किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते है। -- श्यामसुन्दर दास (रूपक रहस्य)
हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (चिन्तामणि भाग-2)
जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। -- आचार्य शुक्ल (रस मीमांसा)
सर्वभूत को आत्मभूत करके अनुभव करना ही काव्य का चरम लक्ष्य है। -- आचार्य शुक्ल (काव्य में प्राकृतिक दर्शन)
जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
ये (घनानन्द) साक्षात् रस-मूर्ति और ब्रज भाषा के प्रधान स्तंभों में है। प्रेम की गूढ़ अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
इनका-सा (देव कवि सा) अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में से बङे ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
कामायनी में उन्होंने (प्रसाद ने) नर-जीवन के विकास में भिन्न-भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बङी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना द्वारा चित्रित करके मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
संगीत को काव्य और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
कविता का संबंध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
अनूठी से अनूठी उक्ति तभी काव्य हो सकती है, जबकि उसका संबंध कुछ दूर का ही सही हृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
यथार्थवाद की विशेषता में प्रधान है – लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात -- जयशंकर प्रसाद
यथार्थवाद में स्वभावतः दुःख ही प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है। -- जयशंकर प्रसाद
चीटीं से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनन्त आकाश, अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी पर कविता हो सकती है। -- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ रंजन ; 1920)
कविता की भाषा से मनोरंजन तो होता है, परन्तु वह जीवन-संग्राम के काम नहीं आता। -- सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’
सत्य अपनी एकता में असीम रहता है, तो सौन्दर्य अपनी अनेकता में अनंत। -- महादेवी वर्मा
राजनीति और साहित्य मात्र अभिव्यक्ति में भिन्न है, उनका मूल है आज का यथार्थ, उसके लक्ष्य, उसके अभिप्रेत, उसके संघर्ष। -- मुक्तिबोध
चरम व्यक्तिवाद ही ’प्रयोगवाद’ का केन्द्र बिन्दु है। -- डाॅ. नामवर सिंह
मैंने कला-पक्ष की अवहेलना न करते हुए भी भाव-पक्ष को अधिक मुख्यता दी है। -- बाबू गुलाब राय (अध्ययन और आस्वाद)
काव्य संसार के प्रति कवि की भाव-प्रधान मानसिक प्रतिक्रियाओं की कल्पना के ढांचे में ढली हुई, श्रेय की प्रेयरूपा प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है। -- बाबू गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन)
दमित प्रवृत्तियों के उदात्तीकरण द्वारा ही मनुष्य स्थूल पशुचेतना से ऊपर उठा और मानव में काव्यात्मक सौन्दर्य-चेतना तभी जगी, किसी दूसरे कारण से नहीं। -- देखा-परखा, इलाचन्द्र जोशी
छायावाद और ग्रामीण बोलियों के नये गीत एक ही रस-परिवार के है, सहोदर है। इन गीतों से प्रगतिवाद और प्रयोगवाद फीका लगने लगा है। दोनों बासी हो गये है। ताजगी की दृष्टि से नये गीत ही नयी कविता है। -- वृत्त और विकास, पं. शांतिप्रिय द्विवेदी
साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है और समझा है। -- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (साहित्य सहचर)
मैं कविता को जीवन तक पहुँचने की सबसे सीधी और सबसे छोटी राह मानता हूँ। यह मस्तिष्क नहीं हृदय की राह है। -- रामधारी सिंह दिनकर (अर्द्धनारीश्वर)
कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है। -- अज्ञेय (त्रिशंकु)
कला और विषय वस्तु दोनों ही समान रूप से साहित्य-रचना के लिए निर्णायक महत्त्व की नहीं है। निर्णायक भूमिका हमेशा विषय-वस्तु की ही होती है। -- रामविलास शर्मा (प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ)
शुक्ल जी का आदिकाल वास्तविक मध्यकाल है, हिन्दी जनपदों के इतिहास का ’सामंतकाल’ है। वीरगाथा काल ’रीतिकाल’ का प्रथम उत्थान है। पूर्व मध्यकाल (रीतिकाल) ’रीतिवाद’ का द्वितीय उत्थान है। -- रामविलास शर्मा (हिन्दी जाति की समस्या)
सौन्दर्य कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है। उसका निर्माण भी तो कलाकार की अपनी भावनाओं और धारणाओं के आधार पर हीे होता है। -- डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
’रस’ एक व्यापक शब्द है, ’वह’ विभावानुभाव व्याभिचारी संयुक्त स्थायी’-अर्थात् परिपाक अवस्था का ही वाचक नहीं है, वरन् उसमें काव्यगत संपूर्ण भाव-सम्पदा का अन्तर्भाव है। -- डाॅ. नगेन्द्र (रस सिद्धान्त)
सच्चा कलाकार सौन्दर्य की सृष्टि करने के लिए ही कला की साधना करता है – अपनी भावनाओं, मान्यताओं अथवा विचारों का प्रसार सच्चे कलाकार का उद्देश्य नहीं होता। -- डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
भक्ति-आन्दोलन एक जातीय और जनवादी आन्दोलन हैं। -- रामविलास शर्मा (भारत की भाषा समस्या)
कला की विषय वस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगेल का निरपेक्ष विचार। मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसके भाव, उसके विचार, उसका सौन्दर्यबोध कला की विषय वस्तु है। -- रामविलास शर्मा (आस्था और सौन्दर्य)
