व्याकरण
व्याकरण, शब्दशास्त्र है।
उक्तियाँ
सम्पादन- चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादाः द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
- त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आविवेश॥ -- ऋग्वेद ४.५८.३
- इस मन्त्र में व्याकरण की तुलना वृषभ (बैल) से की गयी है जिसके चार सींग, तीन पैर, दो सिर तथा सात हाथ हैं तथा जो तीन प्रकार से बँधा है। वह वृषभ रोता है। वह महादेव मनुष्यों में प्रविष्ट है।
- उस महान देवता के चार सींग (नाम-आख्यात-उपसर्ग-निपात) , तीन पैर (भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल), दो सिर (नित्य और अनित्य शब्द), सात हाथ (सात विभक्तियाँ) , तीन स्थान (उर, कण्ठ, सिर) से बधा हुआ है।
- व्याकरण के मूल प्रयोजन ये हैं: रक्षा, ऊह, आगम, लघु, असंदेह। -- पतंजलि
- लोकोपचाराद्ग्रहणसिद्धिः। -- कातन्त्र
- अत्थो अक्खरसञ्ञातो । -- कच्चायनब्याकरण
- (अर्थो अक्षरसङ्ज्ञातो) ; अक्षर से अर्थ का ज्ञान होता है।
- व्याकरणस्य शरीरं परिनिष्ठितशास्त्रकार्यमेतावत् ।
- शिष्टः परिकरबन्धः क्रियतेऽस्य ग्रन्थकारेण ॥ -- काशिका
- प्रस्तुत पंक्तियों मे काशिकाकार ने व्याकरण को पाणिनीयसूत्र रूपी आत्मा का शरीर कहा है। वे कहते हैं कि "व्याकरण के शरीर रूपी इस काशिका में व्याकरण का कार्य समाप्त हो गया है ।"
- उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिंता यत्र प्रवर्तते।
- तं ग्रंथं वार्तिकं प्राहुर्वार्तिकज्ञाः मनीषीणः।
- अर्थात वार्तिक वह है जिसमें अष्टाध्यायी में उक्त (कहा गया), अनुक्त (नहीं कहा गया) और दुरुक्त (गलत कहा गया) पर विचार किया गया हो।
- यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
- स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
- (पुत्र ! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि 'स्वजन' 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय।)
- यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च ।
- यस्याहं च द्वितीया स्याद् द्वितीया स्यामहं कथम् ॥
- अर्थ - जो पुरुष 'विहस्य' को षष्ठी तथा 'विहाय' को चतुर्थी समझता है, 'अहम्' शब्द को द्वितीया समझता है, मैं कैसे उसकी पत्नी (द्वितीया) बन सकती हूँ?
- अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तथायुर्बहवश्च विघ्नाः।
- यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसैर्यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥ -- पञ्चतन्त्र, "मित्रभेदो" नामक प्रथम तन्त्र
- तात्पर्य : केवल व्याकरणशास्त्र का ही विचार करें, तो उसका भी कोई अन्त ही नहीं है। मानव की सम्पूर्ण आयु भी इसके अध्ययन के लिए अल्प है। जो सारभूत है, उसी का अध्ययन करना चाहिए, जैसे नीर-क्षीर विवेक से हंस इन दोनों के मिश्रण से केवल क्षीर को ही अलग करके पीता है।
- न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमात्त्ते ।
- अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ -- भर्तृहरि, वाक्यपदीय में
- संसार का कोई भी ज्ञान शब्द से ही प्रकाशित होता है, शब्द के बाह्य तथा अन्तः स्वरुप को समझने के लिए तत्तत् वैयाकरणों ने अनेक शब्दानुशासनों की रचना की है।
- नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।
- बहु व्याहरताऽनेन न किञ्चिदपशब्दितम् ॥ -- वाल्मीकि रामायण
- (राम कहते हैं कि) ऐसा लगता है कि इन्होंने (हनुमान ने) अवश्य ही सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक प्रकर से अध्ययन किया है क्योंकि इनके द्वारा उच्चारित बहुत से शब्दों में कोई भी त्रुटि नहीं है।
- सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते ।
