भारतीय दर्शन

भारतीय उपमहाद्वीप की विचार की प्रणाली

भारतीय दर्शन से तात्पर्य भारत चिन्तन-धारा से उपजे विविध दर्शनों से है। इसके अन्तर्गत वैदिक दर्शन से लेकर षट्दर्शन (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त) सहित जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन और आधुनिक काल के मनीषियों के दर्शन सम्मिलित हैं।

विभिन्न दर्शनों के उद्धरण

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  • प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्त अवयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास च्छल जति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्श्रेयसाधिगमः ॥ -- अक्षपाद गौतम, न्यायसूत्र
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्त होता है।
  • प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः। -- न्यायसूत्र के भाष्यकार महर्षि वात्स्यायन
प्रमाण के द्वारा किसी अर्थ (सिद्धान्त) की परीक्षा करना ही न्याय है।
  • प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां शाश्वदान्वीक्षिकी मता॥ -- न्यायभाष्य 1/1/1 तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र, विद्योद्देश प्रकरण
  • आन्विक्षिकी (न्यायविद्या) समस्त विद्याओं का प्रदीप है,सब कर्मों का उपाय है, तथा सब धर्मों का आश्रय है।
  • लक्षणन्त्वसाधारणधर्मवचनम्।
असाधारण धर्म का कथन ही 'लक्षण' है।
  • असाधारणं कारणं करणम् । -- पदार्थसंग्रहः
असाधारण कारण को करण कहते है।
  • प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। -- न्यायसूत्र (अक्षपाद गौतम कृत)
प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द - ये (चार) प्रमाण हैं।
  • इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम् अव्यपदेश्यम् अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् -- न्यायसूत्र १।१।४
प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञान है जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक होता है।
  • सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्। -- जैमिनी, मीमांसासूत्र १।१।४
इन्द्रियों का अर्थ (विषय, सत्) के साथ सम्बन्ध होने पर (संप्रयोगे) पुरुष की बुद्धि से जो प्रमाण उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं ; वह (प्रत्यक्ष) धर्मज्ञान का साधन नहीं हो सकता क्योंकि वह केवल वर्तमान काल में अवस्थित वस्तुओं का ग्रहण कर सकता है। (इसे 'प्रत्यक्षाद्यप्रमाण्याधिकरण = प्रत्यक्ष आदि अप्रमाण्य अधिकरण' कहते हैं।)
  • इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम् -- अन्नंभट्ट, तर्कसङ्ग्रह में
वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं।
  • आत्म शरीरेन्द्रियार्थ बुद्धि मनः प्रवृत्ति दोष प्रेत्यभाव फल दुःखापवर्गाः तु प्रमेयम् -- न्यायसूत्र
आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग -- ये प्रमेय हैं।
  • नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थेन्यायः प्रवर्तते किं तर्हि संशयितेऽर्थे -- वात्स्यायनकृत न्यायभाष्य
उपलब्ध अथवा निर्णीत अर्थ में न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है अपितु सन्दिग्ध अर्थ में ही न्यायशास्त्र की प्रवृत्ति होती है।
  • अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्क: -- (न्याय दर्शन 1.1.42)
जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले "ऊह" ज्ञान का नाम है "तर्क"।
  • कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ -- उदयनाचार्य, न्यायकुसुमाञ्जलि ५.१
संसाररूपी कार्य के कर्ता के रूप में, सृष्टि के आरम्भ में दो परमाणुओं को जोड़नेवाले के रूप में, संसार का धारण करनेवाले के रूप में, विभिन्न कलाओं का व्यवहार चलाने वाले के रूप में, अतर्क्य वेद-सिद्धान्तों के प्रवर्तक के रूप में, श्रुति-प्रतिपादित होने के कारण, वाक्यभूत वेदों के रचयिता के रूप में, द्वित्वसंख्या की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि को धारण करनेवाले के रूप में, तथा अदृष्ट ( धर्माधर्म ) के व्यवस्थापक के रूप में विश्ववेत्ता अव्यय ईश्वर की सिद्धि होती है।
  • तच्चानुमानं परार्थं न्यायसाध्यमिति न्यायस्तदवयवाश्च प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनय निगमनानि निरूप्यन्ते। -- गंगेशोपाध्याय, तत्तवचिन्तामणि (अनुमान खण्ड) के अवयवप्रकरण में
अर्थ - और वह अनुमान पदार्थ न्यायसाध्य है, और उसके अवयव ये हैं- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।
  • प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भः सिद्धान्त-अविरुद्धः पञ्चवयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः। -- न्यायसूत्र
  • यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । -- वैशेषिकसूत्र-१।१।२
जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, वही धर्म है।
  • धर्मविशेष प्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् । -- वैशेषिकसूत्र-१।१।४
धर्म विशेष से उत्पन्न हुए ‘द्रव्य’, ‘गुण’, ‘कर्म’, ‘सामान्य’, ‘विशेष’ और ‘समवाय’ इन छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वरूपज्ञान से ‘निःश्रेयसम्’(= मोक्ष) को प्राप्त होता है।
  • असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ -- ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका में
अर्थ : असदकरण से (असदकारणात् = असत् + अकरणात् ) , उपादानग्रहण से ( उपादानग्रहणात् ), सर्वसम्भवाभाव से ( सर्वसम्भवाभावात् = सर्वसम्भव अभावात्) , शक्त के शक्यकरण से (शक्तस्य शक्यकरणात् ), कारणभाव से (कारणभावत् ) -- कार्य ‘सत्’ है, अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है।
  • उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम्।
अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये॥ -- बृहत्संहिता
अर्थात् किसी ग्रन्थ या प्रकरण के तात्पर्यनिर्णय के लिये छह बातों पर ध्यान देना चाहिए— उपक्रम (आरम्भ) और उपसंहार (अन्त), अभ्यास (बार-बार कथन), अपूर्वता (नवीनता), फल (ग्रन्थ का परिणाम वा लाभ जो बताया गया हो), अर्थवाद (किसी बात को जी में जमाने के लिये दृष्टान्त, उपमा, गुणकथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो मुख्य बात के रूप में न हो), और उपपत्ति (साधक प्रमाणों द्वारा सिद्धि)। [मीमांसकों का यह श्लोक सामान्यतः तात्पर्यनिर्णय के लिये प्रसिद्ध है। मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं।]
  • इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति। यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हें, कालामा, पजहेय्याथ। -- केसमुत्ति सुत्त, त्रिपिटक
अर्थ : हे कालामाओ ! ये सब मैंने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है, किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।
  • ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः । -- अद्वैत वेदान्त दर्शन
ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है और दूसरा कोई नहीं।
  • क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। -- पतञ्जलि, योगसूत्र में
क्लेष, कर्म, विपाक और आशय से अछूता (अप्रभावित) वह विशेष पुरुष है। (हिन्दु धर्म में यह ईश्वर की एक मान्य परिभाषा है।)
  • यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । -- चार्वाक दर्शन
मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये, ऋण करके (भी) घी पिये । भला जो शरीर (मृत्यु पश्चात्) भष्मीभूत हो गयी (जलकर राख बन गयी), उसके पुनः आने का प्रश्न कहाँ उठता है?
  • जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते।
ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम्॥ -- (चार्वाक दर्शन)
जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चूने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है।
  • किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते -- (चार्वाक दर्शन)
जैसे चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है।
  • अथातो धर्मजिज्ञासा -- महर्षि जैमिनि, पूर्वमीमांसा में
अब धर्म सम्बन्धी विवेचना करते हैं।
  • धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम्। -- कुमारिल भट्ट, तन्त्रवार्तिक में
धर्म नामक विषय के बारे में कहना मीमांसा का प्रयोजन है।
  • सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् ।
यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते ॥ -- कुमारिल भट्ट, तन्त्रवार्तिक में
जबतक सम्पूर्ण शास्त्र का ही अथवा किसी कर्म का भी प्रयोजन नहीं कहा जाता, तबतक उसको कौन ग्रहण करता है ?
  • चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः -- जैमिनि
वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है। (अर्थात जिस काम को करने के लिये वेद की आज्ञा हो वह धर्म है, और जो वेदविरुद्ध है वह अधर्म।)
  • तस्माद् दृढं यदुत्पन्नं नापि संवादमृच्छति ।
ज्ञानान्तरेण विज्ञानं तत्प्रमाणं प्रमीयताम् ॥ -- कुमारिल भट्ट, श्लोकवार्तिकम् -०२/८०
दृढ एवम् अनपेक्षित अर्थात् स्वतःप्रकाशवान ज्ञान ही प्रमाण है।
  • साधारणं भवेत्तन्त्रं परार्थे त्वप्रयोजकः ।
एवमेव प्रसङ्गः स्याद्विद्यमाने स्वके विधौ ॥ -- मीमांसा
  • भावनैव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया।
अनेक गुण जात्यादि कारकार्थानुराजिता॥ -- मीमांसा
  • विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्थथोत्तरम् ।
प्रयोजनं सङ्गतिश्च शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥ -- मीमांसासूत्रभाष्य
विषय, विशय (संशय/शंका), पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, प्रयोजन और संगति - ये शास्त्र में अधिकरण कहे जाते हैं।
विशेष : किसी भी शास्त्र का अध्ययन कई अधिकरणों में बंटा रहता है। इन अधिकरणों की एक निश्चित विधा है जिसमें पाँच अवयव रहते हैं। जिस पर आधारित होकर कोई विचार प्रवृत्त होता है, उसे 'विषय' कहते हैं। विषय का उल्लेख करने के अनन्तर संशय ( Doubt ) का स्थान है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षों की संभावना पर विचार होता है। ये दोनों पक्ष कहीं तो भावरूप ( Affirmative ) होते हैं-यह स्थाणु है या पुरुष ? कहीं पर भाव और अभाव दोनों रूपों में रहते हैं—यहाँ पुरुष है या नहीं ? वादी के द्वारा प्रतिपादित वस्तु को पूर्वपक्ष ( Opposition ) कहते हैं जिसमें प्रस्तुत वस्तु के विरोध में तर्क का उपन्यास होता है। निर्णय करना, सिद्धान्त ( Reply ) है। संगति ( Reconciliation ) तीन हैं- शास्त्रसंगति, अध्यायसंगति तथा पादसंगति। कोई विचार किस शास्त्र में, किस अध्याय में और किस पाद में करना ठीक है, यही संगति है। उसी प्रकार पूर्वाधिकरण और उत्तराधिकरण में पारस्परिक अवान्तरसंगति भी ठीक की जाती है। कुमारिल भट्ट के अनुयायी लोग संगति को अधिकरण के अंग के रूप में स्वीकार नहीं करते। वे लोग 'उत्तर' को अधिकरण मानते हैं। वादियों के मत का खण्डन करनेवाला वाक्य ही उत्तर है। उसके बाद निर्णय का स्थान है। चूंकि खण्डन गलत उत्तर देकर भी हो सकता है अत: निर्णय को पृथक् रखा गया है। भाट्टों का यह कहना है-
विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् ।
निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥
  • शब्दाधिक्यात् अर्थाधिक्यम् । -- (कारिका?)[]
जितने ही अधिक शब्द प्रयुक्त होते हैं, उतने ही अधिक अर्थ निकलते हैं।
  • सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेवार्थं गमयति। -- पूर्वमीमांसा
एक ही शब्द यदि अलग-अलग स्थानों पर प्रयुक्त किया जाय तो सभी स्थानों पर उसका एक ही अर्थ होना चाहिये।
  • शब्दार्थयोः सम्बन्धः नित्यः। -- मीमांसक
शब्द और अर्थ का सम्बन्ध नित्य (अपरिवर्तनीय) है।
  • नित्याश्शब्दार्थसम्बन्धाः तत्राम्नाता महर्षिभिः ।
सूत्राणामनुतन्त्राणां भाष्यानां च प्रणेतृभिः ॥ -- वाक्यपदीयम् - ब्रह्मकाण्डः
  • उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वताफलम् ।
अर्थवादोपपत्ति च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये ॥
