
- भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा । उभय हरहि भव सम्भव खेदा ॥
- नाथ मुनीस कहहिं कछु अन्तर। सावधान सोउ सुनु विहंगबर ॥
- ग्यान विराग जोग विग्याना। ऐ सब पुरुष सुनहु हरि जाना ॥
- जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
- भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
- जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है।
- नवधा भक्ति
- प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
- गुरू पद पंकज सेवा तीसरि भगत अमान
- चौथी भगति मन गुन गन करड़ प्रकट तजि गान ||
- मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा ॥
- छठ दमसील विरति बहु करना। निरत निरन्तर सज्जन धरना ।।
- सातवं सम मोहि भय जग देखा। मोते संत अधिक कर देखा ॥
- आठवं जथा लाभ-संतोषा। सपनेहु नहिं देखइ पर दोषा ॥
- नवम् सरल सब सन छल होना। मम भरोस हिय हरषित होना ॥
- नव महुँ एकऊ जिनके होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ।
ज्ञान
सम्पादन- कहहिं सन्त मुनि वेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥
- ग्यान पंथ कृपान कै धारा । परत खगेस होइ नहिं बारा ॥
- जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई । सो कैवल्य परम पद लहईं॥
ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है । इस रास्ते में भटकते देर नही लगती । जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है ।
- कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक।
- होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक ॥
सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुश्किल एवं उसे साधने में भी कठिन है । यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं ।
विविध
सम्पादन- कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
- तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥
जैसे काम के अधीन व्यक्ति को नारी प्यारी लगती है और लालची व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है । वैसे हीं हे रघुनाथ, हे राम, आप मुझे हमेशा प्यारे लगिए ।
- मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
- अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥
राम मच्छर को भी ब्रह्मा बना सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी छोटा बना सकते हैं । ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग सारे संदेहों को त्यागकर राम को ही भजते हैं।
- अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ।
- नेक जो होती राम से तो काहे भव-भीति ॥
यह मेरा शरीर तो अस्थि और चमड़े से बना हुआ है फिर भी इस के प्रति इतनी मोह, अगर मेरा ध्यान छोड़कर राम नाम में ध्यान लगाते तो संसार-सागर से कोई डर नहीं लगता।
- बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय ।
- आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय ॥
तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है । ठीक वैसे हीं जैसे, जब राख की आग बुझ जाती है, तो उसे हर कोई छूने लगता है ।
- तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक ।
- साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है । ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम (भगवान) का नाम ।
- काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान ।
- तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान ॥
जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं तब तक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक हीं जैसे होते हैं।
- आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह ।
- तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ॥
जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आँखों में आपके लिए न तो प्रेम और न हीं स्नेह हो । वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की हीं वर्षा क्यों न होती हो ।
- मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
- अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीनहीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीनहीनों का भला करने वाला नहीं है । ऐसा विचार करके, हे रघुवंश मणि । । मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए ।
- सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
- श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥
हे उमा, सुनो वह कुल धन्य है, दुनिया के लिए पूज्य है और बहुत पावन (पवित्र) है, जिसमें श्री राम (रघुवीर) की मन से भक्ति करने वाले विनम्र लोग जन्म लेते हैं।
- तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम ।
- कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम ॥
- बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।
- तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ॥
बुरे लोगों की संगती में रहने से अच्छे लोग भी बदनाम हो जाते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा गँवाकर छोटे हो जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे, किसी व्यक्ति का नाम भले हीं देवी-देवता के नाम पर रखा जाए, लेकिन बुरी संगती के कारण उन्हें मान-सम्मान नहीं मिलता है। जब कोई व्यक्ति बुरी संगती में रहने के बावजूद अपनी काम में सफलता पाना चाहता है और मान-सम्मान पाने की इच्छा करता है, तो उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती है । ठीक वैसे हीं जैसे मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम “गया” पड़ गया ।
- सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर । होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
- काँच किरिच बदलें ते लेहीं । कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
जो लोग मनुष्य का शरीर पाकर भी राम का भजन नहीं करते हैं और बुरे विषयों में खोए रहते हैं । वे लोग उसी व्यक्ति की तरह मूर्खतापूर्ण आचरण करते हैं, जो पारस मणि को हाथ से फेंक देता है और काँच के टुकड़े हाथ में उठा लेता है ।
- मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
- पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक ॥
परिवार के मुखिया को मुँह के जैसा होना चाहिए, जो खाता-पीता मुख से है और शरीर के सभी अंगों का अपनी बुद्धि से पालन-पोषण करता है ।
- तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ ।
- तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ॥
जो लोग दूसरों की निन्दा करके खुद सम्मान पाना चाहते हैं । ऐसे लोगों के मुँह पर ऐसी कालिख लग जाती है, जो लाखों बार धोने से भी नहीं हटती है ।
- बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि ।
- सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि॥
