• प्रशस्तदेशसंभूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम्
युक्तमात्रं मनस्कान्तं गन्धवर्णरसान्वितम्
दोषध्नमग्लानिकरमविकारि विपर्यये
समीक्ष्य दत्तं काले च भेषजं पाद उच्यते ॥ -- सुश्रुतसंहिता
उत्तम देश में उत्पन्न, प्रशस्त दिन में उखाड़ी गई, युक्तप्रमाण (युक्त मात्रा में), मन को प्रिय, गन्ध वर्ण रस से युक्त, दोषों को नष्त करने वाली, ग्लानि न उत्पन्न करने वाली, विपरीत पड़ने पर भी स्वल्प विकार उत्पन्न करने वाली या विकार न करने वाली, देशकाल आदि की विवेचना करके रोगी को समय पर दी गई औषध गुणकारी होती है।
  • प्रसन्नता परमात्मा की दी हुई औषधि है, इसे व्यर्थ ना जाने दें।
  • हित चाहने वाला पराया भी अपना है, और अहित करने वाला अपना भी पराया है। रोग अपनी देह में पैदा होकर भी हानि पहुंचाता है और औषधि वन में पैदा होकर भी हमें लाभ पहुँचाती है।
  • मधुर वचन है औषधी कटुक वचन है तीर।
श्रवन मार्ग ह्वै संचरे शाले सकल शरीर॥ -- कबीरदास
  • मौन हमारे लिये सबसे श्रेष्ठ औषधि है।

इन्हें भी देखेंसंपादित करें