अर्थात् जिससे शरीर में थकावट पैदा हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं।
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्द्धिनी।
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत्॥ -- भगवान् पुनर्वसु, (चरकसंहिता, सूत्रस्थान ७।३१)
अर्थात् जो भी शरीर की चेष्टा (कर्म) अपने मन को अच्छी लगे, जो शरीर को स्थिरता प्रदान करती हो और बल को बढ़ाती हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं। उसे मात्रा के अनुसार करना चाहिए।
वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत्।
वातज तथा पित्तज रोगों से पीड़ित रोगी, बालक, वृद्ध तथा अजीर्णरोग से पीड़ित मनुष्य 'व्यायाम' न करें।
बाल: आषोडशवर्षात्', 'वृद्धः सप्ततेरूध्वम्' -- वाग्भट के टीकाकार श्री अरुणदत्त
अर्थात् सोलह वर्ष तक की अवस्था वाला बालक कहा जाता है और सत्तर वर्ष से ऊपर की अवस्था वाला वृद्ध होता है।
अर्धशक्त्या निषेव्यस्तु बलिभिः स्निग्धभोजिभिः ॥
शीतकाले वसन्ते च, मन्दमेव ततोऽन्यदा।
बलवान् तथा स्निग्ध (घी-तेल आदि से बने हुए तथा बादाम, काजू आदि) पदार्थों को खाने वाले मनुष्य शीतकाल (हेमन्त-शिशिर ऋतु) में एवं वसन्त ऋतु में आधी शक्ति भर व्यायाम करें, इससे अन्य ऋतुओं में और भी कम व्यायाम करें।
तं कृत्वाऽनुसुखं देहं मर्दयेच्च समन्ततः॥
व्यायाम कर लेने के बाद सम्पूर्ण शरीर का अनुलोम सुखद मर्दन कर्म चारों ओर से करना चाहिए अथवा क्रमशः सभी अंगों को मसलना चाहिए।
सुश्रुत के टीकाकार जैज्जट का कथन है कि मर्दन (मसलना) यह क्रिया भी व्यायाम का ही एक अंग है। यह मर्दन कर्म भी ऐसा न हो जो शरीर को कष्टकारक हो, अतएव महर्षि वाग्भट ने इसका एक विशेषण 'अनुसुखं' दिया है अर्थात् जो सुख के अनुकूल हो।
तृष्णा क्षयः प्रतमको रक्तपित्तं श्रमः क्लमः।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते ॥
अतिव्यायाम से हानि-अधिक व्यायाम करने से प्यास का लगना, क्षय (राजयक्ष्मा), प्रतमक श्वास, रक्तपित्त, श्रम (थकावट), क्लम (मानसिक दुर्बलता या सुस्ती), कास, ज्वर तथा छर्दि (वमन) आदि रोग हो जाते हैं अथवा हो सकते हैं।
व्यायामजागराध्वस्त्रीहास्यभाष्यादि साहसम्।
गजं सिंह इवाकर्षन् भजन्नति विनश्यति ॥
यायाम, जागरण, मार्गगमन, मैथुन, हँसना, बोलना (जोर-जोर से चिल्लाना) तथा साहसिक कार्यों का अधिक सेवन करने से शक्ति युक्त मनुष्य का भी उस प्रकार विनाश हो जाता है जैसे सिंह अपने द्वारा मारे हुए हाथी को खींचकर ले जाने का दुःसाहस करता है, तो वह स्वयं मर जाता है।
उद्वर्तनं कफहरं मेदसः प्रविलायनम्।
स्थिरीकरणमङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् ॥
व्यायाम के बाद उबटन करना चाहिए, इससे कफ का नाश होता है। यह मेदोधातु को पिघला कर उसे सुखा देता है, अंगों को स्थिर (मजबूत) करता है और त्वचा को कान्तियुक्त करता है।
दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जाबलप्रदम्।
कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दाहपाप्मजित्।
स्नान के गुण-स्नान करने से जठराग्नि प्रदीप्त होता है, यह वृष्य (वीर्यवर्धक) है, आयु को बढ़ाता है, उत्साहशक्ति तथा बल को बढ़ाता है; कण्डू (खुजली), मल (त्वचा का मैल), थकावट, पसीना, उँघाई, प्यास, दाह (जलन) तथा पाप (रोग) का नाश करता है।
उष्णाम्बुनाऽधःकायस्य परिषेको बलावहः।
तेनैव तूत्तमाङ्गस्य बलहृत्केशचक्षुषाम् ॥
उष्ण-शीत जलप्रयोग-उष्ण (गरम) जल से अधःकाय (गरदन से नीचे के शरीर) का परिषेक (स्नान) बल को बढाता है। यदि उसी (गरम जल) से सिर को धोया जाय अर्थात् गरम पानी से शिरःस्नान किया जाय तो इससे बालों तथा आँखों की शक्ति घटती है।
स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु।
आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् ॥
अर्दित (मुखप्रदेश का लकवा), नेत्ररोग, मुखरोग, कर्णरोग, अतिसार, आध्मान (अफरा), पीनस, अजीर्ण रोगों में तथा भोजन करने के तत्काल बाद स्नान करना हानिकारक होता है।
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता ।
आरोग्यं चापि परमं व्यायामदुपजायते ॥
श्रम, थकावट, ग्लानि (दुःख), प्यास, शीत (जाड़ा), उष्णता (गर्मी), आदि सहने की शक्ति व्यायाम से ही आती है और परम आरोग्य अर्थात् स्वास्थ्य की प्राप्ति भी व्यायाम से ही होती है।
न चास्ति सदृशं तेन किंचित्स्थौल्यापकर्षणम् ।
न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो भयात् ॥
अधिक स्थूलता को दूर करने के लिए व्यायाम से बढ़कर कोई और औषधि नहीं है, व्यायामी मनुष्य से उसके शत्रु सर्वदा डरते हैं और उसे दुःख नहीं देते ।
व्यायामात् लभते स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सुखं।
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम् ॥
व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है। निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
व्यायामं कुर्वतो नित्यं विरुद्धमपि भोजनम् ।
विदग्धमविदग्धं वा निर्दोषं परिपच्यते ॥
व्यायाम करने वाला मनुष्य गरिष्ठ, जला हुआ अथवा कच्चा किसी प्रकार का भी खराब भोजन क्यों न हो, चाहे उसकी प्रकृति के भी विरुद्ध हो, भलीभांति पचा जाता है और कुछ भी हानि नहीं पहुंचाता ।
शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता ।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा ॥
व्यायाम से शरीर बढ़ता है, शरीर की कान्ति वा सुन्दरता बढ़ती है, शरीर के सब अंग सुड़ौल होते हैं, पाचनशक्ति बढ़ती है, आलस्य दूर भागता है, शरीर दृढ़ और हल्का होकर स्फूर्ति आती है। तीनों दोषों की (मृजा) शुद्धि होती है।
न चैनं सहसाक्रम्य जरा समधिरोहति ।
स्थिरीभवति मांसं च व्यायामाभिरतस्य च ॥
व्यायामी मनुष्य पर बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं करता, व्यायामी पुरुष का शरीर और हाड़-मांस सब स्थिर होते हैं।