किसी की मीठी बातों और किसी के सुंदर कपड़ों से, किसी पुरुष या स्त्री के मन की भावना कैसी है यह नहीं जाना जा सकता है । क्योंकि मन से मैले सूर्पनखा, मारीच, पूतना और रावण के कपड़े बहुत सुन्दर थे ।
- तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर
- सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥
किसी व्यक्ति के सुंदर कपड़े देखकर केवल मूर्ख व्यक्ति हीं नहीं बल्कि बुद्धिमान लोग भी धोखा खा जाते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे मोर के पंख और उसकी वाणी अमृत के जैसी लगती है, लेकिन उसका भोजन सांप होता है ।
- सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
- राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
मंत्री ( सलाहकार ), चिकित्सक और शिक्षक यदि ये तीनों किसी डर या लालच से झूठ बोलते हैं, तो राज्य,शरीर और धर्म का जल्दी हीं नाश हो जाता है ।
- एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानन्द पर धामा ।
- ब्यापक विश्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ।
भगवान एक हैं, उन्हें कोई इच्छा नहीं है । उनका कोई रूप या नाम नहीं है । वे अजन्मा औेर परमानंद के परमधाम हैं । वे सर्वव्यापी विश्वरूप हैं । उन्होंने अनेक रूप, अनेक शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं ।
- सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ।
जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू । प्रभु भक्तों के लिये हीं सब लीला करते हैं । वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं । भक्त पर उनकी ममता रहती है । वे केवल करूणा करते हैं । वे किसी पर क्रोध नही करते हैं ।
- जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
- राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।
संकट में पड़े भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं । संसार में चार तरह के अर्थाथ; आर्त; जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं ।
- सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन
- नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुँ किए मन मीन ।
जो सभी इच्छाओं को छोड़कर राम भक्ति के रस में लीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते वही सच्चा भक्त है ।
- भगति निरुपन बिबिध बिधाना, क्षमा दया दम लता विताना ।
- सम जम नियम फूल फल ग्याना, हरि पद रति रस बेद बखाना ।
अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा, दया, इन्द्रियों का नियंत्रण, लताओं के मंडप समान हैं । मन का नियमन अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणधन, भक्ति के फूल और ज्ञान फल है । भगवान के चरणों में प्रेम भक्ति का रस है । वेदों ने इसका वर्णन किया है ।
- झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।
- जेहि जाने जग जाई हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ।
ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है । बिना पहचाने रस्सी से सांप का भ्रम होता है । लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है ।
- जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना । श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ।
जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद सांप के बिल के समान हैं ।
- जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी । जीवत सब समान तेइ प्राणी ।
- जो नहि करई राम गुण गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ।
जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मुर्दा के समान है । जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेंढ़क की जीभ के समान है ।
- कुलिस कठोर निठुर सोई छाती । सुनि हरि चरित न जो हरसाती
तुलसीदास जी कहते हैं – उसका हृदय बज्र की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न नही होता है ।
- सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा । गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा ।
- अगुन अरूप अलख अज जोई । भगत प्रेम बश सगुन सो होई ।
तुलसीदास जी कहते हैं – सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है । मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहते । जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है ।
- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता ।
- रामचंन्द्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहि न गाए ।
भगवान अनन्त है, उनकी कथा भी अनन्त है । संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं । श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोड़ों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं ।
- प्रभु जानत सब बिनहि जनाएँ । कहहुँ कवनि सिधि लोक रिझाए ।
तुलसीदास जी कहते हैं – प्रभु तो बिना बताये हीं सब जानते हैं । अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती ।
- तपबल तें जग सुजई बिधाता । तपबल बिश्णु भए परित्राता ।
- तपबल शंभु करहि संघारा । तप तें अगम न कछु संसारा ।
– तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है । इसमें शंका आश्चर्य करने की कोई जरूरत नही है । तपस्या की शक्ति से हीं ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही विष्णु इस संसार का पालन करते हैं । तपस्या द्वारा हीं शिव संसार का संहार करते हैं । दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है ।
- हरि ब्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना ।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही । कहहुँ सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं । तुलसीदास जी कहते हैं – भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हैं और प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हैं । वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में ब्याप्त हैं । कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाँ नही है ।
- तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
- जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन ।
तुलसीदास जी कहते हैं – प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं । प्रभु भक्तों के गुणग्राहक बुराईयों का नाश करने वाले और दया के धाम हैं ।
- करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी । चिदानंदु निरगुन गुनरासी । योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं – वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं ।
- मन समेत जेहि जान न वानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ।
- महिमा निगमु नेति कहि कहई । जो तिहुँ काल एकरस रहई ।
जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा ब्यक्त नहीं किया जा सकता-जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता – जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं ।
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि विलोकत पातक भारी ।
- निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरू समाना ।
तुलसीदास जी कहते हैं – जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होता है उसे देखने से भी भारी पाप लगता है । अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए ।
- जिन्ह कें अति मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ।
- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा ।
जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल जिद करके हीं किसी से मित्रता करते हैं । सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाता है और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है ।
- देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ।
- विपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।
मित्र से लेन देन करने में शंका न करे । अपनी शक्ति अनुसार हमेशा मित्र की भलाई करे । वेद के अनुसार संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह-प्रेम करता है । अच्छे मित्र के यही गुण हैं ।
- आगें कह मृदु वचन बनाई । पाछे अनहित मन कुटिलाई ।
- जाकर चित अहिगत सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ।
जो सामने बना-बनाकर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुरी भावना रखता है तथा जिसका मन सांप की चाल के जैसा टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है ।
- सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं । माया कृत परमारथ नाहीं ।
इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख, माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं ।
- सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।
तुलसीदास जी कहते हैं – देवता, आदमी, मुनि – सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं ।
- कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला ।
- गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल विसाला ।
खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है । उन कुसंगियों के बोल बाघ, सिंह और सांप की भांति हैं । घर के कामकाज में अनेक झंझट ही बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं ।
- सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ।
- समरथ कहुँ नहि दोश् गोसाईं । रवि पावक सुरसरि की नाई ।
तुलसीदास जी कहते हैं – गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता । सूर्य, आग और गंगा की तरह समर्थ व्यक्ति को कोई दोष नही लगाता है ।
- तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
- सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥
सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं । मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन सांप का खाता है ।
- बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं । गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ।
- जलधि अगाध मौलि बह फेन । संतत धरनि धरत सिर रेनू ।
तुलसीदास जी कहते हैं – बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं । पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है । अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है ।
- बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू ।
- जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै शिव द्रोही ।
- लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥
यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे – अकारण क्रोध करने वाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने वाला सब तरह की संपत्ति चाहे – लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूष बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छाएं व्यर्थ हैं ।
- ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग ।
- होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग ॥
ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं । ज्ञानी और समझदार लोग ही इसे जान पाते हैं ।
- को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मतें चतुराई ।
तुलसीदास जी कहते हैं – खराब संगति से सभी नष्ट हो जाते हैं । नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती हैं ।
- तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
- तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता ।
- सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ । भूलेहु संगति करिअ न काउ ।
- तिन्ह कर संग सदा दुखदाई । जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ॥
अब असंतों का गुण सुनें । कभी भूलवश भी उनका साथ न करें । उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है । खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है ।
- खलन्ह हृदयँ अति ताप विसेसी । जरहिं सदा पर संपत देखी ।
- जहँ कहुँ निंदासुनहि पराई । हरसहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥
दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है । वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं । दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैं जैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो ।
- काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।
- वयरू अकारन सब काहू सों । जो कर हित अनहित ताहू सों ।
वे काम, क्रोध, अहंकार, लोभ के अधीन होते हैं । वे निर्दयी, छली, कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं । वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं । जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई ही करते हैं ।
- झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चवेना ।
- बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अति हृदय कठोरा ।
दुष्ट का लेनादेना सब झूठा होता है । उसका नाश्ता भोजन सब झूठ ही होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है । पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विषधर सांप को भी खा जाता है । इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं ।
- पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद
- तें नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥
वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं । वे पामर और पापयुक्त मनुष्य शरीर में राक्षस होते हैं ।
