परीक्षा अर्थात जाँच (टेस्ट)। भारतीय परम्परा में परीक्षा का अत्यन्त महत्व है। इस पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। अग्निपुराण में 'रत्नपरीक्षा' नामक एक अध्याय है। विद्यापति ने 'पुरुषपरीक्षा' नामक एक नीति-कथा ग्रन्थ की रचना की है। शान्तरक्षित द्वारा रचित 'तत्त्वसंग्रह' नामक ग्रन्थ में २६ अध्यायों के नाम अलग-अलग परीक्षा के नाम पर हैं, जैसे- प्रकृतिपरीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, उभयपरीक्षा, शब्दब्रह्मपरीक्षा, आत्मपरीक्षा आदि। इसी प्रकार प्रमाणसमुच्चय में छः परिच्छेदों के के नाम ये हैं- (१) प्रत्यक्ष-परीक्षा (२) स्वार्थानुमान-परीक्षा (३) परार्थानुमान-परीक्षा (४) दृष्टान्त-परीक्षा (५) अपोह-परीक्षा (६) जाति-परीक्षा।

नागार्जुन द्वारा रचित मूलमध्यमककारिका के २७ अध्यायों के नाम भी इसी प्रकार के हैं- प्रत्ययपरीक्षा गतागतपरीक्षा चक्षुरादीन्द्रियपरीक्षा स्कन्धपरीक्षा धातुपरीक्षा रागरक्तपरीक्षा संस्कृतपरीक्षा कर्मकारकपरीक्षा पूर्वपरीक्षा अग्नीन्धनपरीक्षा पूर्वपरकोटिपरीक्षा दुःखपरीक्षा संस्कारपरीक्षा संसर्गपरीक्षा स्वभावपरीक्षा बन्धनमोक्षपरीक्षा कर्मफलपरीक्षा आत्मपरीक्षा कालपरीक्षा सामग्रीपरीक्षा संभवविभवपरीक्षा तथागतपरीक्षा विपर्यासपरीक्षा आर्यसत्यपरीक्षा निर्वानपरीक्षा द्वादशाङ्गपरीक्षा दृष्टिपरीक्षा

धर्मकीर्ति की सम्बन्धपरीक्षावृत्ति तथा सम्बन्धपरीक्षनुसार । अमितगति की धर्मपरीक्षा।

