कालिदास
संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध कवि एवं लेखक
कालिदास संस्कृत के महान कवि थे। उनकी रचनात्मक प्रतिभा असाधारण थी। उनके साहित्य को अनेक देशी एवं विदेशी विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से सराहा है। विश्व की प्रायः प्रमुख भाषाओँ में इनकी रचनाओं का अनुवाद हो चुका है। 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' उनकी महान नाट्य काव्य रचना है। इसके अतिरिक्त उन्होंने मेघदूतम्, कुमारसम्भवम्, ऋतुसंहारम् आदि अनेक कालजयी रचनाएँ की।
सूक्तियाँ
सम्पादन- पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यम् नवमित्यवद्यम् ।
- सन्ताः परिक्ष्यान्य तरद्भजन्ते मूढाः परप्रत्ययनेय बुद्धिः ॥
- कोई वस्तु पुरानी होने से अच्छी नहीं हो जाती और न ही कोई काव्य नया होने से निन्दनीय हो जाता है। संत जन विवेक मार्ग से सत्य का परीक्षण करते हैं पर न्यून बुद्धि दूसरों की बातों पर ही विश्वास करते हैं।
- शुश्रूषस्व गुरुन्कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने
- भर्तुर्विप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः ।
- भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी
- यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याध्यः ॥ -- शकुन्तला को विदा करते हुए कण्व ऋषि का उपदेश (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
- तू गुरुजनों की सेवा करना, अपनी सपत्नीयों (सौतों) के साथ प्रिय सखियों जैसा व्यवहार करना, तिरस्कृत होने पर भी क्रोधवश अपने पति के प्रतिकूल व्यवहार मत करना, अपने आश्रितों के साथ उदार व्यवहार करना, समृद्धियुक्त होने पर अभिमान न करना। इस प्रकार आचरण करने वाली स्त्रियां ही गृहलक्ष्मी के पद को प्राप्त करती हैं तथा इसके विपरीत आचरण करने वाली कुल को मानसिक पीड़ा देने वाली (अभिशाप) होती हैं।
- पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
- नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् ।
- आद्ये वः प्रथमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः
- सेयम् याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञाप्यताम् ॥ ऋषि कण्व, वन की लताओं और पेड़-पौधों को सम्बोधित करते हुए, अभिज्ञान शाकुन्तलम् में
- इस पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल, अन्न और सुभाषित; लेकिन अज्ञानी पत्थरों के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।
- अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं।
- अपनी आत्मा की पीड़ा को अपने वश में करें क्योकि सुख और दुख हर किसी के भाग्य में होता है और ये जीवन का पहिया ऊपर-नीचे लेता रहता है।
- अपनी बात के धनी लोगों के निश्चय मन को और नीचे गिरते हुए पानी के वेग को भला कौन फेर सकता है।
- अवगुण नाव की पेंदी में छेद के समान है, जो चाहे छोटा हो या बड़ा, एक दिन उसे डुबो देगा।
- आज अच्छी तरह से जीने वाले हर कल को खुशियों की याद दिलाते हैं और हर आने वाले कल को एक उम्मीद की निशानी बनाते हैं।
- आह, मेरी इच्छाएं आशा बन जाती हैं।
- सज्जन लोग बादलों की तरह हैं जो कोई चीज देने के लिए ही कोई चीज लेते हैं।
- काम की समाप्ति यदि संतोषजनक हो तो परिश्रम की थकान याद नहीं रहती।