- लोभन ओढ़न लोभइ डासन । सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना ।
- काहू की जौं सुनहि बड़ाई । स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ॥
लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है । वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं । उन्हें यमलोक का डर नहीं होता । किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है ।
- जब काहू कै देखहिं बिपती । सुखी भए मानहुँ जग नृपति ।
- स्वारथ रत परिवार विरोधी । लंपट काम लोभ अति क्रोधी ।
वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों । वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी, काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं ।
- मातु पिता गुर विप्र न मानहिं । आपु गए अरू घालहिं आनहि ।
- करहिं मोहवस द्रोह परावा । संत संग हरि कथा न भावा ।
वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते । खुद तो नष्ट रहते ही हैं । दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं । मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं । उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है ।
- अवगुन सिधुं मंदमति कामी । वेद विदूसक परधन स्वामी ।
- विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा । दंभ कपट जिए धरें सुवेसा ।
वे दुर्गुणों के सागर, मंदबुद्धि, कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला जबरदस्ती दूसरों का धन लूटने वाला, द्रोही विशेषत: ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं । उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिबास बहुत सुन्दर रहता है ।
- भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता । सत संगति संसृति कर अंता ॥ भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है । लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है । पुनः बिना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नहीं मिलती है । संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है ।
- जेहि ते नीच बड़ाई पावा । सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा ।
- धूम अनल संभव सुनु भाई । तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥
नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है । आग से पैदा धुंआ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है ।
- रज मग परी निरादर रहई । सब कर पद प्रहार नित सहई ।
- मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई । पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥
धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सभी के पैर की चोट सहती रहती है । लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है । बाद में वह राजाओं के आँखों और मुकुटों पर पड़ती है ।
- सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा । बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ।
- कवि कोविद गावहिं असि नीति । खल सन कलह न भल नहि प्रीती ॥
बुद्धिमान मनुष्य नीच की संगति नही करते हैं । कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि दुष्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम ।
- उदासीन नित रहिअ गोसांई । खल परिहरिअ स्वान की नाई ॥
दुष्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये । दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिये ।
- सन इब खल पर बंधन करई । खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ।
- खल बिनु स्वारथ पर अपकारी । अहि मूशक इब सुनु उरगारी ॥
कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाँधते हैं । जूट बाँधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है । वह दुख सहकर मर जाता है । दुष्ट बिना स्वार्थ के साँप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं ।
- पर संपदा बिनासि नसाहीं । जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ।
- दुश्ट उदय जग आरति हेतू । जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।
वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नष्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है । दुष्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है ।
- जद्यपि जग दारून दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है ।
- रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
- अजहुँ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु ।
बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये । राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है ।
- भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
- धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ।
जब ईश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी सांप के समान हो जाती है ।
- सासति करि पुनि करहि पसाउ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ ।
अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं ।
- सुख संपति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बडाई ।
- नित नूतन सब बाढत जाई । जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।
सुख, धन, संपत्ति, संतान, सेना, मददगार, विजय, प्रताप, बुद्धि, शक्ति और प्रशंसा जैसे जैसे नित्य बढते हैं, वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै ।
- जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी । नहि पावहिं परतिय मनु डीठी ।
- मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं । ते नरवर थोरे जग माहीं ।
ऐसे वीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते, दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृष्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटते । ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं ।
- टेढ जानि सब बंदइ काहू । वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू ।
टेढा जानकर लोग किसी भी व्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं । टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है ।
- सेवक सदन स्वामि आगमनु । मंगल मूल अमंगल दमनू ।
सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने वाला होता है ।
- काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
- तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि ।
भरत की मां हंसकर कहती है – कानों, लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चालचलन वाला जानना चाहिये ।
- कोउ नृप होउ हमहिं का हानि । चेरी छाडि अब होब की रानी ।
कोई भी राजा हो जाये, हमारी क्या हानि है । दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउँगी?
