राजधर्म एक नौका के समान है, यह नौका धर्म रूपी समुद्र में स्थित है। सतगुण ही नौका का संचालन करने वाला बल है, धर्मशास्त्र ही उसे बांधने वाली रस्सी है।
राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें। -- महाभारत (भीष्म, युधिष्ठिर से)
राजा महान उत्साही , अत्यन्त धन देने वाला , विनित , सत्त सम्पन्न , सम्पत्ति एवं विपत्ति में एक - सा आचरण करने वाला हो। वह कुलीन, सत्य वचन बोलने वाला' पवित्र' आलस्य रहित , जानते हुए कार्यों का स्मरण रखने वाला' सद्गुणी , दूसरे को दुःख न देने वाला, आर्थिक व्यसन न करने वाला, बुद्धिमान , वीर , रहस्य को छिपाने में चतुर तथा अपने राज्य के प्रवेश द्वारों को गुप्त रखने वाला हो। आन्वीक्षिकी , दण्डनीती और वार्ता इन विद्याओं में राजा प्रवीण होना चाहिए।[१]
स्वामी (राजा), मन्त्रीवृन्द, प्रजा, दुर्ग, राजकोश, दण्ड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला) कहा गया है।
अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण
भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदण्डनीय नहीं होता है।
स्याद्राजा भृत्यवर्गेषु प्रजासु च यथा पिता ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३३४
राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, अनुराग रखने वालों के प्रति सरल , शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान दयावान एवं हितकारी होना चाहिए।
मन्त्रमूलं यतो राज्यं तस्मान्मन्त्रं सुरक्षितम् ।
कुर्याद्यथास्य न विदुः कर्मणां आफलोदयात् ॥ -- याज्ञवल्क्यस्मृति, राजधर्मप्रकरण १.३४४
राज्य कार्य का मुख्य आधार मन्त्र है। इसलिए मन्त्र को इस प्रकार राजा गुप्त रखे कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके।