संगति का अर्थ है- 'साथ-साथ गति' या 'साथ रहना'। संगति दो प्रकार की हो सकती है- सत्संगति (सत्संग) और कुसंगति (कुसंग)।


सूक्तियाँ

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  • महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयम् धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ॥
महापुरुषों का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता, कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद मोती जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है।
  • सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः ।
विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥ -- योगवासिष्ठ
सन्तोष परम लाभ है, सत्संग परम गति है, विचार परम ज्ञान है और इन्द्रियों पर नियंत्रण ही परम सुख है।
  • पश्य सत्संगमाहात्म्यं स्पर्शपाषाणयोदतः।
लोहं च जायते स्वर्णं योगात् काचो मणीयते ॥
सत्संग का महत्व देखो, पाषाण के स्पर्श से लोहा सोना बनता है और सोने के योग से काच मणि बनता है।
  • असज्जनः सज्जनसंगि संगात्
करोति दुःसाध्यमपीह साध्यम्।
पुष्याश्रयात् शम्भुशिरोधिरूठा
पिपीलिका चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ॥
सज्जन के सहवास से असज्जन दुष्कर कार्य को भी साध्य बनाता है। पुष्प का आधार लेकर शंकर के मस्तक पर की चींटी चंद्रबिंब का चुंबन करती है।
  • चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥
संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है । चन्द्र और चन्दन की शीतलता के बीच सज्जन पुरुष की सङ्गति शीतल होती है।
  • गंगेवाधविनाशिनो जनमनः सन्तोषसच्चन्द्रिका
तीक्ष्णांशोरपि सत्प्रभेव जगदज्ञानान्धकारावहा।
छायेवाखिलतापनाशनकारी स्वर्धेनुवत् कामदा
पुण्यैरेव हि लभ्यते सुकृतिभिः सत्संगति र्दुर्लभा ॥
गंगा की तरह पाप का नाश करनेवाली, चंद्र किरण की तरह शीतल, अज्ञानरुपी अंधकारका नाश करनेवाली, ताप को दूर करनेवाली, कामधेनु की तरह इच्छित चीज देनेवाली, बहुत पुण्य से प्राप्त होनेवाली सत्संगति दुर्लभ है।
  • सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसः नामापि न श्रूयते
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते।
स्वात्यां सागरशुक्ति संपुट्गतं तन्मौक्तिकं जायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तम गुणाः संसर्गतो देहिनाम् ॥
तप्त लोहे पर पानी का नाम निशान नहीं रहता। वही पानी कमल के पुष्प पर हो तो मोती जैसा लगता है, और स्वाति नक्षत्र में छीप के अंदर अगर गिरे तो वह मोती बनता है। ज़ादा करके अधम, मध्यम और उत्तम दशा संसर्ग से होती है।
  • कीर्तिनृत्यति नर्तकीव भुवने विद्योतते साधुता
ज्योत्स्नेव प्रतिभा सभासु सरसा गंगेव संमीलति।
चित्तं रज्जयति प्रियेव सततं संपत् प्रसादोचिता
संगत्या न भवेत् सतां किल भवेत् किं किं न लोकोत्तरम् ॥
कीर्ति नर्तकी की तरह नृत्य करती है। दुनिया में साधुता प्रकाशित होती है। सभा में ज्योत्सना जैसी सुंदर प्रतिभा गंगा की तरह आ मिलती है, चित्तको प्रियाकी तरह आनंद देती है, प्रसादोचित् संपद आती है। अच्छे मानव के सहवास से कौनसा लोकोत्तर कार्य नहीं होता ?
  • सत्संगाद्ववति हि साधुता खलानाम्
साधूनां न हि खलसंगात्खलत्वम्।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते
मृद्रन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति ॥
सत्संग से दुष्ट लोग अच्छे बनते हैं, लेकिन दुष्ट की सोबत से अच्छे लोग बुरे (दुष्ट) नहीं बनते। फ़ूल में से पेदा हुई सुवास मिट्टी लेती है, लेकिन पुष्प मिट्टी कि सुवास (गंध) नहीं लेते।
  • कल्पद्रुमः कल्पितमेव सूते
सा कामधुक कामितमेव दोग्धि।
चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते
सतां हि संगः सकलं प्रसूते ॥
कल्पवृक्ष कल्पना किया हुआ हि देता है, कामधेनु इच्छित वस्तु ही देती है, चिंतामणी जिसका चिंतन करते हैं वही देता है, लेकिन सत्संग तो सब कुछ देता है।
  • संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्कर्तुं न शक्यते।
स सिद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम् ॥
कुसंग का त्याग पूर्णरुप से करना चाहिए वह अगर शक्य नहीं  है। सज्जन का संग करना चाहिए क्यों कि सज्जन संग का औषधि है।
  • कीटोऽपि सुमनःसंगादारोहति सतां शिरः।
अश्मापि याति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः ॥
पुष्प के संग से कीडा भी अच्छे लोगों के मस्तक पर चढता है। बडे लोगों से प्रतिष्ठित किया गया पत्थर भी देव बनता है।
  • असतां संगपंकेन यन्मनो मलिनीक्र्तम्।
तन्मेऽद्य निर्मलीभूतं साधुसंबंधवारिणा ॥
कीचड जैसे दुर्जन के संग से मलिन हुआ मेरा मन आज साधुसंगरुपी पानी से निर्मल बना।
  • शिरसा सुमनःसंगाध्दार्यन्ते तंतवोऽपि हि।
तेऽपि पादेन मृद्यन्ते पटेऽपि मलसंगताः ॥
फ़ूलके संग से धागाभी मस्तक पर धारण होता है, और वही धागा जाल के संग से पाँव तले कुचला जाता है
