• द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः ।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ॥ -- कालिदास, ऋतुसंहार में
प्रिये, जिधर देखो आनन्द ही आनन्द है। वसन्त के आते ही वृक्ष फलों से लद गये हैं। जल में कमल खिल गये हैं। स्त्रियाँ प्रियों से मिलने के लिये उत्सुक हो गयीं हैं। पवन सुगन्धपूर्ण हो गया है। सन्ध्या सुहावनी हो गयी है। दिन आकर्षक लगने लगे हैं। सचमुच वसन्त में सब कुछ अधिक सुन्दर हो गया है।
  • नव पलाश पलाशवनं पुरः स्फुट पराग परागत पंवानम्
मृदुलावांत लतांत मलोकयत् स सुरभि-सुरभि सुमनोमरैः॥ -- माघ
विरह-दग्ध हृदय में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।
  • बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ -- भगवद्गीता, दशम अध्याय
(भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि) गायी जानेवाली श्रुतियों में बृहत्साम और वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीर्ष और छः ऋतुओं में वसन्त मैं हूँ।
  • आएल रितुपति राज बसंत, छाओल अलिकुल माछवि पंथ।
दिनकर किरन भेल पौगड़, केसर कुसुम घएल हेमदंड॥ -- विद्यापति
  • मलय पवन बह, बसंत विजय कह ।
भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।
ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।
अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।
तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे। -- विद्यापति
  • आएल रितुपति राज बसंत, छाओल अलिकुल माछवि पंथ।
दिनकर किरन भेल पौगड़, केसर कुसुम घएल हेमदंड। -- विद्यापति
  • रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥ -- तुलसीदास
  • फल फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। ढूँड बांधि के पंचम गाई।
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादक तूर झांझ चहुं फेरी। -- जायसी (पद्मावत)
  • दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि॥ -- रहीम
  • प्यारी नवल नव-नव केलि
नवल विटप तमाल अरुझी मालती नव वेलि,
नवल वसंत विहग कूजत मच्यो ठेला ठेलि। -- कृष्णदास
  • दंपति जोबन रूप जाति लक्षणयुत सखिजन,
कोकिल कलित बसंत फूलित फलदलि अलि उपवन। -- केशव
  • वन वाटनु हपिक वटपदा, ताकि विरहिनु मत नैन।
कुहो-कुहो, कहि-कहिं उबे, करि-करि रीते नैन।
हिये और सी ले गई, डरी अब छिके नाम।
दूजे करि डारी खदी, बौरी-बौरी आम। -- बिहारी सतसई
  • बरन-बरन तरू फूल उपवन-वन सोई चतुरंग संग दलि लहियुत है,
बंदो जिमि बोलत बिरद वीर कोकिल, गुंजत मधुप गान गुन गहियुत है,
ओबे आस-पास पहुपन की सुबास सोई सोंधे के सुगंध मांस सने राहियुत है। -- सेनापति
  • कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है।
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में पीक में पलासन पगंत है।
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में
देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है। -- पद्माकर
  • कौन हो तुम बसंत के दूत? विरस पतझड़ में अति सुकुमार
घन तिमिर में चपला की रेख तमन में शीतल मंद बयार।-- जयशंकर प्रसाद (कामायानी में )

बाहरी कड़ियाँ

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