किसी काम को बिना परीक्षा के नहीं करना चाहिये, अच्छी तरह परीक्षा करके ही करना चाहिये। क्योंकि बाद में दुख होता है, जैसे ब्राह्मणी ने नेवले को बिना परीक्षा के ही मार दिया था।
परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षाः सुवर्णवद्वंचनभीतचित्ताः॥ -- आचार्य अमितगति, ‘श्रावकाचार’ में
विचारवान् पुरुष तो सर्वसमर्थ लक्ष्मी प्रदान कराने वाले धर्म को ठगाये जाने के भय से स्वर्ण की भांति परीक्षा करके ही ग्रहण करते हैं।
एकान्तः शपथश्चैव वृथा तत्त्वपरिग्रहे।
सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः॥
दाहच्छेदकषा शुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया।
दाहच्छेदकषाऽशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया॥ -- आचार्य सोमदेव सूरि ‘यशस्तिलकचम्पू’ में
पक्ष और शपथ-दोनों ही तत्त्वबोध के लिए व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुष परप्रत्ययमात्र से तत्त्व का विश्वास नहीं करते। दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध हुए स्वर्ण में शपथ क्या करेगी ? तथा दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध न हुए स्वर्ण में भी शपथ क्या करेगी ?
वीतदोषकलुष: स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते॥ -- आचार्य हेमचन्द्रसूरि
हे वीर प्रभु! मुझे केवल श्रद्धामात्र से आपके प्रति पक्षपात नहीं है और द्वेषमात्र से दूसरे देवों में अरुचि नहीं है, परन्तु मैंने आप्तत्व की यथावत् परीक्षा करके ही आपका ही आश्रय ग्रहण किया है। किसी भी मत या सम्प्रदाय में हो, कैसा भी हो, किसी भी नाम से जाना जाता हो, परन्तु यदि वह सर्व दोष-कालुष्य से रहित हो गया हो तो हे भगवन्! वह तुम ही हो और तुम्हें ही मेरा नमस्कार हो।
तापाच्छेदान्निषात् ग्राह्य सुवर्णमिव पण्डिताः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्॥ -- गौतम बुद्ध
हे विद्वान् भिक्षुओ! जिस प्रकार स्वर्ण को भलीभांति तपाकर, काटकर और कसौटी पर कसकर ही ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार तुम भी मेरे वचनों को परीक्षा करके ही ग्रहण करना, न कि गौरव से।
व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणांगणे ।
विनये भृत्यपरीक्षा दानपरीक्षाश्च दुर्भिक्षे ॥ -- विदुर नीति
सच्चे मित्र की परीक्षा बुरी संगति के समय में होती है। वीर की परीक्षा युद्ध में होती है। सेवक की परीक्षा उसके विनम्रतापूर्वक व्यवहार से होती है। दानवीर की परीक्षा दुर्भिक्ष (अकाल) के समय होती है।
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है। दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्॥ -- महाभारत
जो विश्वसनीय नहीं है, उस पर कभी भी विश्वास न करें। परन्तु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अति विश्वास न करें। क्योंकि अधिक विश्वास से भय उत्पन्न होता है। इसलिए बिना उचित परीक्षा लिए किसी पर भी विश्वास न करें।
बुद्धिमान मनुष्य को अपनी बुद्धि से परीक्षा करके, अच्छी तरह परखकर, अन्य लोगों के विचार सुनकर, देखकर, और उसके बाद समझकर ज्ञानी लोगों के साथ मैत्री करनी चाहिये।
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
पुराना होने से न तो कोई काव्य उत्कृष्ट हो जाता है और न नया होने से निकृष्ट। ज्ञानी लोग दोनों को परखकर उनमें से वरेण्य को अपनाते हैं। मूढ़ औरों के कहने पर चलते हैं।
विधि (भाग्य) की कैसी विडम्बना है कि वह किसी व्यक्ति के कुलीन , विद्वान, सच्चरित्र, तथा शूरवीर होने की भली प्रकार परीक्षा करने के उपरान्त एक चतुर कन्या के समान दरिद्रता उसके पल्ले बांध देता है।
धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिये चारी ॥ -- तुलसीदास
विपत्ति काल में धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा होती है।
बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बडी परीक्षा है। -- आर. जी. इंगरसोल
अपने अन्दर योग्यता का होना अच्छी बात है , लेकिन दूसरों में योग्यता खोज पाना ( नेता की ) असली परीक्षा है। -- एल्बर्ट हब्बार्ड
बाधाएँ व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिये, मंद नहीं पड़ना चाहिये । -- यशपाल
किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं । -- अज्ञात
तद्यथा प्राप्तोपदेश: प्रत्यक्ष मनुमानचेति॥ -- सुश्रुत
पंचज्ञानेन्द्रियों से तथा छठवाँ प्रश्न के द्वारा अर्थात् नेत्रों से देखकर कान से सुनकर, नासिका से गंध लेकर, जिह्वा से रस जानकर, त्वचा से स्पर्श करके, प्रश्न द्वारा रोगी या उसके सम्बन्धी से रोगी की उम्र आदि सब जानकारी इनका ज्ञान करना इस षड्विध परीक्षा में प्रतिपाद्य है।