अर्थात् किसी ग्रंथ या प्रकरण के तात्पर्यनिर्णय के लिये सात बातों पर ध्यान देना चाहिए— उपक्रम (आरम्भ), उपसंहार (अन्त), अभ्यास (बार-बार कथन), अपूर्वता (नवीनता), फल (ग्रन्थ का परिणाम वा लाभ जो बताया गया हो), अर्थवाद (किसी बात को जी में जमाने के लिये दृष्टान्त, उपमा, गुणकथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो मुख्य बात के रूप में न हो), और उपपत्ति (साधक प्रमाणों द्वारा सिद्धि)। मीमांसकों का यह श्लोक सामान्यतः तात्पर्यनिर्णय के लिये प्रसिद्ध है। मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं।
  • ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः । -- आदि शंकराचार्य, विवेकचूडामणि में
ब्रह्म सत्य है, जीवन मिथ्या है, जीव ब्रह्म है दूसरा नहीं (जीव और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है)।
  • प्रत्यक्षमनुमानं हि प्रमाणं द्विलक्षणम् ।
प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत ॥ -- दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय में
भावार्थ - प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो प्रमाण हैं। इनके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता।
  • श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते ।
तत्र श्रौतं प्रमाणं तु तयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ -- व्यास
जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात ही मान्य होगी। जहाँ स्मृति और पुराण में द्वैध (विरोध) दिखता हो वहाँ स्मृति की बात मान्य होगी।

भारतीय दर्शन पर मनीषियों के विचार

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  • भारतवर्ष के तत्त्ववेत्ताओं ने अपनी प्रतिभ चक्षु के द्वारा जिन सूक्ष्म तत्त्वों का साक्षात्कार किया है और अपनी कुशाग्र बुद्धि के द्वारा जिन सिद्धान्तों का विश्लेषण किया है, वे दर्शन के इतिहास में नितान्त महत्त्वशाली हैं। यही विचारशात्र भारतीय धर्म तथा संस्कृति का मेरुदण्ड है। मानसिक दासता के पङ्क में लिप्त रहनेवाले आजकल के भारतीय पश्चिमी सभ्यता के चाकचिक्य के सामने इन अनुपम ज्ञानराश्रियों की अवहेलना भले ही करें, परन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि यदि भारतवर्ष अतीत में गौरवझाली था तो इन्हीं के कारण; यदि वर्तमानकाल में वह ख्यातनामा है तो इन्हीं के हेतु और यदि भविष्य में इस देश की चिन्तन-जगत्‌ में स्वतन्त्र सत्ता बनी रहेगी, तो पुण्यात्मा महर्षियों के द्वारा साक्षात्कृत इन्हीं दार्शनिक सिद्धान्तों के बल पर। तत्त्वज्ञान तो भारतीय संस्कृति और धर्म की मूल प्रतिष्ठा है जिसके उदय और अभ्युदय से परिचित होना प्रत्येक शिक्षित भारतीय का परम पावन कर्तव्य है। -- आचार्य बलदेव उपाध्याय, 'भारतीय दर्शन' के अपने 'व्यक्तव्य' में
  • भारतीय संस्कृति में ही हम यह विचार पाते हैं कि 'कुछ नहीं' भी कुछ हो सकता है। ग्रीक दर्शन उन्हें इस तरह का विचार आने से रोकता है। -- John D. Barrow ; The Book of Nothing (2009) chapter nought, "Nothingology—Flying to Nowhere"
  • बीसवीं शताब्दी के दो आधारभूत सिद्धान्त, क्वाण्टम सिद्धान्त तथा आपेक्षिकता का सिद्धान्त, दोनों हमको इस बात के लिये बाध्य करते हैं कि हम संसार को हिन्दू-बौद्ध दृष्टि से देखें। -- Fritjof Capra ; source: The Tao of Physics, Fritjof Capra.Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • दर्शन का सम्पूर्ण इतिहास भारत के पास संक्षिप्त रूप में विद्यमान है। -- Victor Cousin quoted in Londhe, S. (2008). A tribute to Hinduism: Thoughts and wisdom spanning continents and time about India and her culture. New Delhi: Pragun Publication.
  • अट्ठारहवीं शताब्दी के एक राजपूत चित्रकला में हमें भारतीय "दर्शन स्कूल" के दर्शन होते हैं। इस चित्र में गुरु वृक्ष के नीचे एक चटाई पर बैठे हैं और शिष्य उनके पास घास पर बैठे हैं। ऐसे दृष्य सर्वत्र देखने को मिलते थे क्योंकि भारत में दर्शन के शिक्षक इतनी अधिक संख्या में थे जितने कि बेबिलोनिया में व्यापारी। किसी दूसरे देश में इतने अधिक वैचारिक पन्थ नहीं हुए। बुद्ध के एक उपदेश में हमे देखने को मिलता है कि उस समय के दार्शनिकों में आत्मा के बारे में बासठ भिन्न-भिन्न सिद्धान्त थे। काउण्ट किसर्लिंग कहते हैं कि "उत्कृष्टता के भी पार पहुँचे हुए इस देश" के पास संस्कृत में दार्शनिक और धार्मिक विचारों को अभिव्यक्त करने वाले जितने शब्द हैं उतने ग्रीक, लैटिन, और जर्मन तीनों को मिलाकर भी नहीं हैं। -- विल डुरण्ट, Our Oriental Heritage : India and Her Neighbors.
  • मुसलमानी आक्रमणों ने हिन्दू दर्शन के महान युग का अन्त कर दिया। पहले मुसलमानों के आक्रमण तथा बाद में ईसाइयों के आक्रमण के कारण से बचने के लिये हिन्दू धर्म ने एक भयभीत एकता का रूप धारण कर लिया। अब शास्त्रार्थ को राजद्रोह समझा जाने लगा और रचनात्मक मतभिन्नता दबकर विचार की स्थिर एकरूपता में बदल गयी। बारहवीं शताब्दी आते आते रामानुज (1050 ई) जैसे सन्तों ने वेदान्त की प्रणाली की पुनर्व्याख्या करते हुए इसे विष्णु, राम और कृष्ण की रूढ़िवादी पूजा का रूप दे दिया जबकि शंकराचार्य ने वेदान्त को एक ऐसा धर्म बनाने की कोशिश की थी जो दार्शनिकों के लिए हो।
  • हमारे न्यूटन के चिरजीवी सम्मान को कम करने का मेरा बिल्कुल इरादा नहीं है, किन्तु मैं इस बात की पुष्टि करने का साहस कर सकता हूँ कि उनका पूरा धर्मशास्त्र (थियोलोजी), और उनके दर्शन का कुछ भाग वेदों में पाया जा सकता है और यहाँ तक ​​कि सूफियों की कृतियों में भी पाया जा सकता है। सबसे सूक्ष्म आत्मा, जिसके बारे में उन्हें संदेह था कि वे प्राकृतिक शरीरों में व्याप्त हैं, और उनमें छिपे हुए हैं, जो आकर्षण और विकर्षण का कारण बनते हैं; प्रकाश का उत्सर्जन, परावर्तन और अपवर्तन; विद्युत, तन्तु (calefaction), संवेदना और पेशीय गति को हिन्दुओं ने 'पंचम तत्व' के रूप में वर्णित किया है, जो उन्हीं शक्तियों से सम्पन्न है। और सार्वभौमिक आकर्षक शक्ति के संकेत तो वेदों में भरे पड़े हैं, वेद इसका स्रोत मुख्य रूप से सूर्य को बताते हैं, इसलिए सूर्य को 'आदित्य', या आकर्षित करने वाला कहा जाता है। -- सर विलियम जोन्स, कलकता में एशियाटिक सोसायटी के सामने अपने संभाषण में (२० फरव्री, १७९४)
