भक्तिकाल, हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण कालखण्ड है। इसके विषय में अनेकानेक साहित्यकारों ने अपने विचार रखे हैं।

रामचन्द्र शुक्ल के कथन

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कबीर बारे में

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  • कबीर ने अपनी झाड़-फटकर के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।
  • ज्ञानमार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधु-संन्यासियों से ग्रहण की जिनमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने प्रेम तत्वों का मिश्रण किया।
  • कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुंह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य–चमत्कार पूर्ण बातें निकलती थी।
  • कबीर तथा अन्य निर्गुण पंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिकता भक्ति और ज्ञान का योग तो हुआ है पर कर्म की दिशा वही रही जो नाथ पंथियों के यहाँ थी।
  • कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली है।

तुलसीदास बारे में

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  • जिस प्रकार रामचरितमानस का गान करने वाले भक्त कवियों में तुलसीदास का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का।वास्तव में ये हिन्दी काव्यंगगन के सूर्य और चंद्र हैं।
  • रामचरितमानस में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।
  • रामचरितमानस को ‘लोगों के हृदय का हार’ कहा है।
  • तुलसीदास जी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मन्दिर में पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे है।
  • गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।
  • इनकी भक्ति रसभरी वाणी जैसे मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं। (तुलसीदास के संबंध में )
  • तुलसीदास जी अपने ही तक दृष्टि रखने वाले भक्त न थे बल्कि संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखने वाले भक्त थे।
  • तुलसीदास की रचना विधि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्व़तोमुखी प्रतिभा के बल पर सबके सौंदर्य की परकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए।
  • हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज एवं अवधी दोनों भाषाओं का समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वहीं माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते थे। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पद्मावत में मिलती है, वही जानकी मंगल,पार्वती मंगल,बरवै रामायण और रामलला नहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं है कि न तो सूर का अवधि पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।
  • प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है।
  • उन्होंने रचनानैपुण्य का भद्दा प्रदर्शन कहीं नहीं किया है और न वे शब्द चमत्कार आदि से खिलवाड़ों में फंसे हैं। ( तुलसीदास के बारे मे )
  • दोहावली के कुछ दोहे के अतिरिक्त और सर्वत्र भाषा का प्रयोग उन्होंने भावों और विचारों को स्पष्ट रूप से रखने के लिए किया है, कारीगरी दिखाने के लिये नहीं।उनकी – सी भाषा की सफाई और किसी कवि में नही मिलती। (तुलसीदास की भाषा के संबंध में )
  • हम नि:संकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है। ( तुलसीदास के बारे मे )
  • गोस्वामीजी खानपान का विचार रखने वाले स्मार्त्त वैष्णव थे।
  • प्रंबधकार कवि की भावुता का सबसे अधिक पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान को अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं। ( तुलसीदास के बारे मे )

सूरदास बारे में

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  • भ्रमरगीत सूर साहित्य का मुकुटमणि है। यदि वात्सल्य और श्रृंगार के पदों को निकाल भी दिया जाय तो हिन्दी साहित्य में सूर का नाम अमर रखने के लिए भ्रमरगीत ही काफी है।
  • वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया उतना किसी और ने नहीं, इन क्षेत्रों का कोना-कोना झाँक आए हैं।
  • श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।
  • सूरदास की रचना में संस्कृत की कोमलकांत पदावली और अनुप्रासों की छटा नहीं है जो तुलसी की रचना में दिखाई पड़ती है।
  • सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।
  • सूर ही वात्सल्य है, वात्सल्य ही सूर है
  • सूरसागर में कृष्ण जन्म से लेकर श्री कृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गाई गई है । भिन्न – भिन्न लीलाओं के प्रसंग को लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यंत मधुर और मनोहर पदों की झड़ी सी बांधी दी है।
  • यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पडती है। (सूरसागर के बारे में )
  • तुलसी के स्थान पर सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं है कि उसमें जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं का समावेश हो जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया है उसका कोई कोना अछूता न छूटा।

जायसी के बारे में

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  • ये काने और देखने में कुरूप थे। कहते हैं कि शेरशाह ने इनके रूप को देखकर हँसा था । इस पर यह बोले’मोहिका हँसेसि कि कोहरहि ? (जायसी के संबंध में )
  • कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था जबकि प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी हुई थी जो जायसी द्वारा पूरी की गई।
  • प्रेमगाथा की परम्परा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है।
  • जायसी बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय में बड़े ही सिद्ध और पहुंचे हुए फकीर माने जाते थे, पर कबीरदास के समान अपना एक निराला पंथ निकालने का हौसला उन्होंने कभी न किया। जिस मिल्लत या समाज में उनका जन्म हुआ, उसके प्रति अपने विशेष कर्त्तव्यों के पालन के साथ- साथ वे सामान्य मनुष्य – धर्म के सच्चे अनुयायी थे।

नूर मोहम्मद के बारे में

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  • सूफ़ी आख्यान काव्यों की अखंडित परम्परा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है। (नूर मुहम्मद कृत अनुराग बांसुरी के बारे में)
  • नूर मोहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान ओर सब सूफी कवियों से अधिक था।
  • नूर मुहम्मद को हिन्दी  भाषा में कविता करने के कारण जगह-जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे।

अन्य कवियों के बारे में

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  • कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन,देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव ‘निर्गुण’ संतमत की ओर हुआ। (धर्मदास के संबंध में )
  • इनका डीलडौल बहुत अच्छा, रंग गोरा और रूप बहुत सुंदर था। इनका स्वभाव अत्यंत कोमल और मृदुल था। ये बाल ब्रह्मचारी थे और स्त्री की चर्चा से सदा दूर रहते थे । निर्गुणपंथियों में यही एक ऐसे व्यक्ति हुए थे,जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी और जो काव्यकला की रीति आदि से अच्छी तरह परिचित थे। ( सुंदरदास के संबंध में )
  • प्रेममार्ग का एक ऐसा प्रवीण और धीरज पथिक तथा जबादानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ है। (घनानंद के संबंध में )
  • इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत प्रेम का स्वरूप दिखाया है।  (कुतबन कृत मृगावती के बारे में )
  • इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है। (सूफी मत के अनुयायी सूरदास पंजाबी के संबंध में )
  • यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए।  (शेख नबी के बारे में )
  • जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुन्दर-सुन्दर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्लित किया।  (श्री बल्लभाचार्य जी के संबंध में )
  • यह बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे।  (रसखान के बारे में )

डॉ. नगेन्द्र के कथन

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कबीरदास के बारे में

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  • भारतीय धर्म–साधना के इतिहास में कबीर दास ऐसी महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि है, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घकाल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जनजीवन का नायकत्व किया।
  • उन्होंने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके कहीं पर कुछ नहीं लिखा और न उन्हें पिंगल अलंकारों का ज्ञान था तथापि उनमें काव्यानुभूति इतनी प्रबल एवं उत्कृष्ट थी कि वे सरलता के साथ महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं।
  • वे जन्म से विद्रोही,प्रकृति से समाज – सुधारक, कारणों से प्रेरित हो कर धर्म – सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और आवश्यकतानुसार कवि थे।
  • कबीर की अभिव्यंजनाशैली बड़ी शक्तिशाली है।
  • रहस्यवादी संत और धर्मगुरु होने के साथ-साथ वे भावप्रवण कवि भी थे।

जायसी की रचना ‘पद्मावत’ के बारे में

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  • ‘पद्मावत’ रोमांचक शैली का कथा- काव्य है।
  • ‘पद्मावत’ को रूपक – काव्य भी कहा जाता है।
  • कवितत्व एवं भावव्यंजना की दृष्टि से ‘पद्मावत’ उच्चकोटि का महाकाव्य है।

