विद्या के मद से उम्मत पुरुष अपने तर्कों से आठ ( परमहितैषी ) जनों के उपदेश-वचनों को कुछ भी नहीं समझता और अनर्थकारी भी अपने अभीष्ट विचार को परमार्थ-युक्त (उचित कर्तव्य ) समझता है। और जिससे वह महाजनों (अच्छे पुरुषों) से स्वीकृत मार्ग का भी हठात् परित्याग कर देता है ।
महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयम्, धत्ते मुक्ताफलश्रियम्॥
महापुरुषों का सामीप्य किसके लिए लाभदायक नहीं होता? कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बूँद मोती जैसी शोभा प्राप्त कर लेती है।