वह कारण या मुख्य हेतु जिससे ज्ञान हो, प्रमाण कहलाता है । अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो, या वह बात जिससे कोई दूसरी बात सिद्ध हो ।

प्रमाण, न्याय का मुख्य विषय है । गौतम ने चार प्रकार के प्रमाण माने हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्द । इंद्रियों के साथ संबंध होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है । लिंग (लक्षण) और लिंगी दोनों के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमान कहते हैं । किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य द्वारा दूसरी वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान कहलाता है । जैसे, गाय के सदृश ही नील गाय होती है । आप्त या विश्वासपात्र पुरुष की बात को शब्द प्रमाण कहते हैं । इन चार प्रमाणों के अतिरिक्त मीमांसक, वेदान्ती और पौराणिक चार प्रकार के और प्रमाण मानते हैं—ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव । जो बात केवल परम्परा से प्रसिद्ध चली आती है वह जिस प्रमाण से मानी जाती है उसको ऐतिह्य प्रमाण कहते हैं । जिस बात से बिना किसी देखी या सुनी बात के अर्थ में आपत्ति आती हो उसके लिये अर्थापत्ति प्रमाण हैं । जैसे, मोटा देवदत्त दिन को नहीं खाता, यह जानकर यह मानना पड़ता है कि देवदत्त रात को खाता है क्योंकि बिना खाए कोई मोटा हो नहीं सकता । व्यापक के भीतर व्याप्य—अंगी के भीतर अंग—का होना जिस प्रमाण से सिद्ध होता है उसे संभव प्रमाण कहते हैं । जैसे, सेर के भीतर छटाँक का होना । किसी वस्तु का न होना जिससे सिद्ध होता है वह अभाव प्रमाण है । जैसे चूहे निकलकर बैठे हुए हैं इससे बिल्ली यहाँ नहीं है । पर नैयायिक इन चारों को अलग प्रमाण नहीं मानते, अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं ।

चार्वाक केवल प्रत्येक प्रमाण को स्वीकार करते हैं। बौद्ध, प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण को मानते हैं। सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को प्रमाण माना गया है। पातंजल दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को स्वीकारा गया है। वैशेषिक दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानता है। रामानुज पूर्णप्रज्ञ—प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को। धर्मशास्त्र में किसी व्यवहार या अभियोग के निर्णय में चार प्रमाण माने गए हैं—लिखित (दस्तावेज), मुक्ति (कब्जा), साक्ष्य (गवाही) और दिव्य । प्रथम तीन प्रकार के प्रमाण मानुष कहलाते हैं ।

उक्तियाँ

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  • प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डाहेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात् निःश्रेयसाधिगमः -- कपिल-कृत न्यायसूत्र का प्रथम सूत्र
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष/कल्याण) की प्राप्ति होती है।
  • प्रमाकरणं प्रमाणम् -- न्यायदर्शन
प्रमा के करण का नाम प्रमाण है (अर्थात यथार्थ ज्ञान का साधन प्रमाण है।)
  • प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् [] --
जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते हैं।
  • अनुभूतिः प्रमाणम् -- प्रभाकर सम्प्रदाय
अनुभूति प्रमाण है।
  • कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् । -- शास्त्रदीपिका
अर्थात जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।
  • अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम् -- प्रमाणवार्तिकभाष्यम्
अविसंवादि (यथार्थ) ज्ञान प्रमाण है।
  • सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् -- जैन दर्शन (प्रमाणसामान्यप्रकाश)[]
सम्यक ज्ञान प्रमाण है।
  • प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्। -- जैन आचार्य सिद्धसेन
स्व और पर को पकाशित करने वाला अबाधित ज्ञान प्रमाण है।
  • प्रमाणं स्वार्थ निर्णीतिस्वभाव ज्ञानम् -- अभयदेवसूरि, अपने ग्रन्थ तत्त्वबोधविधायिनी में
अपना (स्व) एवं दूसरों का (अर्थ) के निर्णायक स्वभाव वाला ज्ञान ही प्रमाण है।
  • अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम् -- भाट्टमीमांसक
अनधिगत तथा यथार्थ के निश्चायक को प्रमाण कहते हैं।
  • प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । -- चार्वाक का दर्शन
प्रत्यक्ष ही (एकमात्र) प्रमाण है। (अथवा, जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है।)
  • नमः प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे -- (एक दक्षिणात्य कवि जो मिथिला में आने के बाद में प्रमाण्यवादी (नैय्यायिक) बन गये थे। )
प्रमाण्यवाद को नममस्कार है जिसने मेरे कवित्व का अपहरण कर लिया है।
  • प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि -- योगसूत्र (१.७)
अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण हैं ।
  • लोकः अवश्यं शब्देषु प्रमाणम् --
  • व्याकरणे पाणिनिः प्रमाणम्
व्याकरण में पाणिनि प्रमाण हैं।
  • वेदाः प्रमाणाः
वेद प्रमाण हैं।
  • न प्रमाणेन नोत्साहात् सत्त्वस्थो भव पाण्डव
  • प्रमाणभूताय जगद्हितैषिणे प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तायिने ।
प्रमाणसिद्धये स्वमतात् समुच्चयः करिष्यते विप्रसितादिहैकिकः ॥ -- दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय के प्रथम श्लोक में, ग्रन्थ लिखने का प्रयोजन बताते हुए
जगत के हितैषी, प्रमाणभूत उपदेष्टा बुद्ध को नमस्कार कर जहाँ-तहाँ फैले हुए अपने मतों को यहाँ एक जगह प्रमाणसिद्धि के लिये जमा किया जायेगा।
  • प्रत्यक्षमनुमानं हि प्रमाणं द्विलक्षणम् ।
प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत ॥ -- दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय
भावार्थ - प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो प्रमाण हैं। इनके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता।
  • अतल, वितल अरु सुतल तलातल और महातल जान ।
पाताल और रसातल मिलि कै सातौ भुवन प्रमान ॥ -- सूरदास
  • बिनु पुरुषारथ जो बकै ताको कौन प्रमान ।
करनी जंबुक जून ज्यों गरजन सिंह समान ॥ -- दीनदयाल गिरि
  • बरख चारिदस बिपिन बसि करि पितु वचन प्रमान ।
आइ पाय पुनि देखिहौ मन जनि करसि गलान ॥ -- तुलसीदास
  • मिलहिं तुमहि जब सप्त ऋषीसा । तब जनेउ प्रमान बागीसा ॥ -- तुलसीदास


  • चित्र की सहयता से कुछ भी सिद्ध किया जा सकता है। -- कार्लाइल

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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