तुलसीदास के बारे में

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  • गोस्वामी जी की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता भाव वैविध्य, शैली वैविध्य और उक्ति वैविध्य
  • जिस समय समसामयिक निर्गुण भक्त संसार की असारता का आख्यान कर रहे थे और कृष्णभक्त कवि अपने आराध्य के मधुर रूप का आलंबन ग्रहण कर जीवन और जगत के व्याप्त नैराश्य को दूर करने का प्रयास कर रहे थे, उस समय गोस्वामी जी ने मर्यादापुरुषोत्तम राम के शील,शक्ति और सौंदर्य से संवलित अद्भुत रूप का गुणगान करते हुए लोकमंगल की साधनावस्था को पथ को प्रशस्त किया।

सूरदास के बारे में

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  • श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आने पर उन्हीं की प्रेरणा से सूरदास ने दास्य भाव और विनय के पद लिखना बंद कर दिया था तथा सख्य, वात्सल्य माधुर्य भाव पद रचना करने लगे।
  • बाल- भाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेम – भावों के चित्रण में सूर अपना सानी नही रखते।बालक की विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीड़ास्थल मातृहृदय की अभिलाषाओं,उत्कंठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरते हैं।
  • सूर की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय भक्ति है।
  • सूरदास ने प्रेम और विरह के द्वारा सगुण मार्ग से कृष्ण को साध्य माना है।

नंददास के बारे में

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  • लौकिक रागात्मक संबंधों से दूर हट कर वे सच्चे कृष्णभक्त हो गए। ( नंददास के बारे में )
  • मधुर और परिचित शब्दों का चयन कवि की विशेषताएं है।नंददास को ‘जड़िया’ कहा जाता है, जिसका कारण उनका सुंदर एवं उपयुक्त शब्द चयन ही है।

अन्य कवियों के बारे में

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  • सुंदर तत्सम ललित पदावली से संयुक्त पदों को पढ़ कर कोई यह नहीं कह सकता है कि इस भक्त – कवि की मातृभाषा ब्रज के अतिरिक्त कोई दूसरा हो ( कृष्णादास के बारे में )
  • सत्रहवीं शती के मध्य संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक प्रेमाख्यान की रचना करने का श्रेय जान कवि है।
  • हरिदास निरंजनी संप्रदाय (प्रर्वतक – हरिदास निरंजनी) में को नाथ पंथ एवं संत मत की मध्यवर्ती कड़ी कहा जा सकता है।
  • लालपंथ (प्रर्वतक – लालदास) में ‘राम’ ही श्रेष्ठ शक्ति है, वही आराध्य, वही ब्रह्म है।
  • सुंदरदास की रचनाओं में भक्ति,योग – साधना और नीति को प्रधान स्थान प्राप्त हुआ है । श्रृंगार रस की रचनाओं के वे कट्टर विरोधी थे।
  • शैली की दृष्टि से यह काव्य हिंदी प्रेमाख्यान – परंपरा का प्रथम प्रतिनिधि काव्य कहा जा सकता है। (हंसावली के संबंध में )

हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथन

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कबीर के बारे में

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  • भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।
  • हिंदी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेकर उत्पन्न नहीं हुआ।
  • पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर सबसे शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक व्यक्ति थे।
  • संयोग से वे ऐसे युग – संधि के समय उत्पन्न हुए थे, जिसे हम विविध धर्म – साधनाओं और मनोभावनाओं का चौराहा कह सकते हैं।
  • वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। वे हिंदू होकर भी हिंदू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ)नहीं थे।वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। वे योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से ही सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे। वे भगवान के नृसिंहावतार की मानो प्रतिमूर्ति थे।
  • उन्हें सौभाग्यवश सुयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैं, वे प्रायः सभी उनके लिए बन्द थे।
  • कबीर में एक प्रकार घर फूंक मस्ती और पक्कड़ाना लापरवाही के भाव मिलते हैं। उनमें अपने – आपके ऊपर अखंड विश्वास था । उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान को ,अपने गुरू को अपनी साधना को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा।
  • कबीर अपने युग के सबसे बड़े क्रांतदर्शी थे।
  • कबीर जब पंडित या शेख पर आक्रमण करने को उद्यत होते है तो उतने सावधान नहीं होते जितने अवधूत या योगी पर आक्रमण करते समय दिखते हैं।
  • हमने देखा है कि ब्रह्माचार पर आक्रमण करने वाले संतों और योगियों की कमी नहीं है,पर इस कदर सहज और सरल सरल ढंग से चकनाचूर करने वाली भाषा कबीर के पहले बहुत कम दिखाई दी है।
  • व्यंग्य वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और भी कहने वाले को जवाब देना अपने की ओर भी उपहासस्पद् बना लेना हो , कबीर ऐसे ही व्यंग्य कर्त्ता थे।
  • ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त – मौला,स्वभाव में फक्कड़,आदत से अक्खड़,भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त,भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य,कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे इसलिए उनकी उक्तियॉ बंधने वाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।