  • छः दार्शनिक सम्प्रदायों के दर्शनशास्त्र में पुरानी अकादमी (old Academy), स्टोआ (Stoa), लिसेयुम (Lyceum) की सभी तत्वमीमांसा विद्यमान है। इसी प्रकार वेदान्त या इसके अनेकों सुन्दर भाष्यों को पढ़ने के बाद यह विश्वास किए बिना नहीं रह सकते कि पाइथागोरस और प्लेटो ने भारत के ऋषि-मुनियों के साथ समान स्रोत से अपने उदात्त सिद्धान्त (sublime theories) प्राप्त किए थे। -- विलियम जोन्स ; स्रोत: The Philomathic Journal, The Philomathic institution. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • भारतीय दार्शनिकों की सूक्ष्मताएँ (इतनी श्रेष्ठ हैं कि उनके सामने) अधिकांश महान यूरोपीय दार्शनिक स्कूली बच्चों जैसे लगते हैं। मैने दो वर्ष तक चार्ल्स लैनमैन के अधीन संस्कृत का अध्ययन किया, फिर एक वर्ष तक जेम्स वुड्स के मार्गदर्शन में पतंजलि की तत्वमीमांसा का अध्ययन किया , इसके बाद मैं प्रबुद्ध रहस्य (enlightened mystification) की स्थिति में आ गया। -- टी एस इलिअट ; स्रोत : After Strange Gods, T.S. Eliot. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • जापानी विचारों का अध्ययन, भारतीय विचारों का (ही) अध्ययन है। -- D.T. Suzuki, quoted in "Western Admirers of Ramakrishna and His Disciples" by Gopal Stavig, पृष्ठ 834
  • पश्चिमी जगत में, भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के बारे में हमारी समझ हमारे अपने इतिहास के रंग में रंगी हुई है। इन सम्प्रदायों के बीच सम्बन्धों के लिए डिफ़ॉल्ट मॉडल अक्सर अनजाने में पश्चिमी धार्मिक इतिहास से प्राप्त मॉडल पर आधारित होता है (जो ये हैं): तीनों धर्मों के बीच शत्रुता, ईसाइयों के विभिन्न संप्रदायों के आधुनिक सम्बन्ध, या यहाँ तक ​​​​कि प्रारंभिक ईसाई-धर्म के रूढ़िवादी (ऑर्थोडोक्स) और विधर्मी (हेटेरोडोक्स) संप्रदायों के बीच संबंध। -- एंड्रयू निकोलसन, राजीव मल्होत्रा: इंद्र का नेट, पृष्ठ 169, पहला संस्करण में में उद्धृत।
  • इस नई भौतिकी और धर्म के बीच के सम्बन्ध को हाइजेनबर्ग और श्रोडिंगर (दोनों भौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता) ने क्वांटम यांत्रिकी की खोज के बाद उल्लेख किया है। इन दोनों अग्रदूतों ने कहा है कि, जहाँ तक उनकी जानकारी है, उपनिषद एकमात्र स्रोत है जो क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार 'वास्तविकता की विरोधाभासी प्रकृति' के अनुरूप हैं। -- राजीव मल्होत्रा, इंद्राज नेट, पृ. 252, पहला संस्करण।
  • मैं यह सोचता हूँ कि कोई यह पता लगाएगा कि भारत का गहनतम चिन्तन ने किस प्रकार ग्रीस और वहां से हमारे वर्तमान दर्शन तक की यात्रा की। -- जॉन व्हीलर ; स्रोत: इंडियन कॉन्क्वेस्ट्स ऑफ द माइंड, सैबल गुप्ता। गवली, सलिल (2013) से उद्धरित। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
  • यह (भारतीय) दर्शन के साथ मेरी पहली मुलाकात थी। इसने मेरी अस्पष्ट अटकलों की पुष्टि की और एक बार में ही यह तर्कपूर्ण और असीम प्रतीत हो रहा था। -- विलियम बटलर यीट्स ; स्रोत: भारत और विश्व सभ्यता, डी.पी. सिंघल ने गवली, सलिल (2013) से उद्धरित किया। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
  • वेदान्त दर्शन को अन्य सभी दर्शनों से जो अलग करता है वह यह है कि यह धर्म और दर्शन दोनों है। -- मैक्स मुलर ; स्रोत: वेदान्त दर्शन पर तीन व्याख्यान, मैक्स मूलर गवली, सलिल (2013) से उद्धृत। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
  • प्लेटो भी मुझे सभी मुख्य बातों में केवल किसी ब्राह्मण का एक अच्छा शिष्य लगता है। -- फ्रेडरिक नीत्शे ; Letter to Peter Gast, May 31, 1888. KSA 14.420. Quoted from Elst, Koenraad. Manu as a weapon against egalitarianism: Nietzsche and Hindu political philosophy in : Siemens & Vasti Roodt, eds.: Nietzsche, Power and Politics (Walter de Gruyter, Berlin 2008).
  • मीमांसा दर्शन, हिन्दू चिन्तन परम्परा के सबसे उत्कृष्ट रूपों में से एक है। इसके तुल्य विश्व में दूसरा दर्शन नहीं है। -- फ्रांसिस क्लूनी (Francis Clooney), हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, जिन्होंने हिन्दू धर्म में विशेषज्ञता प्राप्त की है।
  • वैशेषिक दर्शन में भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। परमाणुवाद को ईश्वर से जोड़कर आध्यात्मिक आधार दिया गया है। आत्मा और मोक्ष सम्बन्धी विचार संतोषप्रद नहीं है। यहाँ मोक्षावस्था जड़ है जहाँ कोई अनुभूति नहीं है इसीलिए शंकर इसे ‘अर्द्धवैनाशिक’ और श्रीहर्ष ‘वास्तविक उलूक दर्शन’ कहकर इसकी आलोचना करते हैं।
  • धर्मव्याख्यातुकामस्य षट् पदार्थविवेचनम्।
समुद्रं गन्तुकामस्य हिमवद् गमनं यथा॥ -- अज्ञात
अर्थात् जैसे कोई मनुष्य समुद्र पर्यन्त जाने की इच्छा रखते हुए हिमालय में चला जाता है, उसी प्रकार धर्म के व्याख्यान के इच्छुक (कणाद मुनि) षट् पदार्थों का विवेचन करते रह गए। ध्यातव्य है कि कणादकृत विशेषिकसूत्र का पहला सूत्र 'अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः' है जो इंगित करता है कि इस ग्रन्थ का आरम्भ 'धर्म की व्याख्या' के प्रयोजन से किया गया था।
  • सर्वेपल्ली राधाकृष्णन आदि विद्वानों ने पूर्वमीमांसा की इस बात के लिये आलोचना की है कि यह ईश्वर, आत्मा, संसार, पदार्थ आदि दार्शनिक विषयों के बारे में मौन है और पूरा ध्यान यज्ञ के कर्मकाण्डों पर केन्द्रित है। अर्थात इसमें ज्ञानमीमांसा बहुत कम और कर्ममीमंसा बहुत अधिक है।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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