- किसे हमेशा सुख मिला है और किसे हमेशा दुःख मिला है। सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं।
- कोई वस्तु पुरानी होने से अच्छी नहीं हो जाती और न ही कोई काव्य नया होने से निंदनीय हो जाता है।
- गुण से ही व्यक्ति की पहचान होती है, गुणी व्यक्ति सब जगह अपना आदर करा लेता है।
- जल तो आग की गर्मी पाकर ही गर्म होता है। उसका अपना स्वभाव तो ठंडा ही होता है।
- जितेन्द्रिय पुरूष के मन में विघ्न कर वस्तुएँ थोडा भी क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं ।
- जिस प्रकार जब सूरज निकलता है तब लालिमा युक्त होता है और अस्त होता है तो भी लालिमायुक्त होता है। इसी प्रकार महान पुरुष भी सुख और दुःख में एकरूपता रखता है।
- जिस प्रकार बड़ा छेद हो या छोटा वो नाव को डुबो देता है उसी तरह दुष्ट व्यक्ति की दुस्टता उसे बर्बाद कर देती है।
- जिस व्यक्ति की आखें दर्द कर रही हैं उसे बहुत सुन्दर दीपशिखा भी अच्छी नहीं लगती है उसी प्रकार जो व्यक्ति हृदय से दुखी है वो सुख की अनुभूति नहीं कर सकता अर्थात उसे कहीं भी खुशी नहीं मिलेगा।
- जिसने इंद्रियों पर विजय पा ली है उसके मन में विघन्कार वस्तुएं थोड़ा भी छोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं।
- जो महापुरूषों की निंदा करता है, वही नहीं अपितु जो उस निंदा को सुनता है, वह भी पाप का भागी होता है।
- जो सुख-दुःख के पश्चात होता है, वह साधारण सुख से अधिक सुखमय होता है।
- जो स्वयं सुंदर है, उसकी सुन्दरता किसी अन्य वस्तु से नहीं बढती।
- तुमने निंदायुक्त वचनों को उत्तम मानकर जो यहां कहा है उनसे कोई कार्य तो सिद्ध हुआ नहीं, केवल तुम्हारे स्वरूप का स्पष्टीकरण हो गया है।
- दान पुण्य केवल परलोक में सुख देता है पर योग्य सन्तान अपनी सेवा द्वारा इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख देती है।
- दु:ख में अपने स्वजनों को देखते ही दु:ख उसी प्रकार बढ़ जाता है, जैसे रुकी वस्तु को बाहर निकलने के लिए बड़ा द्वार मिल जाए।
- दुःख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं।
- दुखती आँखों वाले को सामने दीपशिखा अच्छी नहीं लगती।
- दुष्ट अपकार से नहीं, उपकार से ही शांत रहता है।
- धरती पर केवल तीन रत्न हैं। अन्न जल, और सुभाषित। लेकिन कुछ अज्ञानी पत्थर के टुकड़ो को ही रत्न करते रहते है।
- नम्रता के संसर्ग से ऐश्वर्य की शोभा बढ़ती है।
- पृथ्वी पर तीन रत्न हैं। जल, अन्न और सुभाषित वचन, परन्तु मूढ़जन पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं।
- प्रत्येक व्यक्ति की रुचि एक दूसरे से भिन्न होती है।
- फल आने पर पेड़ झुक जाते हैं, वर्षा के समय बादल झुक जाते हैं। सम्पति आने पर सज्जन लोग विनम्र हो जाते हैं – परोपकारियों का स्वाभाव ऐसा ही है।
- बुराई बिल्कुल नाव में छेद समान होती है, वह चाहे कितनी भी छोटी क्यों न हो, एक दिन नाव को डूबा ही देती है।
- भगवान की शोभा नम्रता से ही बढ़ती है।
- मन को विचलित करने वाली कितनी भी परिस्थितियाँ क्यों न हों पर एक धैर्यवान पुरुष कभी भी विचलित नहीं होता।
- यदि आज अच्छे से रहते हो। तो कल ख़ुशी का सपना बना देता है।
- यदि प्यार अधिक हो तो पाप की शंका होती ही है।
- रथचक्र की अरों के समान मनुष्य के जीवन की दशा ऊपर-नीचे हुआ करती है। कभी के दिन बड़े कभी की रात।
