सिद्धि
सिद्धि संस्कृत का शब्द है। इसे परिपूर्णता, उपलब्धि, दक्षता, ज्ञान, योग्यता, विद्या आदि का समानार्थी कहा जा सकता है। आठ सिद्धियाँ मानी गयी हैं- (१) अणिमा - अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। (२) महिमा - शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। (३) गरिमा - शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। (४) लघिमा - शरीर को भार रहित करने की क्षमता। (५) प्राप्ति - बिना रोक टोक के किसी भी स्थान को जाने की क्षमता। (६) प्राकाम्य - अपनी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने की क्षमता। (७) ईशित्व - प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। (८) वशित्व - प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता।
उक्तियां
सम्पादन- सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि ।
- विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥
- हे वरदायिनी कामरूपी सरस्वती! आपको मेरा नमस्कार। मैं विद्यारम्भ कर रहा हूँ। मुझे सदा सिद्धि मिले।
- कर्मणा सिद्धिः ।
- कर्म से ही सिद्धि मिलती है।
- न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
- न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ -- भगवद्गीता
- मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्यागमात्र से सिद्धि को ही प्राप्त होता है।
- धनुः पौश्पं मौर्वी मधुकरमयी चञ्चलदृशां
- दृषां कोणो बाणः सुहृदविजितात्मा हिमकरः ।
- तथाप्येकोऽनङ्गस्त्रिभुवनमपि व्याकुलयति
- क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे ॥ -- सुभाषित रत्नाकर (महाजनप्रशंसा)
- प्रेम के देवता कामदेव का धनुष पुष्पों से बना हुआ है तथा उसकी प्रत्यंचा भ्रमरों से बनी है, चञ्चल नेत्रों की तिरछी दृष्टि उसके बाण हैं तथा सबके मन को प्रभावित करने वाला चन्द्रमा उसका मित्र है फिर भी अकेला ही कामदेव तीनों लोकों को अपने प्रभाव से व्याकुल कर देता है। सच है महान और शक्तिशाली व्यक्तियों के कार्य उनके पराक्रम से सिद्ध होते हैं न कि उनके विभिन्न उपकरणों के कारण।
- मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
- मन्त्रेण रक्षयेद्गूढं कार्ये चापि नियोजयेत् ॥ -- चाणक्यनीति
- मन में सोंचे हुए कार्य को किसी के सामने प्रकट न करें बल्कि मनन पूर्वक उसकी सुरक्षा करते हुए उसे कार्य में परिणत कर दें।
- रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा
- निरालम्बो मार्गश्चरणविकलः सारथिरपि ।
- रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
- क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥ -- भोजप्रबन्ध १६६
- रथ का चक्का एक, सांप की रस्सी में बँधे सात घोड़े, निराधार है पंथ, सारथी भी चरणहीन है, सूरज प्रतिदिन विस्तृत नभ के अन्त-भाग तक ही जाता है। बड़े जनों की क्रियासिद्धि पौरुष से होती है, न कि उपकरणों (साधन) से।
- विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधिर्विपक्षः पौलस्त्य रणभुवि सहायाश्च कपयः ।
- पदातिर्मर्त्योऽसौ सकलमवधीद्राक्षसकुलं क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥ -- भोजप्रबन्ध १७०
- लंका नगरी जेय थी, समुद्र को चरणों से चलकर पार करना था, प्रतिपक्षी पुलस्त्य का बेटा रावण था, संग्राम भूमि में सहायक थे बंदर, पैदल मानव राम, उन्होंने संहारा सारा राक्षस कुल, बड़े जनों की क्रियासिद्धि पौरुष से होती है; न कि साधन से।
- घटो जन्मस्थानं मृगपरिजनो भूर्जवसनं ।
- वने वासः कंदादिकमशनमेवंविधगुणः॥
- अगस्त्यः पायोधिं यदकृत करांभोजकुहरे ।
- क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥
- अगस्त्य मुनि का जन्म घड़े से हुआ था, मृग उनके परिवार जन थे, भोजपत्र उनका वस्त्र था, वन में वास करते थे, कंदमूल ही उनका भोजन था। उनका शरीर अस्थिर था। (ऐसे सामान्य गुणों वाले) अगस्त्य मुनि ने समुद्र को अपने कमल-समान जुड़े हुए हथेलियों के खोखले में समाहित कर लिया (अर्थात पी लिया) । (अतः) बड़े जनों की क्रियासिद्धि साधनों से नहीं बल्की आत्मबल से होती है।
- कार्यसामर्थ्याद्द् हि पुरुषसामर्थ्यं कल्प्यते। -- अर्थशास्त्र (कौटिल्य)
- (पुरुष द्वारा किये गये ) कार्य के सामर्थ्य से ही पुरुष के सामर्थ्य का पता चलता है।