उक्तियाँ

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  • यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥ -- चाणक्यनीति
जिस तरह सोने की परख घिसकर, छेदकर, गरम करके और पीटकर की जाती है, वैसे ही मनुष्य की परख उसके त्याग, शील, गुण और कर्म से होती है।
  • अपरीक्ष्य न कर्त्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम् ।
पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुलार्थतः ॥ -- पञ्चतन्त्र
किसी काम को बिना परीक्षा के नहीं करना चाहिये, अच्छी तरह परीक्षा करके ही करना चाहिये। क्योंकि बाद में दुख होता है, जैसे ब्राह्मणी ने नेवले को बिना परीक्षा के ही मार दिया था।
  • लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थं सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनं।
परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षाः सुवर्णवद्वंचनभीतचित्ताः॥ -- आचार्य अमितगति, ‘श्रावकाचार’ में
विचारवान् पुरुष तो सर्वसमर्थ लक्ष्मी प्रदान कराने वाले धर्म को ठगाये जाने के भय से स्वर्ण की भांति परीक्षा करके ही ग्रहण करते हैं।
  • एकान्तः शपथश्चैव वृथा तत्त्वपरिग्रहे।
सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः॥
दाहच्छेदकषा शुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया।
दाहच्छेदकषाऽशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया॥ -- आचार्य सोमदेव सूरि ‘यशस्तिलकचम्पू’ में
पक्ष और शपथ-दोनों ही तत्त्वबोध के लिए व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुष परप्रत्ययमात्र से तत्त्व का विश्वास नहीं करते। दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध हुए स्वर्ण में शपथ क्या करेगी ? तथा दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध न हुए स्वर्ण में भी शपथ क्या करेगी ?
  • पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रहः॥ -- आचार्य हरिभद्रसूरि , ‘लोकतत्त्वनिर्णय’ में
मुझे महावीर से कोई पक्षपात नहीं है और कपिलादि से कोई द्वेष नहीं है, परन्तु जिसके वचन युक्तिसंगत हों उसी का ग्रहण करना चाहिए।
  • न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु।
यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥
यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया।
वीतदोषकलुष: स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते॥ -- आचार्य हेमचन्द्रसूरि
हे वीर प्रभु! मुझे केवल श्रद्धामात्र से आपके प्रति पक्षपात नहीं है और द्वेषमात्र से दूसरे देवों में अरुचि नहीं है, परन्तु मैंने आप्तत्व की यथावत् परीक्षा करके ही आपका ही आश्रय ग्रहण किया है। किसी भी मत या सम्प्रदाय में हो, कैसा भी हो, किसी भी नाम से जाना जाता हो, परन्तु यदि वह सर्व दोष-कालुष्य से रहित हो गया हो तो हे भगवन्! वह तुम ही हो और तुम्हें ही मेरा नमस्कार हो।
  • तापाच्छेदान्निषात् ग्राह्य सुवर्णमिव पण्डिताः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्॥ -- गौतम बुद्ध
हे विद्वान् भिक्षुओ! जिस प्रकार स्वर्ण को भलीभांति तपाकर, काटकर और कसौटी पर कसकर ही ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार तुम भी मेरे वचनों को परीक्षा करके ही ग्रहण करना, न कि गौरव से।
  • व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणांगणे ।
विनये भृत्यपरीक्षा दानपरीक्षाश्च दुर्भिक्षे ॥ -- विदुर नीति
सच्चे मित्र की परीक्षा बुरी संगति के समय में होती है। वीर की परीक्षा युद्ध में होती है। सेवक की परीक्षा उसके विनम्रतापूर्वक व्यवहार से होती है। दानवीर की परीक्षा दुर्भिक्ष (अकाल) के समय होती है।
  • आपदि मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा च रणाङ्गणे।
विनये वंशपरीक्षा च शीलपरीक्षा तु धनक्षये॥
अर्थ : विपदा में मित्र की, युद्ध में वीर की, कुलीनता की की विनय में और शील की परीक्षा धन के नष्ट होने पर होती है।
  • धातुः परीक्षा दुर्भिक्षे स्त्रीपरीक्षा च निर्धने।
युद्धे शूरपरीक्षा च मृत्योरत्यन्तमापदि ॥
  • जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। 
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है। दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है।
  • न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्॥ -- महाभारत
जो विश्वसनीय नहीं है, उस पर कभी भी विश्वास न करें। परन्तु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अति विश्वास न करें। क्योंकि अधिक विश्वास से भय उत्पन्न होता है। इसलिए बिना उचित परीक्षा लिए किसी पर भी विश्वास न करें।
  • मत्या परीक्ष्य मेधावी बुद्ध्या संपाद्य चासकृत्।
श्रुत्वा दृष्ट्वाथ विज्ञाय प्राज्ञैर्मैत्रीं समाचरेत् ॥ -- महाभारत (उद्योगपर्व)
बुद्धिमान मनुष्य को अपनी बुद्धि से परीक्षा करके, अच्छी तरह परखकर, अन्य लोगों के विचार सुनकर, देखकर, और उसके बाद समझकर ज्ञानी लोगों के साथ मैत्री करनी चाहिये।
  • पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्य अन्तरद्-भजन्ते मूढ़ः परप्रत्ययनेयबुद्धि ॥ -- कालिदास (मालविकाग्निमित्रम् )
पुराना होने से न तो कोई काव्य उत्कृष्ट हो जाता है और न नया होने से निकृष्ट। ज्ञानी लोग दोनों को परखकर उनमें से वरेण्य को अपनाते हैं। मूढ़ औरों के कहने पर चलते हैं।
  • परीक्ष्य सत्कुलं विद्यां शीलं शौर्यं सुरूपता ।
विधिर्ददाति निपुणः कन्यामिव दरिद्रता ॥ -- सुभाषितरत्नाकर (सभा तरंग )
विधि (भाग्य) की कैसी विडम्बना है कि वह किसी व्यक्ति के कुलीन , विद्वान, सच्चरित्र, तथा शूरवीर होने की भली प्रकार परीक्षा करने के उपरान्त एक चतुर कन्या के समान दरिद्रता उसके पल्ले बांध देता है।
  • त्रिविधम् खलु रोगविषेशविज्ञानम् भवति- तद् यथा आप्तोपदेशः प्रत्यक्षं अनुमानं चेति। -- चरकसंहिता 4.3
रोगविशेष का ज्ञान तीन प्रकार से होता है, वे ये हैं- आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष और अनुमान।

प्रकृतीशोभयात्मादिव्यापाररहितं चलम् ।
कर्म-तत्फलसंबन्धव्यवस्थादिसमाश्रयम् ॥ १ ॥

गुणद्रव्यक्रियाजातिसमवायाद्युपाधिभिः ।
शून्यमारोपिताकारशब्दप्रत्ययगोचरम् ॥ २ ॥

स्पष्टलक्षणसंयुक्तप्रमाद्वितयनिश्चितम् ।
अणीयसाऽपि नांशेन मिश्रीभूतापरात्मकम् ॥ ३ ॥

असंक्रान्तिमनाद्यन्तं प्रतिबिम्बादिसन्निभम् ।
सर्वप्रपञ्चसन्दोहनिर्मुक्तमगतं परैः ॥ ४ ॥

स्वतन्त्रश्रुतिनिस्संगो जगद्धितविधित्सया ।
अनल्पकल्पासङ्ख्येयसात्मीभूतमहादयः ॥ ५ ॥

यः प्रतीत्यसमुत्पादं जगाद गदतांवरः ।
तं सर्वज्ञं प्रणम्यायं क्रियते तत्त्वसंग्रहः ॥ ६ ॥ -- शान्तरक्षित कृत तत्त्वसङ्ग्रह

  • प्रतिरूपाणि कुर्वन्ति वज्रस्य कुशला जनाः ॥
परीक्षा तेषु कर्त्तव्या विद्वद्भिः सुपरीक्षकैः ॥ -- गरुडपुराण
  • विद्वद्भिः सुहृदामत्र चिह्नैरेतैरसंशयम् ।
परीक्षाकरणं प्रोक्तं होमाग्नेरिव पण्डितैः॥ -- पञ्चतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति
जैसे विद्वान लोग होमाग्नि की परीक्षा करते हैं, वैसे ही उक्त चिह्नों के द्वारा मित्रों की परीक्षा अवश्य करनी चाहिये।
  • भिन्न-संधाने हि मंत्रिणां बुद्धि-परीक्षा। -- पञ्चतन्त्र
  • मंत्रिणाम् भिन्नसंधाने भिषजाम् सान्निपातिके।
कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा स्वस्थे को वा न पण्डितः॥ -- पञ्चतन्त्र, मित्रभेद
The intelligence of the doctor is known when he treats an epidemic. The intelligence of a minister is known when he negotiates successfully with people who have differences of opinion. When everything is alright who does not act wisely?
  • ईक्षणं न ध्रुवं चास्ते परीक्षा न ध्रुवा तथा ।
परीक्षको ध्रुवो नास्ति ततः का परिवेदना ॥ -- लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ४ (तिष्यसन्तानः)/अध्यायः ०३७
  • धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिये चारी ॥ -- तुलसीदास
विपत्ति काल में धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा होती है।
  • बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बडी परीक्षा है। -- आर. जी. इंगरसोल
  • अपने अन्दर योग्यता का होना अच्छी बात है , लेकिन दूसरों में योग्यता खोज पाना ( नेता की ) असली परीक्षा है। -- एल्बर्ट हब्बार्ड
  • बाधाएँ व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिये, मंद नहीं पड़ना चाहिये । -- यशपाल
  • किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं । -- अज्ञात

रोगपरीक्षा

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  • रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम् ।
ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्वं समाचरेत् ॥
यस्तु रोगमविज्ञाय कर्माण्यारभते भिषक्।
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्य सिद्धिर्यदृच्छया ॥
यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणज्ञस्तस्य सिद्धिरसंशयम्॥ -- चरकसंहिता/सूत्रस्थान/महारोगाध्याय ; भावप्रकाशसंहिता/पूर्वखण्डः/प्रथमः भागः/प्रकरणम् ५
सबसे पहले रोग की परीक्षा करनी चाहिये, उसके बाद औषधि देनी चाहिये। इसके बाद पहले से प्राप्त ज्ञान के आधार भिषक-कर्म (थिरैपी) करनी चाहिये। जो चिकित्सक रोग को बिना जाने ही चिकित्सा-कर्म प्रारम्भ कर देता है तो भले ही वह औषधि विधान का ज्ञानी है उसे सफलता यदि मिल भी जाती है तो उसे संयोगमात्र कहा जाएगा। (अर्थात वह अपनी सफलता के बारे में आश्वस्थ नहीं होता)। (किन्तु) जो रोगपरीक्षा का विशेषज्ञ है, जो सभी भैषज्य का ज्ञाता है, जो देशकाल के अनुसार कितनी औषधि देनी है इसका ज्ञान रखता है, उसे सिद्धि मिलेगी - इसमें कोई सन्देह नहीं है।
  • na parīkṣā na parīkṣyaṃ na kartā kāraṇaṃ na ca / (14.1)
na devā narṣayaḥ siddhāḥ karma karmaphalaṃ na ca // (14.2) -- चरकसंहिता
  • विविध खलु रोग विशेषज्ञानं भवति।
तद्यथा प्राप्तोपदेश: प्रत्यक्ष मनुमानचेति॥ -- सुश्रुत
पंचज्ञानेन्द्रियों से तथा छठवाँ प्रश्न के द्वारा अर्थात् नेत्रों से देखकर कान से सुनकर, नासिका से गंध लेकर, जिह्वा से रस जानकर, त्वचा से स्पर्श करके, प्रश्न द्वारा रोगी या उसके सम्बन्धी से रोगी की उम्र आदि सब जानकारी इनका ज्ञान करना इस षड्विध परीक्षा में प्रतिपाद्य है।
  • रोगाक्रान्तशरीस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत्।
नाड़ीं जिह्वां मलं मूत्रं त्वचं दन्तनखस्वरात्॥ (भेड़ संहिता)
अर्थ - रोगाक्रान्त शरीर की आठ स्थानों से परीक्षा करनी चाहिये- नाड़ी, जिह्वा, मल, मूत्र, त्वचा, दाँत, नाखून औ स्वर।
  • दर्शनस्पर्शनप्रश्नैः परीक्षेत च रोगिणम्।
रोगं निदानप्राग्रूपलक्षणोपशयाऽऽप्तिभिः॥22॥ -- अष्टाङ्गहृदय
देखकर, स्पर्श करके और प्रश्न पूछकर रोगी की परीक्षा करनी चाहिये।
  • षड्विधो हि रोग विज्ञानोपायः पंचभिः श्रोत्रादिभिः प्रश्नेन च।

पुरुषपरीक्षा

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  • राजन! इस संसार में बहुत से पुरुष के आकार के लोग दिख पड़ते हैं किन्तु वे सब पुरुष नहीं हैं। इसलिए आप पुरुष को पहचान कर कन्या के लिए वर का निश्चय कीजिये। पुरुष को पहचानने के लिए ये चिह्न हैं- जो पुरुष वीर हो, सुधि हो, विद्वान हो तथा पुरुषार्थ करने वाला हो, वही यथार्थ में पुरुष है। इसके अतिरिक्त सब पुच्छ-विषाण-हीन पशु हैं। [] -- विद्यापति, पुरुषपरीक्षा में

कन्यापरीक्षा

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रत्नपरीक्षा

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  • रत्नानां लक्षणं वक्ष्ये रत्नं धार्यमिदं नृपैः ।
वज्रं मरकतं रत्नं पद्मरागञ्च मौक्तिकं ॥ -- अग्निपुराण, रत्नपरीक्षा-००१
  • इन्द्रनीलं महानीलं वैदूर्यं गन्धशस्यकं ।
चन्द्रकान्तं सूर्यकान्तं स्फटिकं पुलकं तथा ॥ -- अग्निपुराण, रत्नपरीक्षा-००२

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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