वह बसा हमारे गावों में।
पगडंडी कच्ची राहों में
फूटी टूटी सड़कों में
बैलगाड़ी को हांकते हुए
दूर दराज़ की राहों में
खपरेलों की कतारों में
घास के ढूँओं ढाओं में
है अपना हिंदुस्तान कहाँ
वह बसा हमारे गावों में।
खड्डों, छप्पडों, तालाबों में ,
बैलों से रहट व हल चलते
खेतों व खालिआनो में,
सरसों के पीले फूलों में
अरहर -गन्ने के खेतों में
रहीमा-रामू के नामों में
है अपना हिंदुस्तान कहाँ
वह बसा हमारे गावों में।
नदी कुँओं तालाबों से
जल भरती हुई बालाओं के
सौंदर्य से सुरभित राहों में
देवर भाभी के रिश्तों में
राधा रधिया के नामों में
है अपना हिंदुस्तान कहाँ
वह बसा हमारे गावों में।
सोने चांदी का नाम न लो
पीतल कांसे के कड़े छड़े
मिल जाएँ बहुरानी को तो
समझो उसके सौभाग्य बड़े
रांगे के काली बिच्छिओं में
पति के सुहाग के भावों में
है अपना हिंदुस्तान कहाँ
वह बसा हमारे गावों में।
सिंदूर के रंग से मांग सजे
माथे की टिकुली बिंदिया में
लाख व कांच की चूड़ी में
पति के सुहाग के भावों में
है अपना हिंदुस्तान कहाँ
वह बसा हमारे गावों में॥ -- सोहनलाल द्विवेदी
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहाँ है,
ऐसी सुविधा और कहाँ है ?
यहाँ शहर की बात नहीं है,
अपनी-अपनी घात नहीं है,
आडम्बर का नाम नहीं है,
अनाचार का नाम नहीं है।
यहाँ गटकटे चोर नहीं है,
तरह-तरह के शोर नहीं है,
सीधे-साधे भोले-भाले,
हैं ग्रामीण मनुष्य निराले ।
एक-दूसरे की ममता हैं,
सबमें प्रेममयी समता है,
अपना या ईश्वर का बल है,
अंत:करण अतीव सरल है ।
छोटे-से मिट्टी के घर हैं,
लिपे-पुते हैं, स्वच्छ-सुघर हैं
गोपद-चिह्नित आँगन-तट हैं,
रक्खे एक और जल-घट हैं ।
खपरैलों पर बेंले छाई,
फूली-फली हरी मन भाईं,
अतिथि कहीं जब आ जाता है,
वह आतिथ्य यहाँ पाता है ।
ठहराया जाता है ऐसे,
कोई संबंधी हो जैसे,
जगती कहीं ज्ञान की ज्योति,
शिक्षा की यदि कमी न होती
तो ये ग्राम स्वर्ग बन जाते
पूर्ण शांति रस में सन जाते। -- मैथिलीशरण गुप्त
मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले! कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए ओठों पर मुस्कुराहट लौटा सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ। -- 'मैला आँचल' में डॉ० प्रशान्त ममता से