- वास्तविक धीर पुरूष वे ही हैं जिनका चित्त विकार उत्पन्न करने वाली परिस्थितिओं में भी अस्थिर नहीं होता।
- विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है।
- विपत्ति में पड़े हुए पुरुषों की पीड़ा हर लेना ही सत्पुरुषों की संपत्ति का सच्चा फल है। संपत्ति पाकर भी मनुष्य अगर विपत्ति-ग्रस्त लोगों के काम न आया तो वह संपत्ति किस काम की।
- विश्व महापुरुष को खोजता है न की महापुरुष विश्व को।
- वृक्ष अपने सिर पर गर्मी झेल लेता है। किन्तु अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता है।
- वृक्ष के समान बनो जो कड़ी गर्मी झेलने के बाद भी सभी को छाया देता है।
- शत्रु के छिद्र अर्थात दोष या कमजोरी को देख कर उसी पर आघात करने से विजय मिलती है।
- सज्जन पुरुष बिना कहे ही दूसरों का भला कर देते हैं जिस प्रकार सूर्य घर घर जाकर प्रकाश देता है।
- सभी व्यक्ति कठिनाईयों पर विजय प्राप्त कर सकें, सभी सबका भला सोचें, सबके कार्यों की पूर्ती का प्रयत्न करें और सब स्थानों पर सबकी प्रसन्नता का यत्न करें।
- हंस पानी मिले दूध मे से दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है।
कालिदास के बारे में साहित्यकारों के विचार
सम्पादन- उपमा कालिदासस्य
- उपमा में कालिदास बेजोड़ हैं।
- पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः ।
- अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिका सार्थवती बभूव ॥
- भावर्थ यह है कि प्राचीन काल में कवियों की गणना के प्रसंग में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण कालिदास का नाम कनिष्ठिका पर आता था, किन्तु आज तक उनके समकक्ष कवि के अभाव के कारण, अनामिका पर किसी का नाम न आ सका और इस प्रकार अनामिका का नाम सार्थक हुआ।
- काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला।
- तत्राऽपि च चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम्॥
- काव्य के जितने भी प्रकार हैं उनमें नाटक रम्य है। नाटकों में अभिज्ञान शाकुन्तलम् श्रेष्ठ है। उसमें भी चौथा अंक (श्रेष्ठ है) तथा उसमें भी चार-श्लोक सबसे अच्छे हैं।
- कालिदास वाचः कुत्र व्याख्यातारो वयं क्व च।
- तदिदं मन्ददीपेन राजवेश्म प्रकाशनम् ॥ -- वल्लभ देव
- कालिदास की वाणी कहाँ है और उसके व्याखाता हम कहाँ हैं। यह तो वैसे ही है जैसे किसी राजमहल को एक मन्द दीपक से प्रकाशित करना।
- कालिदासकविता नवं वयो माहिषं दधि शर्करं पयः
- शारदेन्दुरबला च कोमला स्वर्गसौख्यमुपभुज्यते नराः॥
- कालिदास की कविता नयी भैंस के दूध में शक्कर मिलाकर बनायी गयी दही के समान है। वह शरद ऋतु के चन्द्रमा की भांति कोमल है। इसको पढ़कर लोग स्वर्ग का सुख अनुभव करते हैं।
- कालिदास गिरां सारं कालिदासः सरस्वती ।
- चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा विदुर्नान्ये तु मादृशाः ॥
- कालिदास की वाणी के सार को केवल कालिदास, सरस्वती और चार मुख वाले ब्रह्मा समझते हैं। मेरे जैसे अन्य लोग नहीं जानते।
- महाकविं कालिदासं वन्दे वाक्देवता गुरुम् ।
- यज्ञाने विश्वमाभाति दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ॥
- वाणी के देवता महाकवि कालिदास की वन्दना करता हूँ। उनके ज्ञान में सारा विश्व वैसे ही दिखता है जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब।