भगिनी निवेदिता
भगिनी निवेदिता , स्वामी विवेकानन्द की शिष्या और प्रखर भरतप्रेमी थीं। भारत के लिए सेवा का संकल्प और भारतीयों के लिए किया गया त्याग कैसे भूला जा सकता है? उन्होंने उस समय के गुलाम देश भारत के अनजान लोगों के बीच शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र में सेवा देने का कार्य किया। अंग्रेजों की भारतीयों के ऊपर क्रूरता देखी तो सहन नहीं कर पाईं और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद गईं। भगिनी निवेदिता ने सेवा का कार्य निस्वार्थ भाव से किया, ना कोई इच्छा-अनिच्छा, ना कोई धर्मांतरण का छलावा। वह भारत में आकर भारतीयता के रंग में रंग ही गईं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने निवेदिता के कार्य को देख कर उनको ”लोकमाता” का सम्मानित नाम दिया। उनका मानना था कि मातृभूमि के पुनर्जागरण के लिए कला में "भारतीयता का का पुनर्जन्म" परम आवश्यक है। इसके लिये वे युवा विद्यार्थियों से लम्बी-लम्बी चर्चा करतीं थीं।
उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्हें इस बत पर विश्वास नहीं था कि असहयोग और निष्क्रिय प्रतिरोध स्वतंत्रता प्राप्त करने का एकमात्र साधन हो सकता है। इसलिए उन्होंने श्री अरबिन्द घोष की आक्रामक राष्ट्रवाद की अवधारणा का समर्थन किया। गरम दल के नेता बिपिन चंद्र पाल उनके मित्र थे और वह नियमित रूप से उनके समाचार पत्र न्यू इंडिया में लेख लिखते थे।
भारत के श्रेष्ठ प्रतिभा से सम्पन्न लोगों को बढ़ावा देने के अपने मिशन के रूप में उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बसु के शोध कार्य को आर्थिक रूप से समर्थन दिया और उनके कार्य को विश्व पटल तक ले जाने में मदद की।
उनकी प्रमुख कृतियाँ ये हैं :- काली द मदर , द वेब ऑफ इंडियन लाइफ, क्रैडल टेल्स ऑफ हिंदूइज्म , मिथ्स एंड लेजेंड्स ऑफ द हिंदूज एंड बुद्धिस्ट्स , द मास्टर ऐज आई सॉ हिम , नोट्स ऑफ सम वांडरिंग्स विद द स्वामी विवेकानन्द आदि ।
स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण मात्र 44 साल की उम्र में 13 अक्टूबर 1911 को बंगाल के दार्जीलिंग में उनका निधन हो गया। हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाले हुगली नदी पर बने पुल को 'निवेदिता सेतु' नाम दिया गया है, जो भारत के लिये उनके महान उपकार की तुलना में अल्प है।
विचार
सम्पादन- भारतीय लोगों के सामने सबसे पहले कार्यों में से एक अपने इतिहास को फिर से लिखना है।
- क्या भास्कराचार्य और शंकराचार्य के देशवासियों को न्यूटन और डार्विन के देशवासियों के सामने खुद को हीन समझना चाहिए?-- 'कर्मयोगिन' पत्रिका में अपने लेख में भगिनी निवेदिता
- भारत स्वयं मास्टर दस्तावेज़ है जिसे हमें भारतीय इतिहास को जानने के लिए पढ़ना होगा। [१]
- यदि भारत स्वयं भारतीय इतिहास की पुस्तक है, तो इससे पता चलता है कि यात्रा ही उस इतिहास को पढ़ने का सच्चा साधन है।
- याद रखें कि सत्य अपनी संपूर्णता में प्रकट होता है, न केवल बुद्धि के माध्यम से, बल्कि हृदय और इच्छाशक्ति के माध्यम से भी। इसलिए, कभी भी उस अहसास पर संतुष्ट न रहें जो पूरी तरह से मानसिक है... हमारे पास भाषा के अलावा अन्य इंद्रियां और अन्य क्षमताएं भी हैं। हमारे पास अंग और मस्तिष्क भी हैं। शरीर का उपयोग करें. सत्य की खोज में सभी इंद्रियों का उपयोग करें, यहां तक कि अंगों का भी उपयोग करें। जो न केवल मन से पांडुलिपियों और पुस्तकों के माध्यम से सीखा जाता है बल्कि आंखों और स्पर्श से, यात्रा और काम के माध्यम से भी सीखा जाता है, वही वास्तव में समझा जाता है। इसलिए, यदि आप भारत को समझना चाहते हैं, तो प्रत्येक युग के महान ऐतिहासिक केंद्रों का दौरा करें। धरती को पलटें और तराशे हुए पत्थरों को अपने हाथों से सहलाएं। उस दृश्य की ओर चलें जिसे आप देखना चाहते हैं... उस स्थान पर खड़े हों जहां कोई घटना घटी हो...।
- इतिहास को भौगोलिक दृष्टि से और भूगोल को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
- ...भारत एक संश्लेषण (synthesis) है और हमेशा से रहा है। किसी भी प्रकार का विश्लेषण - चाहे वह नस्लीय, भाषाई या क्षेत्रीय कुछ भी हो - कभी भी भारत के अध्ययन के बराबर नहीं होगा... संपूर्ण का कोई भाग संपूर्ण के समान नहीं होता।[२]
- ... भारत के निर्माण के लिए जिन सभी टुकड़ों को एक साथ जोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा, हमें स्वयं भारत को पहचानना होगा।... कोई भी भारतीय प्रांत अपने विकास के लिए, अपने रास्ते पर चलते हुए, बिना किसी चुनौती के और अकेले अपने रास्ते पर नहीं चलता है।[३]
- कुछ लेखक बौद्ध भारत में रुचि रखते हैं (यदि वास्तव में हमें इस तरह के शब्द का उपयोग करने का कोई अधिकार है) और कुछ मराठा या सिख या इंडो-इस्लामिक इतिहास या अन्य के विभिन्न चरणों में रुचि रखते हैं। लेकिन इनमें से किसी ने भी भारत के हृदय-की धड़कन को नहीं पकड़ा है। 'भारत' ही भारतीय इतिहास को गौरवशाली बनाता है।
- वे भारतीय इतिहास और साहित्य में प्रकट 'भारतीय मन' की खोज करने में सक्षम थे। -- रमेश चन्दर दत्त के लेखन के बारे में भगिनी निवेदिता
- बिना उद्देश्य के ज्ञान महज पांडित्य है।
- भविष्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा है कि हम इसे अपनी विरासत के बारे में हमारी अपनी समझ की सहायता से, अतीत द्वारा हमारे पास छोड़ी गई सामग्रियों से निर्मित करें।
- यह चित्र शुरू से अंत तक भारतीय हृदय के लिए भारतीय भाषा में एक निवेदन (अपील) है। यह नई शैली की पहली महान कृति है। यदि मेरा बस चले तो मैं इसे फिर से हजारों की संख्या में छापूं और इसे पूरे देश में फैला दूँ जब तक कि केदार नाथ और केप कोमोरिन के बीच एक भी किसान की झोपड़ी न बची रहे जिसकी भित्ति पर यह चित्र न लगा हो। जब कोई बार-बार माता के गुणों को देखता है, तो वह माता की कोमलता और पवित्रतता से अवश्य प्रभावित होता है। -- अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा चित्रित 'भारत माता' के चित्र पर भगिनी निवेदिता
- ..हमारे परिश्रम का फल लोगों को प्रदान करना चाहिए, स्वार्थवश स्वयं उसका उपभोग नहीं करना चाहिए। अपने द्वारा अकेले देखे गए उच्च दृष्टिकोण की तुलना में उदारतापूर्वक साझा की गई कम उपलब्धि भी बेहतर है। यह बेहतर है क्योंकि ज्ञान की उन्नति के लिए अंततः यह अधिक प्रभावी है।[५]
- सब कुछ हमारे मन पर अवलंबित है। बाह्य जगत की अपनी कोई शक्ति नहीं, हम उसे जो देंगे वही उसकी शक्ति है। बाह्य जगत कितना ही प्रभावशाली क्यों न दिखाई दे, वस्तुतः वह हमारे मन का एक खिलौना मात्र है; अपने मन के विचारों की क्षीण अभिव्यक्ति मात्र है। भगवान बुद्ध कहते थे, “हम जो कुछ हैं अपने विचारों का फल है, अपने चिन्तन का परिणाम है। हमारे जीवन का अघिष्ठान हमारे विचार हैं, विचार ही हमें आकार रंग, रुप प्रदान करते है।"
- किसी विदेशी के सामने अपना झंडा कभी न झुकाएं। अनुसंधान की जिस विशेष शाखा को आपने चुना है, उसमें सबसे महान प्राधिकारी (authority) बनने का प्रयास करें। यहां भारत को प्रथम स्थान पर पहचान मिलनी चाहिए। -- भगिनी निवेदिता, प्रसिद्ध इतिहसकार सर यदुनाथ सरकार से
भगिनी निवेदिता के बारे में महापुरुषों के विचार
सम्पादन- निवेदिता जिस प्रकार भारत को प्रेम करती हैं, भारतवासियों ने भी भारत को उतना प्रेम किया होगा – इसमें संदेह है। -- विपिनचंद्र पाल
- मैंने भारत से प्रेम करना सीखा स्वामी विवेकानंद को पढ़ कर, और स्वामी विवेकानंद को समझा भगिनी निवेदिता के पत्रों से। -- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
- जिन विदेशियों को भारत से सचमुच प्रेम था, उनमें निवेदिता का स्थान सर्वोच्च है। -- अवनीन्द्र नाथ ठाकुर]]
- वह भारत में भले ही ना पैदा हुई हों, लेकिन भारत के लिए पैदा हुई थीं। -- स्वामीनाथन गुरुमूर्ति