- तन्मूलतो व्याकरणं व्याकरोतिती तत्तथा ॥ -- महाभारत, उद्योगपर्व
- जो पाठक शब्द के समस्त अर्थों को व्याकृत करता है उसे वैयाकरण कहते हैं। शब्दों को व्याकृत करने वाला शास्त्र ही व्याकरण कहलाता है।
- अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
- भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
- व्याकरण छोड़कर किया हुआ अध्ययन, टूटी हुई नाव से नदी पार करना, और नहीं खाने लायक भोजन के साथ दवाई खाना – ये सब चीजें करने से बेहतर है इन्हें न करना।
- अज्ञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाज्जजशलाकया।
- चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नमः ॥ -- पाणिनीयशिक्षा, एकादशमखण्ड
- जिन्होंने ज्ञान रूपी अंजन की शलाका से अज्ञान से अन्धे लोगों को आंख प्रदान की, उस पाणिनि को नमस्कार करता हूँ।
- योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
- योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥
- अर्थात् चित्त-शुद्धि के लिए योग (योगसूत्र), वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण (महाभाष्य) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र (चरकसंहिता) देनेवाले मुनिश्रेष्ठ पतञ्जलि को प्रणाम।
- यदि व्याकरण को अच्छी त्रह समझ लिया जाय तो वह हमे अपनी बात को न केवल पूर्णता और स्पष्टता से कहने में सक्षम बनाता है बल्कि हमे यह भी शक्ति देता है कि हम ऐसे शब्द प्रयोग करें जिनका दूसरे लोग चाहकर भी कोई दूसरा अर्थ न निकाल सकें। -- William Cobbett in: A Grammar of the English Language: The 1818 New York First Edition Wih Passages Added in 1819, 1820, and 1823, Rodopi, 1983, p. 34
- पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है। -- लेनिनग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी
- पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं। -- कोल ब्रुक
- संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है।.. यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है। -- सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर
- पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा। -- प्रो॰ मोनियर विलियम्स
वाक्यपदीय
सम्पादनवाक्यपदीय संस्कृत व्याकरण परम्परा में दार्शनिक दृष्टि से एक विशिष्ट ग्रंथ है। हम जो लिखते हैं, हम जो बोलते हैं- वह एक-एक शब्द साक्षात् ब्रह्म का स्वरूप है। अर्थात् शब्द ही ब्रह्म है - इस सिद्धान्त की दार्शनिक विवेचना करने वाला ग्रंथ है- वाक्यपदीयम्।
- अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरम्।
- विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। श्लोक 1।।
हिंदी अर्थ- शब्द तत्व ही अक्षर है ।आदि, निधन से रहित शब्द रूपी ब्रह्म है। पूरे संसार के जितने भी कार्य हैं, प्रक्रिया हैं वह शब्द के आश्रित हैं। शब्द तत्व अर्थ भाव में विवर्त्त होता है।
- एकमेव यदाम्नातं भिन्नं शक्तिव्यापाश्रयात्।
- अपृथक्त्वेऽपि शक्तिभ्यः पृथक्त्वेनेव वर्तते।।श्लोक 2।।
हिंदी अर्थ- जो शब्द ब्रह्म एक ही कहा गया है फिर भी उसकी यानी शब्द ब्रह्म की बहुत सारी शक्तियां हैं। अपने शक्तियों का आश्रय लेने के कारण भिन्न-भिन्न दिखाई देता है। वो अपनी शक्तियों से भिन्न नहीं है। फिर भी अलग जैसा दिखाई पड़ता है।
- अध्याहितकलां यस्य कालशक्तिमुपाश्रिताः।
- जन्मादयो विकाराः षड्भावभेदस्य योनयः।।3।।
हिंदी अर्थ- जिस शब्द ब्रह्म की कलाएं अध्याहित-आरोपित जिसकी नित्य शक्तियां हैं वो कालशक्ति का आश्रय लेकर 6 भाव रूप में परिवर्तित हो जाती है। 6 भाव विकार-1.जायते, 2.अस्ति, 3.विपरिणमते, 4.वर्ध्दते, 5. अपक्षीयते, 6.विनश्यति।
- एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा।