- तसि मति फिरी अहई जसि भावी ।
जैसी भावी होनहार होती है – वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है ।
- रहा प्रथम अब ते दिन बीते । समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते ।
पहले वाली बात बीत चुकी है । समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं ।
- अरि बस दैउ जियावत जाही, मरनु नीक तेहि जीवन चाही
ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें, उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है ।
- सूल कुलिस असि अंगवनिहारे । ते रतिनाथ सुमन सर मारे ।
जो व्यक्ति त्रिशूल, बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुष्प बाण से मारे जाते हैं ।
- कवने अवसर का भयउँ नारि विस्वास
- जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास ।
किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है ।
- दुइ कि होइ एक समय भुआला । हँसब ठइाइ फुलाउब गाला ।
- दानि कहाउब अरू कृपनाई । होइ कि खेम कुसल रीताई ।
ठहाका मारकर हँसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एक ही समय में सम्भव नहीं है । दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कदापि सम्भव नही है ।
- सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ । सब बिधि अगहु अगाध दुराउ ।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई । जानि न जाइ नारि गति भाई । स्त्री का स्वभाव समझ से परे, अथाह और रहस्यपूर्ण होता है । कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है ।
- काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
- का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ ।
अग्नि किसे नही जला सकती है? समुद्र में क्या नही समा सकता है? अबला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है । संसार में काल किसे नही खा सकता है?
- जहँ लगि नाथ नेह अरू नाते । पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ।
- तनु धनु धामु धरनि पुर राजू । पति विहीन सबु सोक समाजू ।
पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं । शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं ।
- सुभ अरू असुभ करम अनुहारी । ईसु देइ फल हृदय बिचारी ।
- करइ जो करम पाव फल सोई । निगम नीति असि कह सबु कोई ।
ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है । ऐसा ही वेद नीति और सब लोग कहते हैं ।
- काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।
कोई भी किसी को दुख-सुख नही दे सकता है । सभी को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है ।
- करम प्रधान विस्व करि राखा । जो जस करई सो तस फलु चाखा ॥
ईश्वर ने इस संसार में कर्म को महत्ता दी है अर्थात जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भी भोगना पड़ेगा।
- जोग वियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ।
- जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरू कालू ।
मिलाप और बिछुड़न, अच्छे बुरे भोग ,शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के फांस हैं । जन्म, मृत्यु संपत्ति, विपत्ति कर्म और काल- ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं ।
- बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी । सकल कपट अघ अवगुन खानी ।
स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं । वह छल, कपट, पाप और अवगुणों की खान है ।
- सुनहुँ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
- हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ ।
मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी मौत प्रतिष्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है ।
- विशय जीव पाइ प्रभुताई । मूढ़ मोह बस होहिं जनाई ।
मूर्ख सांसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं ।
- रिपु रिन रंच न राखब काउ ।
शत्रु और ऋण को कभी भी शेष नही रखना चाहिये । अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये ।
- लातहुँ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान ।
धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है ।
- अनुचित उचित काजु किछु होउ । समुझि करिअ भल कह सब कोउ ।
- सहसा करि पाछें पछिताहीं । कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ।
किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं । बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम बिना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं – वे बुद्धिमान नहीं हैं ।
- विशई साधक सिद्ध सयाने । त्रिविध जीव जग बेद बखाने ।
संसारी, साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरुष – इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं ।
- सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
- जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ।
अमृत मात्र सुनने की बात है किन्तु जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं । कौआ, उल्लू और बगुला तो जहां तहां दिखते हैं परन्तु हंस तो केवल मानसरोवर में ही रहते हैं ।
- सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा । बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा ।
- तो सृजि पालई हरइ बहोरी । बालकेलि सम बिधि मति भोरी ।
ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है । वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है । ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित है ।