सूरदास के बारे में

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  • वात्सल्य भाव के काव्य के लिए सूरदास की बड़ी ख्याति है।
  • सूरदास ने यदि राधिका के प्रेम को लेकर गीतिकाव्य की रचना न करके प्रबंध काव्य की रचना की होती तो आज असफल हुए होते हैं।
  • गीतिकाव्यात्मक मनोरागों पर आधारित विशाल महाकाव्य ही सूरसागर है।
  • प्रेम के इस स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया।
  • सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे – पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपको की वर्षा होने लगती है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है।वह अपने को भूल जाता है।

नंददास के बारे में

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  • सूरदास की गोपियों में जिस प्रकार का अशिक्षित पटुत्व और सारल्यगर्भ माधुर्य पाया जाता है, वैसा नंददास की गोपियों में नहीं पाया जाता। भ्रमरगीत में उद्धव के तर्कों को सुनकर वे शिथिलवाक् होकर परास्त नहीं हो जाती बल्कि आगे बढ़कर उत्तर देती है और तर्क को तर्क से काटने का प्रयत्न करती है। (नंददास के बारे में )
  • निर्गुण भाव के प्रत्याख्यान सूरदास ने भी कराया है और नन्ददास ने भी, पर सूरदास का एकमात्र अस्त्र प्रेमातिरेक है जबकि नन्ददास का सबसे अस्त्र है युक्ति और तर्क, फिर भी नन्ददास की रचनाओं में अपना मोहक सौंदर्य है। ( नन्ददास के बारे में )

मीरा के बारे में

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  • माधुर्य भाव में अन्यान्य भक्त कवियों की भाँति मीरा का प्रेम निवेदन है और विरह व्याकुलता अभिमानाश्रित और अध्यंतरित नही है बल्कि सहज और साक्षात् संबंधित है। (मीरा के बारे में )
  • वह सहृदय को स्पंदित और चालित करती है और अपने रग में रंग डालती है। (मीरा के बारे में )

रहीम के बारे में

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  • निस्संदेह इस कवि का हृदय मानवीय रस से परिपूर्ण और अनासक्त तथा अनाविल सौंदर्य दृष्टि से समृद्ध था। (रहीम के बारे में )
  • जीवन के अनेक घात प्रतिघात के भीतर से भी राजकीय षड्यंत्रों के चपेट में बार-बार आते रहने के बाद भी और हर प्रकार के उतार-चढ़ाव में उठते – गिरते रहने के बाद भी जिस कवि के हृदय का मानवीय रस निःशेष नही हुआ उसके हृदय की अद्भुत सरसता का अनुमान सहज किया जा सकता है। (रहीम के बारे में )

तुलसीदास के बारे में

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  • तुलसीदास असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे।
  • वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर उत्पन्न हुए थे।
  • भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।
  • तुलसी के काव्य की सफलता का एक और रहस्य उनकी अपूर्व समन्वय शक्ति में है।
  • लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके।