  • दूरीकरोति कुमतिं विमलीकरोति
चेतश्चिरन्तनमधं चुलुकीकरोति।
भूतेषु किं च करुणां बहुलीकरोति
संगः सतां किमु न मंगलमातनोति ॥
कुमति को दूर करता है, चित्त को निर्मल बनाता है। लंबे समय के पाप को अंजलि में समा जाय ऐसा बनाता है, करुणा का विस्तार करता है; सत्संग मानव को कौन सा मंगल नहीं देता ?
  • हरति ह्रदयबन्धं कर्मपाशार्दितानाम्
वितरति पदमुच्चैरल्प जल्पैकभाजाम्।
जनमनरणकर्मभ्रान्त विधान्तिहेतुः
त्रिजगति मनुजानां दुर्लभः साधुसंगः ॥
कर्मपाश से पीडित मानव के ह्रदयबंधको हर लेता है, छोटे मानवको उँचा स्थान देता है, जन्म-मरण की भ्रांति में से विश्रांति देता है; तीनों लोक में साधुसंग अत्यंत दुर्लभ है।
  • नलिनीदलगतजलवत्तरलं
तद्वज्जीवनमतिशयचपलम्।
क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥
कमलपत्र पर पानी जैसा चंचल यह जीवन अतिशय चपल है। इसलिए एक क्षण भी की हुई सज्जनसंगति भवसागर को पार करनेवाली नौका है।
  • तत्त्वं चिन्तय सततंचित्ते
परिहर चिन्तां नश्वरचित्ते।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका
भवति भवार्णतरणे नौका ॥
सतत चित्त में तत्व का विचार कर, नश्वर चित्तकी चिंता छोड दे। एक क्षण सज्जन संगति कर, भव को तैरनेमें वह नौका बनेगी।
  • मोक्षद्वारप्रतीहाराश्चत्वारः परिकीर्तिताः
शमो विवेकः सन्तोषः चतुर्थः साधुसंगमः ॥
शम, विवेक, संतोष और साधुसमागम – ये चार मोक्षद्वार के पहेरेदार हैं।
  • सन्तोषः साधुसंगश्च विचारोध शमस्तथा।
एत एव भवाम्भोधावुपायास्तरणे नृणाम् ॥
संतोष, साधुसंग, विचार, और शम इतने हि उपाय भवसागर पार करनेके लिए मानवके पास है।
  • वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि॥
वनचर जन्तुओं के साथ दुर्गम पर्वतीय स्थानों और जंगलों में रहना अच्छा है, परन्तु इन्द्रभवन में भी मूर्खों के साथ रहना ठीक नहीं है।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥
अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है, वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है । चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी ) कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है ।(आप ही ) कहें कि सत्संगति मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती ।
  • बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
  • सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ -- तुलसीदास
सत्संगति पाकर दुष्ट व्यक्ति सुधर जाता है, जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु भी सुन्दर बन जती है।
  • गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। -- तुलसीदास
पवन का साथ पाकर धूल भी आकाश पर पहुँच जाती है।
  • बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥ -- रामचरितमनस, सुन्दरकाण्ड
(विभीषण श्री राम से कहते हैं कि) नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।
  • मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥ -- रामचरितमानस, बालकाण्ड
इस तीर्थराज में स्नान (सन्तों की संगति) का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।
कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी का बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास ॥ -- कबीरदास
कबिरा संगत साधु की, बेगि करीसै जाइ।
दुरमति दूर गँवाइसी, देसी सुमति बताइ​ ॥ -- कबीरदास
  • ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग॥ -- तुलसीदास
ग्रह, दवा, पानी, हवा, वस्त्र - ये सब कुसंगति (कुयोग) और सुसंगति (सुयोग) पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं। ज्ञानी और समझदार लोग ही इसे जान पाते हैं।
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई। -- तुलसीदास
खराब संगति से सभी नष्ट हो जाते हैं। नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥ -- तुलसीदास
यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता।
  • भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सत संगति संसृति कर अंता॥ -- तुलसीदास
भक्ति समस्त सुखों की खान है। किन्तु संतों के मार्गदर्शन के बिना इसे पाना बहुत कठिन है। ढेर सारा पुण्य किये बिना संतो की संगति नहीं मिलती। सत्संगति ही जन्म-मरण के चक्र का अन्त कर सकती है।
बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।
तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ॥ -- तुलसीदास
यदि बुरी संगति करके कोई सफलता तथा समाज से प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखता है तो उसे आजीवन कुछ भी हाथ नहीं लगेगा और उसकी इच्छा केवल इच्छा मात्र रह जाएगी। जिस प्रकार मगध के नजदीक बसने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम 'गया' रखा गया।

इन्हें भी देखें

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