शास्त्रोक्त पद्धति से शरीर पर घी अथवा औषधियुक्त तेल की मालिश करने को अभ्यंग या मालिश कहा जाता है। यह त्वचा की रुक्षता, अत्यन्त शारीरिक अथवा मानसिक तनाव से युक्त व्यक्ति, अनिद्रा रोग, वात रोग जैसे संधिवात, पक्षाघात, कंपवात, अवबाहुक (सरवाइकल स्पॉन्डिल) आदि में बहुत लाभकारी है।

  • रोमान्तेष्वनुदेहस्य स्थित्वा मात्राशतत्रयम्।
ततः प्रविशति स्नेहश्चतुर्भिर्गच्छति त्वचाम्॥
रक्तं गच्छति मात्राणां शतैः पञ्चभिरेव तु।
षड्भिर्मासं प्रपद्येत मेद: सप्तभिरेव च ॥
शतैरष्टाभिरस्थीनि मज्जानं नवभिव्रजेत्।
तत्रास्थाञ् शमयेद्रोगान् वातपित्तकफात्मकान्॥ -- सुश्रुत-चि. २४.३० श्लोक पर की गयी आचार्य डल्हण की टीका
अर्थात् प्राचीन विद्वानों का अनुमान है और अभ्यंगप्रिय पहलवानों का अनुभव है कि अभ्यंग द्वारा प्रयोग किया गया तेल ३०० मात्रा समय तक वह रोमकूपों में रहता है; फिर ४०० मात्रा समय तक त्वचा में, फिर ५०० मात्रा समय तक रक्त में, फिर ६०० मात्रा समय तक मांस में, ७०० मात्रा समय तक मेदस् में, ८०० मात्रा समय तक अस्थि में और ९०० मात्रा समय तक मज्जा में व्याप्त होकर उन-उन धातुओं में उत्पन्न वातज, पित्तज तथा कफज रोगों को शान्त कर देता है।
( यहाँ जो ३०० तथा ५०० आदि मात्रा शब्द का प्रयोग किया है, इस मात्रा नामक काल की अवधि का प्रमाण है—ह्रस्व स्वर अ, इ या उ आदि किसी एक को उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने मात्र समय को कालविभागज्ञों ने मात्रा' कहा है। ध्यान दें—मात्रा ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत भेद से तीन प्रकार की होती है। यहाँ केवल ह्रस्व स्वर वाली मात्रा से तात्पर्य है।)
  • शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत्।
सिर, कानों तथा पैरों के तलुओं में विशष रूप से अभ्यंग करना चाहिए। (यहाँ 'शीलयेत्' क्रिया का अर्थ है-'अभ्यसेत्' अर्थात् बार-बार इसका अभ्यास करे।)
  • सिर पर तेलमालिश करते रहने से वह केशों का हित करता है अर्थात् उन्हें बढ़ाता है, मुलायम तथा चिकना बनाये रखता है। इससे शिरः कपालास्थियों और इन्द्रियों (आँख, कान, नाक) का तर्पण होता रहता है। कान के छेद में गुनगुना तेल डालते रहने से हनुसन्धियों (गण्ड, कर्ण, शंख, वर्त्म, नेत्र तथा हनु से सम्बन्धित १२ अस्थियों) का, मन्याओं (गरदन के अलग-बगल में दिखलायी देने वाली दोनों ओर की धमनियों) का, कानों का शूल शान्त हो जाता है। पैरों पर अभ्यंग करते रहने से पाँवों में स्थिरता आती है, निद्रा आती है और दृष्टि प्रसन्न रहती है। पैरों का सुन पड़ जाना, श्रम, स्तम्भ (जकड़न), सिकुड़न, विवाई फटना—ये कष्ट दूर हो जाते हैं। -- वाग्भट ने अष्टांगसंग्रह-सू. ३१५९-६०
  • वर्णोऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृतसंशुद्धयजीर्णिभिः॥९॥
प्रतिश्याय आदि कफज विकारों से पीड़ित रोगी, जिन्होंने शरीरशुद्धि के लिए वमन-विरेचन आदि किया हो तथा जो अजीर्णरोग से ग्रस्त हों, वे अभ्यंग का प्रयोग न करें।
  • कृतसंशुद्धेस्तदहरेव निषिद्धः'। - सुश्रुत का अनुसरण करने वाले आचार्य हेमाद्रि
अर्थात् जिसने वमन आदि का जिस दिन प्रयोग किया हो उस दिन अभ्यंग न करे।
  • लाघवं कर्मसामर्थ्य दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः।
विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते॥ -- सुश्रुत, चिकित्सास्थान २४।३५-३७
  • अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवातहा।
दृष्टिप्रसादपुष्टयायुःस्वप्नसुत्वक्त्त्वदाढर्यकृत्।
शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत्॥ -- अष्टाङ्ग ह्रदय
बच्चों को बहुत जरूरी है कि उसकी प्रतिदिन अभ्यङ्ग यानि पूरे शरीर का तेलमर्दन रसूता माँ, आया या नाइन द्वारा अवश्य करवाएं क्योंकि बचपन में नित्य की मालिश से बच्चों की थकान, जरा-ज्वर, पीड़ा और समस्त वात रोग हमेशा के लिए मिट जाते हैं।

इन्हें भी देखें

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