अन्य कवियों के बारे में

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  • भगवान ने उन्हें रूप देने की बड़ी कंजूसी की थी किंतु शुद्ध निर्मल प्रेमपरायण हृदय देने में बड़ी उदारता से कम लिया था। (जायसी के बारे में )
  • जायसी को रहस्यवादी कवि कहा जाता है।
  • कबीर के पूर्ववर्ती सिद्ध और योगी लोगों की आक्रमणात्मक उक्तियों में एक प्रकार की ‘हीन भावना की ग्रंथि’ या ‘इनफीरियारिटी कम्पलेक्स’ पाया जाता है। वे मानो लोमड़ी के खट्टे अंगूर की प्रतिध्वनि है, मानो चिलम न पा सकने वालों की आक्रोश है । उनमें तर्क है पर लापरवाही नहीं है, आक्रोश है पर मस्ती नहीं है, तीव्रता है पर मृदुता नहीं। (आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार)
  • जिन भजनों में मधुर भाव बोलता दिखता हो उनके लेखक को रहस्र सुख के अधिकारी कहना ही उचित है। (सूरदास मनमोहन के संबंध में आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन )

डॉ. बच्चन सिंह के कथन

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कबीर बारे में

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  • हिंदी प्रदेश में कबीर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने संस्कृत को कूपजल और भाखा को बहता नीर कहा।
  • हिंदी भक्ति काव्य का प्रथम क्रांतिकारी पुरस्कर्ता।
  • कबीर के व्यक्तित्व में वह ताकत थी जिससे सामंती व्यवस्था की इन सरमायादारों की मूर्ति तोड़ने में वे एक सीमा तक सफल हुए। लेकिन इसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी।
  • जनता में ऐसे शिष्ट और शिक्षित लोग भी मौजूद हैं जिनका कबीरदास कुछ नहीं बिगाड़ सकते। किन्तु बाबा तुलसीदास ऐसा प्रकाण्ड पंडित हो श्रेष्ठ कवि उनसे प्रभावित था। बाबा में कबीर के प्रति जो गुस्सा, झल्लाहट और खीज पैदा होती रहती थी वह देखने ही लायक है।
  • संत कवियों में कबीर के बाद के कवि वैसे दिखाई ही पड़ते हैं जैसे चंद्रोदय के बाद नक्षत्रमालिकाएँ ।

तुलसीदास बारे में

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  • तुलसी बड़े कवि है, उनका सौंदर्यबोध पारंपरिक और आदर्शवादी है। कबीर का सौंदर्यबोध अपारंपरिक और यथार्थवादी है।
  • तुलसीदास ने जोखिम उठाकर भी संस्कृत को छोड़कर अवधी भाषा में लिखना आरंभ किया।
  • रामभक्ति काव्य में तुलसी के बाहर जो कुछ है वह निस्तेज है,निष्प्रभ है।

रैदास बारे में

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  • कबीर में ओज, अक्खड़ता और प्रखरता थी तो रैदास में शांति, संयम और विनम्रता।
  • कबीर की विचारधारा के केंद्र में हिंदूओं – मुसलमानों का शोषित – प्रताड़ित वर्ग था तो रैदास के विचार केंद्र में चमारों और सर्वण हिंदुओं का भेदभाव।

नानक बारे में

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  • नानकदेव अकेले संत हैं जिन्होंने मुसलमान राजाओं- नवाबों का स्पष्ट विरोध किया।
  • नानक पहले संत है जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध आवाज उठाई।

सुंदरदास बारे में

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  • सुंदरदास संत होने के साथ-साथ पढ़े – लिखे, भाषा तथा पिंगल की बारिकियों के अच्छे जानकार थे।
  • संत – कवियों में सुंदरदास एकमात्र कवि हैं,जिन्हें पारंपरिक ढंग से शिक्षा मिली थी।
  • इनकी कविता में तत्ववाद तो वही है जो कबीर और दादू का है, पर संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन के कारण उसमें सुथरापन आ गया है। (सुंदरदास के बारे में )