जीवन एक विस्मयकर विभूति है, और मानवीय संबंध और भी विस्मयकर। -- अज्ञेय (आत्मनेपद)
कविता तो कवि की आत्मा का आलोक है, उसके हृदय का रस है, जो बाहर की वस्तु का अवलम्ब लेकर फूट पङती है। -- रामधारी सिंह दिनकर (मिट्टी की ओर)
साहित्य वस्तुतः मनुष्य का वह उच्छलित आनन्द है जो उसके अंतर में अँटाये नहीं अट सका था। -- हजारी प्रसाद द्विवेदी (ज्ञान शिखा)
मनुष्य की सीमित बुद्धि के बाहर, मानव के चेतन तत्त्व से संबद्ध, ज्ञान की सीमा से परे कोई भी शक्ति है जिससे समस्त सृष्टि शासित है। -- भगवतीचरण वर्मा (साहित्य के सिद्धान्त तथा रूप)
सौन्दर्य को हम वस्तुगत गुणों वा रूपों का ऐसा सामंजस्य कह सकते है, जो हमारे भावों में साम्य उत्पन्न कर हमको प्रसन्नता प्रदान करे तथा हमको तन्मय कर ले। सौन्दर्य रस का वस्तुगत पक्ष है। -- बाबू गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन)
कला कलाकार के आनन्द की श्रेय और प्रेय तथा आदर्श को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है। -- बाबू गुलाब राय
नयी कविता में मुक्तिबोध की स्थिति वही है, जो छायावाद में निराला की थी। -- डाॅ. नामवर सिंह
मुक्तिबोध की कविता अदभुत संकेतों से भरी, जिज्ञासाओं से अस्थिर कमी दूर से ही शोर मचाती कभी कानों में चुपचाप राज की बातें कहते चलती है। -- शमशेर बहादुर सिंह
भावना, ज्ञान और कर्म जब एक सम पर मिलते हैं तभी युग प्रवर्तक साहित्यकार प्राप्त होता है। -- महादेवी वर्मा
साहित्य का उद्देश्य सार्वदेशिक और सार्वकालिक होना चाहिए। हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं। -- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कविता की भाषा चित्रात्मक होनी चाहिए। काव्य में शब्द और अर्थ का अभिन्न संबंध होता है तथा भावों की अभिव्यक्ति और भाषा सौष्ठव मुक्त छन्द में अधिक सुगमता से व्यक्त किया जा सकता है। -- सुमित्रानंदन पन्त
आदर्शवाद जहाँ आकाश है, उच्चता है वहीं यथार्थवाद का विषय पथरीली धरती है लघुता है। -- जयशंकर प्रसाद
यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, विषमताओं तथा क्रूरताओं का नग्न चित्रण होता है। -- प्रेमचन्द
रस ऐसी वस्ती है, जो अनुभवसिद्ध है, इसके मानने में प्राचीनों की कोई आवश्यकता नहीं, कवि अनुभव में आवे मानिए न आवे मानिए। -- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
स्थायी साहित्य जीवन की चिरन्तन समस्याओं का समाधान है। मनुष्य मात्र की मनोवृत्तियों, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं और उनके भावों, विचारों का यह अक्षय भण्डार है। -- श्यामसुन्दर दास
कवियों का यह काम है कि, वे जिस पात्र अथवा वस्तु का वर्णन करते है, उसका रस अपने अन्तःकरण में लेकर उसे ऐसा शब्द-स्वरूप देते हैं कि उन शब्दों को सुनने से वह रस सुनने वालों के हृदय में जागृत हो जाता है। -- महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ-रंजन)
प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
जगत् अव्यक्त की अभिव्यक्त है, काव्य उस अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति है। -- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
’छायावाद’ के भीतर माने जाने वाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेम-संबंध पंत जी का ही दिखाई पङता है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
वे (भारतेन्दु) सिद्ध वाणी के अत्यंत-सरस हृदय कवि थे। प्राचीन और नवीन का यही सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास )
अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधङक प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
इनकी (पद्माकर) की मधुर कल्पना ऐसी स्वाभावित और हाव-भावपूर्ण मूर्ति-विधान करती है कि पाठक मानो अनुभूति में मग्न हो जाता है। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। -- आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम और कृष्ण की सौन्दर्य-भावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर गये है, जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता। -- आचार्य शुक्ल (चिंतामणि-भाग-1)
हृदय की अनुभूति ही साहित्य में ’रस’ और ’भाव’ कहलाती है। -- आचार्य शुक्ल, चिंतामणि भाग-2
शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषम-विभाग काव्य-समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत करके संसार की नयी पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है। -- आचार्य शुक्ल (काव्य में अभिव्यंजनावाद)
पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ ।
देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ ॥ -- सरहपा
भावार्थ- पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध ( ब्रह्म ) को नहीं जानते ।
जाहि मन पवन न संचरई ।
रवि ससि नहीं पवेस । -- सरहपा
भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु ।
लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु ॥
भावार्थ- अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया ; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं ( सहेलियों ) के सम्मुख लज्जित होती । ) -- हेमचंद्र
बालचंद विज्जवि भाषा ।
दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा ॥
भावार्थ- जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा ; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते ) -- विद्यापति
षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया ।
भावार्थ- मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है ) -- चंदबरदाई
मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था ' ( संस्कृत साहित्य के संबंध में ) -- अमीर खुसरो
बड़ी कठिन है डगर पनघट की ( कव्वाली ) -- अमीर खुसरो
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके ( पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली ) -- अमीर खुसरो
एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धरा ।
चारो ओर वह थाल फिरे , मोती उससे एक न गिरे ( पहेली ) -- अमीर खुसरो
नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है ।
फंसत अमावस गोरी के फंदा ।
हे सखि साजन , ना सखि , चंदा ( मुकरी / कहमुकरनी ) -- अमीर खुसरो
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय ।
आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय ॥ -- अमीर खुसरो ( ढकोसला )
जेहाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ ।
के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।
अर्थ-प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह , नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते ( फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -- अमीर खुसरो
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस / चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ( अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर ) -- अमीर खुसरो
खुसरो दरिया प्रेम का , उल्टी वाकी धार ।
मनमा का जो उबरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार । -- अमीर खुसरो
खुसरो पाती प्रेम की , बिरला बांचे कोय ।
वेद करआन पोथी पढ़े , बिना प्रेम का होय । -- अमीर खुसरो
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग ।
तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग । -- अमीर खुसरो
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब ( अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ , हिन्दवी में जवाब देता हूँ । ) -- अमीर खुसरो
बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार / बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार । -- जगनिक
जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे ।
भावार्थ- जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है । -- गोरखनाथ
काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे ( गीत ) -- अमीर खुसरो
प्राइव मुणिहै वि भंतडी ते मणिअडा गणंति।
अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति ॥
भावार्थ- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है , वे मनका गिनते हैं । अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम ।
मइँ विन्निवि विन्नासिया निद्द न एम्ब न तेम्ब ॥
भावार्थ- प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में ( सामने न रहने पर ) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों , न त्यों । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु ।
तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु ॥
भावार्थ- जो अपना गुण छिपाए , दूसरे का प्रकट करे , कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ । -- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
माधव हम परिनाम निरासा । -- विद्यापति
कनक कदलिं पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने । -- विद्यापति
अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया ।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया ॥ -- गोरखनाथ
जांति-पांति पूछ नहीं कोई , हरि को भजै सो हरि का होई । -- रामानंद
साईं के सब जीव है कीरी कुंजर दोय ।
सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय । -- कबीरदास
मैं राम का कुता मोतिया मेरा नाम । -- कबीरदास
जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का । -- आचार्य राम चन्द्र शुक्ल
गोपियों का वियोग-वर्णन , वर्णन के लिए ही है उसमें रिस्थितियों का अनुरोध नहीं है । राधा या गोपियों के विरह वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक जन में बैठी सीता के विरह में है । ---आचार्य रामचंद्र शुक्ल
काग के भाग को का कहिये , हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी । -- रसखान
मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन । -- रसखान
' जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का । वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र हैं । -- आचार्य शुक्ल
मेरी न जात पाँत , न चहौ काहू की जात-पाँत । ---तुलसीदास
सुन रे मानुष भाई ,
सबार ऊपर मानुष सत्य ताहार ऊपर किछ नाई । -- चण्डी दास
बड़ा भाग मानुष तन पावा ,
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा । -- तुलसीदास ।
हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है । यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं । ---रामचन्द्र शुक्ल
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के साँचे । -- नागार्जुन
बापू के भी ताऊ निकले,
तीनों बंदर बापू के,
सरल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनों बंदर बापू के । -- नागाजुन
काटो-काटो-काटो करवीर,
साइत और कुसाइत क्या है ?