- भोक्तृभोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः।।4।।
हिंदी अर्थ- शब्द तत्व एक है, सबका बीज है। भोक्ता के रूप में, भोक्तव्य के रूप में, भोग के रूप में यानि अनेक प्रकार की स्थिति हो जाती है।
- प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च तस्य वेदो महर्षिभिः।
- एकोऽप्यनेकवर्त्मेव समाम्नातः पृथक् पृथक्।।5।।
हिंदी अर्थ- उस शब्द ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय ,आकृति वेद है। वेद एक ही था फिर भी महर्षियों के द्वारा अलग-अलग तरह से कहा गया ।
- भेदानां बहुमार्गत्वं कर्मण्येकत्र चाङ्गता।
- शब्दानां यतशक्तित्वं तस्य शाखासु दृश्यते।।6।।
हिंदी अर्थ- वेद के बहुत ज्यादा भेद होने से अनेक मार्ग हो गए। लेकिन कर्म के बात होते हैं तो सब एक हो जाते हैं, समाहार हो जाता है। प्रत्येक वेद में अलग-अलग व्याख्यान हैं, शब्दों का अलग-अलग विभाजन है। लेकिन कर्मों की बात आती है सारे वेदों की तो यज्ञ करने, पूजन करने की उपदेश देते हैं ।वेद की शाखाएं की नियत शक्ति है।
- स्मृतयो बहुरूपाश्च दृष्टादृष्टप्रयोजनाः।
- तमेवाश्रित्य लिङ्गेभ्यो वेदविभ्दिः प्रकल्पिताः।।7।।
हिंदी अर्थ- स्मृति भी बहुत रूपों वाली है। स्मृतिग्रंथ भी दो प्रयोजन से बनाई जाती है-1.दृष्ट प्रयोजन 2.अदृष्ट प्रयोजन से। स्मृतियां भी वेदों का आश्रय लेकर यानि वेद के जाननेवाले जो व्यक्ति थे, जो विद्वान थे उन्होंने वेद चिन्हों को समझकर के, वेद के मंत्रों को जानकर के दृष्टादृष्ट प्रयोजन से स्मृतियों की रचना की।
- तस्यार्थवादरूपाणि निश्चित्य स्वविकल्पजाः।
- एकत्विनां द्वैतिनां च प्रवादा बहुधा मताः।।8।।
हिंदी अर्थ- जितने भी दर्शन हैं जो भारतीय दर्शन हैं चाहे वो एकत्व वाले हो या द्वैतवाले हों अर्थात् वो अद्वैतवाले हों या द्वैतवालें हों वो सारे अपने -अपने विकल्पों के साथ वेद से ही उत्पन्न हुए।
- सत्या विशुध्दिस्तत्रोक्ता विद्यैवैकपदागमा।
- युक्ता प्रणवरूपेण सर्ववादाविरोधिनी।।9।।
हिंदी अर्थ- प्रणव यानी ओमकार। जो एकपदागम स्वरूप विद्या है- ओमकार का, वही विशुद्धि है, बिल्कुल मूल रूप से वही सत्य है। वेद में भी ये बात स्पष्ट की गई है। सभी वादों के अविरोधि केवल ओमकार है। वही 'प्रणवरूपा विद्या ' है।
- विधातुस्तस्य लोकानामङ्गोपाङ्गनिबन्धनाः।
- विद्याभेदाः प्रतायन्ते ज्ञानसंस्कारहेतवः।।10।।
हिंदी अर्थ- समस्त संसार का विधातु शब्दब्रह्म स्वरूप का जो वेद है उसके अंग उपांग जितने भी हैं उन अंगोपांगों से युक्त जितने भी प्रकार की विद्याएं हैं यानि विद्याओं का बहुत्व है वह ज्ञान और संस्कार को देनेवाली है। उन अंगोंपांग में संस्कार आदि ज्ञान हैं।
- आसन्नं ब्रह्मणस्तस्य तपसामुत्तमं तपः।
- प्रथमं छन्दसामङ्ग प्राहुर्व्याकरणं बुधाः।।11।।
हिंदी अर्थ- उस वेद स्वरूपी ब्रह्म के समीप में रहनेवाला सभी तपों में सर्वश्रेष्ठ तप व्याकरण है। छन्दों का या वेदों का सबसे पहला अंङ्ग व्याकरण है।
- प्राप्तरूपविभागाया यो वाचः परमो रसः।
- यत्तत्पुण्यतमं ज्योतिस्तस्य मार्गोऽयमाञ्जसः।।12।।
हिंदी अर्थ- वैखरी को प्राप्तरूप विभाग कहा गया है क्योंकि जब हम वैखरी वाणी बोलते हैं इसके बहुत सारे विभाग होते हैं। इसको सक्रम भी कहते हैं। उस वैखरी वाणी का परम रस भी व्याकरण है और उस व्याकरण का सरल उपाय है वह लघुप्रयोजन है। वही व्याकरण परम पुण्य, प्रकाश स्वरूप और अञ्जस है।
- अर्थप्रवृत्तितत्वानां शब्दा एव निबन्धनम्।
- तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते।।13।।
हिंदी अर्थ- अर्थ यानि घटादि रूप। असन्देह रूप जो व्याकरण है वही अर्थप्रवृत्ति तत्त्वों का बोधक है। शब्दों का तत्वबोध व्याकरण से होता है। अर्थप्रवृत्तितत्व का जो उपाय है वह व्याकरण है।