- कसे कनकु मनि पारिखि पायें । पुरूश परिखिअहिं समयँ सुभाए ।
सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा ही पहचाना जाता है । पुरूष की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव और चरित्र से होती है ।
- सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि ।
बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना गलत होता है ।
- धीरज धर्म मित्र अरू नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी ।
- बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना । अंध बधिर क्रोधी अतिदीना ।
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री की परीक्षा आपद या दुख के समय होती हैै । बूढ़ा, रोगी, मूर्ख, गरीब, अन्धा, बहरा, क्रोधी और अत्यधिक गरीब सभी की परीक्षा इसी समय होती है ।
- कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।
कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है ।
- मैं अरू मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया ।
में और मेरा तू और तेरा-यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है ।
- रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि ।
शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साँप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये ।
- नवनि नीच कै अति दुखदाई । जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ।
- भयदायक खल कै प्रिय वानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ।
नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती हैजैसे अंकुश धनुस सांप और बिल्ली का झुकना । दुष्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल ।
- कबहुँ दिवस महँ निविड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग
- बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ।
बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं । जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है ।
- भानु पीठि सेअइ उर आगी । स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी ।
सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये । किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये ।
- भानु पीठि सेअइ उर आगी । स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी ।
सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये । किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये ।
- उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ।
संत की यही महानता है कि वे बुराई करने वाले पर भी उसकी भलाई ही करते हैं ।
- साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ।
- साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है ।
- कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ।
- ईश्वर का क्या भरोसा । देवता तो कायर मन का आधार है ।
- आलसी लोग ही भगवान भगवान पुकारा करते हैं ।
- सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ।
मूर्ख से नम्रता दुष्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार व्यर्थ होते हैं ।
- ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन विरति बखानी ।
- क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा । उसर बीज बए फल जथा ।
मोह माया में फँसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है ।
- काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
- बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ।
करोड़ों उपाय करने पर भी केला काटने पर ही फलता है । नीच आदमी विनती करने से नहीं मानता है – वह डांटने पर ही झुकता – रास्ते पर आता है ।
- पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।
दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं ।
- संसार महँ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा
- एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं ।
संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा । एक फूल देता है-एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है । लोगों मे एक केवल कहते हैं-करते नहीं । दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं ।
- नयन दोस जा कहँ जब होइ्र्र । पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ।
- जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा । सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा ।
जब किसी को आंखों में दोष होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है । जब पक्षी के राजा (गरुड़) को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है ।
- नौका रूढ़ चलत जग देखा । अचल मोहबस आपुहिं लेखा ।
- बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी । कहहिं परस्पर मिथ्यावादी ।
नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है । बच्चे गोलगोल घूमते है लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते । लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं ।
- एक पिता के बिपुल कुमारा । होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥
- कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता । कोउ घनवंत सूर कोउ दाता ॥
एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं । कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है ।
- कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई । सब पर पितहिं प्रीति समहोई ।
- कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा । सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ।
कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है । पिता सब पर समान प्रेम करते हैं । पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता ।
- सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना । जद्यपि सो सब भाँति अपाना ।
- एहि बिधि जीव चराचर जेते । त्रिजग देव नर असुर समेते ।
तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो । इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं ।
- जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहि प्रीती ।
- प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।
किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता । प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है ।
- सोहमस्मि इति बृति अखंडा । दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ।
- आतम अनुभव सुख सुप्रकासा । तब भव मूल भेद भ्रमनासा ।
मैं ब्रम्ह हूँ – यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है । जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है ।
- नहिं दरिद्र सम दुख जग माँहीं । संत मिलन सम सुख जग नाहीं ।
- पर उपकार बचन मन काया । संत सहज सुभाउ खगराया ।
संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है । मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है ।
- मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ।
- काम वात कफ लोभ अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
अज्ञान सभी रोगों की जड़ है । इससे बहुत प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते हैं । काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है । क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है ।
- सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
- ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥
महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया।
- को जग काम नचाव न जेही ।
- जगत में ऐसा कौन है, जिसे काम ने नचाया न हो [उत्तरकांड]
- खल सन कलह न भल नहिं प्रीति
- खल के साथ न कलह अच्छा न प्रेम अच्छा [उत्तरकांड]
- केहिं कर हृदय क्रोध नहिं दाहा
- क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया [उत्तरकांड]
- चिंता सांपिनि को नहिं खाया
चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं डंसा [उत्तरकांड]
- तप ते अगम न कछु संसारा
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके [बालकांड]
- तृष्णा केहि न कीन्ह बीराहा
- तृष्णा ने किसको बावला नहीं किया [उत्तरकांड]
- नवनि नीच के अति दुःखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग विलाई।
- नीच का झुकना भी अत्यन्त दुखदायी होता है, जैसे -अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना । [उत्तरकांड]
- परहित सरस धरम नहिं भाई
- पर पीडा़ सम नहिं अधमाई॥
- परोपकार के समान दूसरा धर्म नहीं है [उत्तरकांड]
- दूसरों को पीडित करने जैसा कोई पाप नहीं है [उत्तरकांड]
- दुचित कतहुं परितोष न लहहीं
- चित्त के दोतरफा हो जाने से कहीं परितोष नहीं मिलता [अयोध्या कांड]
- तसि पूजा चाहिअ जस देवा
- जैसा देवता हो, वैसी उसकी पूजा होनी चाहिए [अयोध्याकांड]
- नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं
- प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं
- संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो [बालकांड]
- प्रीति विरोध समान सन
- करिअ नीति असि आहि
- प्रीति और बैर बराबरी में करना चाहिए [लंकाकांड]
- मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला
- सभी मानस रोगों की जड़ मोह / अज्ञान है [उत्तरकांड]
- कीरति भनिति भूति भलि सोई।
- सुरसरि सम सब कहं हित होई॥
- कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की भांति सबका हित करती है [बालकांड]
- सचिव बैद गुरु तीनि जौं , प्रिय बोलहिं भय आस।
- राजधर्म, तन तीनि कर, होई बेगहिं नास ॥
- मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा से ठकुरसुहाती कहते हैं तो समझिए कि राजधर्म का इन्होने तिनका-तिनका कर दिया है, जिससे इसका (राजधर्म का) शीघ्र ही नाश हो जाएगा। [सुन्दरकांड]
- लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु
- लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड]
- मुखिया मुख सों चाहिए खान पान को एक।
- पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक ॥
- परिवार के मुखिया को मुख के सामान होना चाहिए, जो खाता तो अकेले है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगो का पालन-पोषण करता हैं।
- तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर ।
- बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ॥
- मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं। किसी को भी वश में करने का ये एक मन्त्र होते हैं। इसलिए मानव को चाहिए कि कठोर वचन छोडकर मीठा बोलने का प्रयास करे॥
- तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
- साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥
- सी विपत्ति यानि किसी बड़ी परेशानी के समय आपको ये सात गुण बचायेंगे: आपका ज्ञान या शिक्षा, आपकी विनम्रता, आपकी बुद्धि, आपके भीतर का साहस, आपके अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और ईश्वर में विश्वास।
इन्हें भी देखें
सम्पादनबाह्य सूत्र
सम्पादन- रामचरितमानस में नीति तत्व (डॉ. गीता कौशिक)