जायसी बारे में

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  • इनके अनाकर्षण चेहरे को देखकर लोग हँसते थे, किंतु कविता सुनकर रोते थे। (जेइ मुख देखा तेइ हँसा सुनि तेहि आयउ आँसु) (जायसी के संबंध में )
  • जायसी को अवधि ‘अवधी की अरघान’ है।
  • जायसी का जो भी कुछ पढ़िये,अवधि की रस – गंध जरूर मिलेगी।
  • जायसी की भाषा ठेठ अवधी है तो तुलसी की संस्कृतनिष्ट। यह अंतर दोनों विषय वस्तु में भी है। एक में लोककथा है इसलिए लोकभाषा, दूसरे में क्लासिकल कथा है इसलिए संस्कृतनिष्ठ भाषा।
  • सूफी काव्य में एक ही कवि है जायसी,शेष लकीर के फकीर हैं।

सूरदास बारे में

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  • सूर के पद इतनी परिष्कृत और अनुशासनबध्द हैं कि वह ‘किसी चली आती हुई गीत – काव्य – परंपरा का – चाहे वह मौखिक ही हो – पूर्ण विकास – सा प्रतीत’ होते हैं।
  • सूरदास की प्रतिभा का उत्कर्ष सूरदास के दसवें स्कंध में दिखाई पड़ता है। इसमें कृष्ण के बाल और यौवन की लीलाएं वर्णित हैं।
  • इस बाललीला में स्वयं सूरदास का व्यक्तिगत रूप से सम्मिलित होना एक आधुनिक नाटकीय प्रविधि की तरह मालूम पड़ता है। इस प्रविधि में दर्शक स्वयं नाटक का एक पात्र बन जाता है। नाटक का रंगमंच तो नंद का घर है। उनका इस नाटक में शामिल ना वैसा ही मालूम पड़ता है, जैसा नाटक की प्रेक्षकों में से किसी दर्शक का उठकर कुछ कहते हुए मंच की ओर दौड़ पड़ना।
  • शुक्ल जी ने इसे (गोपी – कृष्ण और राधा- कृष्ण के प्रेम को) ‘जीवनोत्सव’ कहा है और यदि कालिदास को कहना होता तो वह इसे असमाप्त प्रेमोत्सव कहते।
  • जहां उद्धव संबोधित है वहां गोपियों उद्धव से सीधे शास्त्रास्त्र करती है। जहां भ्रमर को संबोधित किया है वहां पर व्यंग्योक्तियों की बाणवर्षा देखने ही लायक है।
  • सूरसागर समाप्त होकर भी असमाप्त रहता है।

नन्ददास बारे में

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  • सूर का भ्रमरगीत मुक्तकाव्य है तो नंद का प्रबंधात्मक। सूर में लोक का रंग है तो नंददास में शास्त्र का। सूरदास के भ्रमरगीत में गोपी – उद्धव के संवाद की स्थितियाँ कम हैं जबकि नंद के भ्रमरगीत में गोपियों – उद्धव संवाद का शास्त्रार्थ होता है – कथोपकथन के रूप में।सूर की गोपियाँ सरल- सहज है और नन्ददास की पंडित। सूर की भाषा ठेठ ब्रजी है और नन्ददास की संस्कृतनिष्ठ ब्रजी।
  • शब्दों के प्रति सजग होने का नन्ददास को ‘जड़िया’ कहा जाता है।

रसखान बारे में

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  • रसखान के ने कृष्णभक्ति काव्य की पद – परंपरा को छोड़कर कवित्त – सवैयों को मार्ग अपनाया। तुलसीदास उनके समसामयिक थे। उन्होंने रामकाव्य के लिए तो कवित्त – सवैयों को अपनाया पर कृष्णभक्ति के लिए पदों का ही प्रयोग किया।
  • रसखान पहले कवि हैं जिन्होंने कवित्त – सवैयों में कृष्ण का गुणानुवाद किया।
  • सूर और तुलसी में दरबारी कायदे दिखाई पड़ते हैं, पर रसखान उनसे मुक्त हैं।
  • ब्रज की धरती,पशु – पक्षी, वन – बाग आदि के प्रति रसखान जैसा प्रेम सूर के अतिरिक्त किसी और में नहीं मिलता।

