• शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। -- भगवद्गीता
शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) – ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
  • उन्नत चित्त वाले पुरुषों का यह स्वभाव है कि वे बड़ों पर महान् पराक्रम दिखाते हैं, दुर्बलों पर नहीं।
  • वीरभोग्या वसुन्धरा ।( पृथ्वी वीरों द्वारा भोगी जाती है )
  • यो विषादं प्रसहते विक्रमे समुपस्थिते ।
तेजसा तस्य हीनस्य पुरूषार्थो न सिध्यति ॥ -- वाल्मीकीय रामायण/किष्किन्धाकाण्ड/सर्ग ६४
पराक्रम दिखाने का अवसर आने पर जो दुख सह लेता है (लेकिन पराक्रम नही दिखाता) उस तेज से हीन का पुरुषार्थ सिद्ध नही होता।
  • तदलं प्रतिपक्षमुन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यताम् ।
निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन समं समृद्धयः ॥ -- कीरातार्जुनीयम्
इसलिए उन्नति में बाधक उद्योगशून्यता (अनुत्साह) का आश्रय करना अनुचित है, क्योंकि समृद्धियाँ पराक्रम के ही आश्रय में रहतीं हैं, विषाद के साथ नहीं।
  • नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने ।
नित्यमूर्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥ -- गरुडपुराण, आचारकाण्ड
वन में सिंह का अभिषेक नहीं होता है और न तो उसका कोई संस्कार ही होता है, किन्तु नित्य सम्यक्‌ पुरुषार्थ करने से प्राणी में स्वयं ही सिंहत्व का भाव आ जाता है।
  • नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने ।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥ -- सुभाषितरत्नाकर (शार्ङ्गधर), सिंहान्योक्ति
वन के जन्तु सिंह का न अभिषेक करते हैं और न संस्कार । पराक्रम द्वारा अर्जित सत्व को स्वयं ही जानवरों के राजा का पद मिल जाता है।
  • यत्रोत्साहसमारम्भो यत्रालस्य विहीनता ।
नयविक्रम संयोगस्तत्र श्रीरचला ध्रुवम् ॥ -- पञ्चतन्त्र
जहाँ उत्साह है, आरम्भ (पहल) है, और आलस्य नहीं है, नय (नीति) और पराक्रम का समुचित समन्वय है, वहाँ से लक्ष्मी कहीं और नहीं जाती, यह निश्चित है।
  • बिना पराक्रम के कोई पदोन्नति नहीं कर सकता। -- साइरस

इन्हें भी देखें सम्पादन