जो लोग भगवान के बारे में यह मानते हैं कि वह संसार क निर्माता, इसका पालनपोषण करने वाला, और सर्वशक्तिमान है, उन्हें आस्तिक कहा जाता है। 'ब्रह्म' , ईश्वर, प्रभु आदि इसके पर्याय हैं। कुछ लोग भगवान को काल्पनिक मानते हैं, उन्हें नास्तिक कहा जाता है।

उक्तियाँ सम्पादन

  • प्रज्ञानं ब्रह्म । -- ऐतरेय उपनिषद्
प्रज्ञान ही ब्रह्म है।
  • अयमात्मा ब्रह्म । -- (माण्डूक्य उपनिषद् , वृहदारण्यक उपनिषद् २।५।१९)
यह आत्मा ब्रह्म है।
  • अहं ब्रह्मास्मि । -- ( वृहदारण्यक ०१ ।४।१०)
  • तत्त्वमसि -- (छान्दोग्य उपनिषद् )
वह, तुम हो।
  • सर्वं खल्विदं ब्रह्म -- (छान्दोग्य उपनिषद् ३॥१४।१)
सब कुछ केवल ब्रह्म ही है।
  • द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -- ऋग्वेद १/१६४/२०
अर्थ : दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं; उनमें से एक (आत्मा) उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा (परमात्मा) खाता नहीं है, केवल देखता है। (इस मन्त्र में जीव को कर्मफल का भोक्ता और परमेश्वर को प्रत्येक कर्म का द्रष्टा अर्थात् कर्मफल के साथ तनिक भी सम्बन्ध न रखनेवाला बताया गया है।)
  • द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ -- ब्रह्मबिन्दूपनिषद्
दो विद्याएँ जानने योग्य हैं, प्रथम विद्या को ‘शब्द ब्रह्म’ और दूसरी विद्या को ‘परब्रह्म’ के नाम से जाना जाता है। ‘शब्द ब्रह्म’ अर्थात् वेद-शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात होने पर विद्वान् मनुष्य परब्रह्म को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है॥
  • न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ -- कठोपनिषत् , द्वितीय अध्याय, द्वितीया वल्ली
अर्थ : वहाँ उस आत्मस्वरूप ब्रह्म में न तो सूर्य प्रकाशमान होता है, न चन्द्रमा और तारे ही प्रकाशित होते हैं। वहाँ यह बिजली भी प्रकाशित नहीं होती, फिर यह अग्नि कहाँ ठहरती है? उसके प्रकाशित होने पर ही यह सब कुछ प्रकाशित होता है। उसका प्रकाश ही सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रहा है।
  • नेति नेतीति नेतीति शेषितं यत्परं पदं ।
निराकर्त्तुमशक्यत्वात्तदस्यीति सुखी भव ॥ -- योगवाशिष्ठ (?)
(ईश्वर) यह नहीं है, वह भी नहीं है, ऐसा समझकर सब छोड़ देने पर जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है । यह जानकर तू सुखी हो जा ।
  • केवलं ज्ञानमाश्रित्य निरीश्वर परा नराः ।
निरयं ते च गच्छन्ति कल्पकोटिशतानि च ॥ -- शिवपुराण रुद्रसंहिता
जो मात्र ज्ञान (बुद्धि) का सहारा लेकर निरीश्वरवादी हो जाते हैं ( ईश्वर को नहीं मानते), वे सौ करोड़ कल्पों तक नरक में पड़े रहते हैं।
  • देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवस्सनातनः ।
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहं भावेन पूजयेत् ॥ -- वेद व्यास
इस देह को देवालय कहा गया है। (इसके अन्दर निवास करने वाला) जीव ही सनातन देवता है। (इसलिये) अज्ञान को छोड़कर सोऽहं (मैं 'वह' हूँ) भाव से पूजा करनी चहिये।
  • एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या -- आदि शंकराचार्य
अर्थ - एक ही ब्रह्म है दूसरा नहीं। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है।
  • बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ -- तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड)
अर्थ : (वह ब्रह्म) बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है। बिना मुख के ही सभी रसों का भोग करने वाला है और वाणी के बिना भी वक्ता है और बड़ा योगी है। (अर्थात् ब्रह्म निराकार है।)
  • सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥ -- रामचरितमानस, बालकाण्ड
सरस्वतीजी, शेषनागजी, शंकरजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब 'नेति-नेति' कहकर ( ' ऐसा नहीं, ऐसा नहीं ' कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं।
  • निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझतिं साँच न हाँसी॥
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन, भेस है कैसो, केहि रस को अभिलासी॥
पावैगो पुनि कियो अपनो, जो रे कहैगो गाँसी॥
सुनत मौन ह्वै रह्यो बावरौ, सूर सबै मति नासी॥ -- सूरदास, गोपियों के मुख से, उद्धव से निर्गुण ब्रह्म के बारे में पूछती हुईं
अर्थ : जब उद्धव गोपियों को निराकार ब्रह्म की आराधना करने को कहते हैं तब गोपियाँ ‘भ्रमर’ की अन्योक्ति से उद्धव को सम्बोधित करती हुई पूछती हैं कि हे उद्धव! तुम यह बताओ तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का रहने वाला है? हम आपको कसम दिलाकर सच-सच पूछ रही हैं, कोई हँसी नहीं कर रही हैं। आप यह बतलाओ कि उस निर्गुण का पिता कौन है? उसकी माता का क्या नाम है? उसकी पत्नी और दासियाँ कौन-कौन हैं? उस निर्गुण ब्रह्म का रंग कैसा है, उसकी वेश-भूषा कैसी है और उसकी किस रस में रुचि है? गोपियाँ उद्धव को चेतावनी देती हुई कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि सही बात बताने में जरा भी छल-कपट करोगे तो अपने किये का फल अवश्य पाओगे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के ऐसे प्रश्नों को सुनकर ज्ञानी उद्धव ठगे-से रह गये और उनका सारा ज्ञान-गर्व अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।
  • सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ -- तुलसीदास, रामचरितमानस में
भावार्थ:-सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।
  • जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
भावार्थ:-जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?
  • राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञान रूपी रात्रि हो तब तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल हो, भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं।)॥3॥
  • हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
भावार्थ: हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है।
  • पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥
भावार्थ : जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं- ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया॥
  • निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥
भावार्थ : अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया।
  • चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
भावार्थ:-जो मनुष्य आँख में अँगुली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।) ॥2॥
  • बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
भावार्थ:-विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं।
  • जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
भावार्थ : यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है।
  • रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥
भावार्थ : जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥
  • एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
भावार्थ : इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥
  • जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
भावार्थ : हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है॥
  • बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
भावार्थ : वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥
  • तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
भावार्थ : वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥
  • जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥
भावार्थ : जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं॥
  • कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
भावार्थ : (हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥
  • बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
भावार्थ : विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसार रूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं॥
  • राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
भावार्थ : हे पार्वती! वही परमात्मा श्री रामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं॥
  • ईश्वर हर व्यक्ति में एक निजी दरवाजे से प्रवेश करता है। -- राल्फ वाल्डो एमर्सन
  • ईश्वर की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह तो पूरी डिक्शनरी से भी बहुत बड़ा है। -- टेरी गुलेमेट्स
  • ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, इसीलिए तो वह हर जगह मौजूद है। -- यासुनारी कावाबात
  • मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। -- अग्नि पुराण
  • ईश्वर निराकार है, मगर उसके गुण-कर्म-स्वभाव अनन्त है। -- दयानन्द सरस्वती
  • प्रार्थना तब होती है जब आप परमात्मा से बात करते हैं, ध्यान तब होता है जब आप ईश्वर को सुनते हैं।
  • आप देखेंगे की भगवान भी मेहनती लोगों की ही मदद करता है। यह नियम स्पष्ट है। -- ए पी जे अब्दुल कलाम
  • मेरा काम सम्भव की देखभाल करना है, और असम्भव के साथ भगवान पर भरोसा करना है।
  • यदि परमेश्वर आपका साथी है, तो अपनी योजनाओं को बड़ा करें।
  • बड़ा ही खुबसूरत रिश्ता है, मेरा और मेरे प्रभु के बीच, ज्यादा मैं कभी मांगता नहीं और कम वो कभी देता नहीं।
  • ईश्वर को अपना वकील बनाने वाला, अपना मुकदमा मुफ्त में जीतता है।
  • ईश्वर एक वृत्त है जिसका केंद्र हर जगह है, लेकिन परिधि कहीं नहीं।
  • मौन प्रार्थनाएँ जल्दी पहुँचती है भगवान तक, क्योंकि वो शब्दों के बोझ से मुक्त होती है।
  • भगवान के लिए सबसे स्वीकार्य पूजा एक आभारी और हंसमुख दिल से आती है।
  • यदि आप सच की राह पर चल रहे हैं, तो याद रखिये की ईश्वर सदा आपके साथ है।
  • अपने बुरे समय में भगवान और समय पर विश्वास रखें, समय कोयले को भी हीरा बना देता है और भगवान रंक को भी राजा।
  • प्रार्थना शब्दों से नहीं हृदय से होनी चाहिए, क्योंकि ईश्वर उनकी भी सुनते है जो बोल नहीं सकते।
  • भगवान में भरोसा रखें, लेकिन अपनी तैयारी पूरी रखें।
  • याद रखिये प्रकृति से प्रेम करना ही ईश्वर से प्रेम करने के सामान है।
  • अगर भगवान एक दरवाजा बंद कर देता है, तो वह दूसरा खोल देता है।
  • कल्पना हमें ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार है और हम में से हर एक इसे अलग तरह से इस्तेमाल करता है। -- Brian Jacques
  • मुझे नहीं पता कि भगवान है या नहीं, लेकिन अगर वह नहीं है तो यह उसकी प्रतिष्ठा के लिए बेहतर होगा। -- Jules Renard

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