भारतीय साहित्य से तात्पर्य सन् १९४७ के पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप एवं तत्पश्चात् भारत गणराज्य में निर्मित वाचिक और लिखित साहित्य से है। विश्व का सबसे पुराना वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है।

यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही सम्पूर्ण वाङ्मय का संचयन किया जाये तो वह यूरोप के संकलित वाङ्मय से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा। वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनन्त विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है।

इन सभी साहित्यों में अपनी-अपनी विशिष्ट विभूतियां हैं। तमिल का संगम-साहित्य, तेलगु के द्वि-अर्थी काव्य और उदाहरण तथा अवधान-साहित्य, मलयालम के संदेश-काव्य एवं कीर-गीत (किलिप्पाट्टु) तथा मणिप्रवालम् शैली, मराठी के वोवाडे, गुजराती के आख्यान और फागु, बँगला का मंगल काव्य, असमिया के बरगीत और बुरंजी साहित्य, पंजाबी के रम्याख्यान तथा वीरगति, उर्दू की गजल और हिन्दी का रीतिकाव्य तथा छायावाद आदि अपने-अपने भाषा–साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्ज्वल प्रमाण हैं।

फिर भी कदाचित् यह पार्थक्य आत्मा का नहीं है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचार-धाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिवयंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज-संभव है। भारतीय साहित्य का प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उसकी यह मौलिकता एकता और भी रमणीय है।

उक्तियाँ सम्पादन

  • धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ॥ -- महाभारत, आदिपर्व (६२) तथा स्वर्गारोहणपर्व (५/५०)
(वैशम्पायन जनमेजय से कहते हैं कि) हे भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विषय में जो इस ग्रन्थ में है वही दूसरे ग्रन्थों में भी है किन्तु जो यहाँ नहीं है वह कहीं भी नहीं है।
  • भारतीय साहित्य बौद्धिक उत्पादों और गहनतम विचारों से समृद्ध भूमि है। इसलिये हर किसी के मन में आता है कि आरम्भ में ही इस खजाने से परिचित हो लिया जाय। -- जॉर्ज डब्ल्यू एफ हेगेल (Georg Wilhelm Friedrich Hegel)

इन्हें भी देखें सम्पादन