मारो- मारो-मारो-हंसिया,
हिंसा और अहिंसा क्या है ?
जीवन से बढ़ हिंसा क्या है । -- केदार नाथ अग्रवाल
भारत माता ग्रामवासिनी । -- सुमित्रानंदन पंत
एक बीते के बराबर यह हरा ठिंगना चना ,
बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल,
सजकर खड़ा है । -- केदार नाथ अग्रवाल
हवा हूँ , हवा हूँ मैं वसंती हवा हूँ । -- केदार नाथ अग्रवाल
तेज धार का कर्मठ पानी ,
चट्टानों के ऊपर चढ़कर ,
मार रहा है चूंसे कसकर तोड़ रहा है तट चट्टानी । -- केदार नाथ अग्रवाल
मझे जगत जीवन का प्रेमी लाट बना रहा है प्यार तुम्हारा । -- त्रिलोचन
खेत हमारे , भूमि हमारी सारा देश हमारा है बाजार
इसलिए तो हमको इसका म चप्पा-चप्पा प्यारा है । -- नागार्जुन
झुका यूनियन जैक,
तिरंगा फिर ऊँचा लहरायाला ,
बांध तोड़ कर देखो कैसे जन समूह लहराया । -- राम विलास शर्मा
कन्हाई ने प्यार किया ,
कितनी गोपियों को कितनी बार ,
पर उड़ेलते रहे अपना सदा एक रूप पर ,
जिसे कभी पाया नहीं ।
जो किसी रूप में समाया नहीं ,
का यदि किसी प्रेयसी में उसे पा लिया होता , तो फिर दूसरे को प्यार क्यों करता । -- अज्ञेय
किन्तु हम है द्वीप हम धारा नहीं हैं ।
स्थिर समर्पण है हमारा ।
द्वीप हैं हम । -- अजेय
हम तो ' सारा-का-सारा ' लेंगे जीवन ' कम-से-कम ' वाली बात न हमसे कहिए । -- रघुवीर सहाय
मौन भी अभिव्यंजना है . . . जितना तुम्हारा सच है ,
उतना ही कहो मिति तम व्याप नहीं सकते महामारी तुममें जो व्यापा है उसे ही निबाहो । -- अज्ञेय
जी हाँ , हुजूर , मैं गीत बेचता हूँ । म पनि तिल मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ मैं किसिम-किसिम के मालिक गीत बेचता हूँ । -- भवानी प्रसाद मिश्र
हम सब बौने हैं ,
मन से , मस्तिष्क से गिर भावना से , चेतना से भी बुद्धि से
विवेक से भी क्योकि हम जन हाफोर-साधारण हैं हम नहीं विशिष्ट । -- गिरजा कुमार माथुर
मैं प्रस्तुत हूँ .-एक यह क्षण भी कहीं न खो जाय । अभिमान नाम का , पद का भी तो होता है । -- कीर्ति चौधरी
कुछ होगा , कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा ज ल न टूटे , न टूटे तिलिस्म सत्ता काम मेरे अंदर एक कायर टूटेगा , टूट् । -- रघुवीर सहाय
जो कुछ है , उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए जो मैं हो नहीं सकता । -- मुक्तिबोध
भागता मैं दम छोड़ ,
घूम गया कयी मोड । -- मुक्तिबोध
दुखों के दागों को तमगा सा पहना। -- मुक्तिबोध
कहीं आग लग गयी ,
कहीं गोली चल गयी । -- मुक्तिबोध
जिंदगी , दो उंगलियों में दबी सस्ती सिगरेट के जलते हुए टुकड़े की तरह है । जिसे कुछ लम्हों में पीकर गली में फेंक दूंगा । -- नरेश मेहता
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेक मतदार इतिहासों की सामूहिक गतिमा कामही सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने सच्चाई टूटे हुए पहिये का आश्रय ले । -- धर्मवीर भारती
इस कौम की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है। -- हरिशंकर परसाई
न्याय को अंधा कहा गया है। मैं समझता हूँ कि न्याय अंधा नहीं काणा है, वह एक ही तरफ देख पाता है। -- हरिशंकर परसाई