तुलसीदास बारे में

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  • कबीर का भक्ति आंदोलन विद्रोहमूलक (प्रोटेस्टेंट) है तो गोस्वामीजी का प्रतिरोधात्मक (रेजिस्टेंट)।
  • आधुनिक शब्दावली में हनुमान बाहुक को मृत्यु–पीड़ा की चीख कहा जायेगा।
  • अवधी और ब्रजभाषा पर तुलसीदासजी का पूर्ण स्वामित्व है, पर उनकी भाषा ने जायसी की ठेठ अवधी है और न सूर की ठेठ ब्रजी।
  • रूपकों के बादशाह हैं गोस्वामीजी

अग्रदास बारे में

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  • युगल प्रियाजी ने अग्रदास को सीता की प्रिय सखी चंद्रकला का अवतार कहते हैं।
  • रसिक संप्रदाय (प्रर्वतक - अग्रदास) में अग्रअली कहा जाता है।
  • नाभादास ने अग्रदास को बाग–बगीचों का प्रेमी कहा है।

अन्य विद्वानों के कथन

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तुलसी के बारे में

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  • तुलसी को मुगल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना। (स्मिथ का कथन )
  • तुलसीदास जी अपने युग में भारत वर्ष के सबसे महान व्यक्ति थे। अकबर से भी बढ़कर इस बात में की करोड़ों नर – नारियों के हृदय पर प्राप्त हुई की हुई कवि की विजय सम्राट की एक या समस्त विजयों की उपेक्षा असंख्यगुनी अधिक चिरस्थायी और महत्वपूर्ण थी। (स्मिथ का कथन )
  • महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़ेलोकनायक तुलसी थे। (जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार)
  • आधुनिक काल में तुलसीदास जी के समान दूसरा ग्रंथ का नहीं हुआ।(जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार)
  • तुलसी कलिकाल के वाल्मीकि हैं। (नाभादास का कथन )
  • रामचरितमानस की कोई चौपाई भले ही बिना उपमा की मिल जाय किन्तु उसका कोई पृष्ठ कठिनाई से ऐसा मिलेगा। जिसमें किसी सुन्दर उपमा का प्रयोग न हो। (अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ के अनुसार)
  • कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।(अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ के अनुसार)

कबीर के बारे में

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  • जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे सुप्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अंतःकरणों से निकल कर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्तियुग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग था। (श्यामसुन्दर दास का कथन )
  • कबीर में जैसे सामाजिक विद्रोह का तीखापन और प्रणयानुभूति की कोमलता एक साथ मिलती है, कुछ वैसा ही रचाव मुक्तिबोध में है। (रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन )
  • ग्रंथों में (भवतारण ग्रंथ) तो कबीर को सत्पुरुष का प्रतिरूप मानते हुए उन्हें सब युगों में वर्तमान कहा गया है।(डॉ.रामकुमार वर्मा के अनुसार)
  • कबीर स्वाधीन विचार के व्यक्ति थे।(डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार)
  • मिश्रबंधुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ में कबीर की रचनाओं की संख्या 75 मानी है।
  • कबीर का जीवन काल उन्हें रामानंद, सिकंदर लोदी, पीपा, नानक आदि के समकालीन बना देता है। (डॉ. सरनाम सिह शर्मा के अनुसार)

सूरदास के बारे में

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  • सूरदास की कविता में विश्वव्यापी राग सुनते हैं। वह राग मनुष्य के हृदय का सूक्ष्म उदगार है। (रामकुमार वर्मा का कथन)
  • सूरदास की मृत्यु पर शोकविह्वल विट्ठलनाथ ने कहा था कि - पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना हो सो लेउ।

 

अन्य कवियों के बारे में

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  • रसखान आदि की भक्ति रीझकर भारतेन्दु ने लिखा था- "इन मुस्लिमन हरिजन पर कोटिन हिन्दुन ने वारिए"।
  • मेरी जानकारी में बिहारी जैसी रचनाएँ यूरोप की किसी भी भाषा में नहीं पाई जाती। (जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार)