• क्रियासु युक्तैर्नृप! चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधुसाधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः॥ -- किरातार्जुनीयम् - १.४
(वनेचर नामक गुप्तचर गुप्त-सूचना लेकर आता है और युधिष्ठिर से कहता है कि) कोई कार्य पूरा करने के लिए नियुक्त किये गए (राज) सेवकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे दूतों की आँखों से ही देखने वाले अपने स्वामी को (झूठी तथा प्रिय बातें बता कर) न ठगें । इसलिए मैं जो कुछ भी अप्रिय अथवा प्रिय बातें निवेदन करूँ उन्हें आप क्षमा करेंगे, क्योंकि सुनने में मधुर तथा परिणाम में कल्याण देने वाली वाणी दुर्लभ होती है।
  • महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स वेद निःशेषमशेषितक्रियः ।
महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः ॥ -- किरातार्जुनीयम् १.२०
अर्थ: आरम्भ किये हुए कार्यों को समाप्त करके ही छोड़ने वाला वह दुर्योधन अपने प्रशंसनीय चरित्र वाले राजदूतों के द्वारा अन्य राजाओं कि सारी कार्यवाहियां जान लेता है । (किन्तु) ब्रह्मा के समान उसकी इच्छाओं की जानकारी, उनकी महान समाप्ति के फलों द्वारा ही होती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के गुप्तचर समग्र भूमण्डल में फैले हुए हैं । वह समस्त राजाओं कि गुप्त बातें तो मालूम कर लेता है किन्तु उसकी इच्छा तो तभी ज्ञात होती है जब कार्य पूरा हो जाता है ।
  • हिरण्यं व्यापृतानितं भाण्डागारेषु निक्षिपेत्।
पश्येच्चारांस्ततो इतान्प्रेषयेन्मन्त्रिसंगतः॥ -- याज्ञवल्क्य स्मृति
स्वर्ण आदि लाने के लिए नियुक्त व्यक्तियों द्वारा लाए गए स्वर्ण को भण्डार में रखना चाहिए तथा गुप्तचरों से बातें करने के उपरान्त मंत्री के साथ बैठकर दूतों को निर्दिष्ट कार्य करने के लिए भेजना चाहिए।

इन्हें भी देखें

सम्पादन