मैथिलीशरण गुप्त (१८८६ - १९६४) हिन्दी के 'द्विवेदी युग' के महान कवि हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं। इनकी कृति 'भारत-भारती' स्वतंत्रता संग्राम के समय काफी प्रभावशाली रही थी और इसीलिए महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' कहा था।

सुविचार सम्पादन

स्वदेश
  • जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है॥
  • भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ ।।
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश को उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।।
नर/मनुष्य
  • नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो कुछ काम करो।
जग में रहकर कुछ नाम करो॥
  • चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढ़केलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
नारी
  • अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥
  • औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ
श्रमवारि बिंदु फल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ
अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ
किसान
  • बरसा रहा है रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा,
है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना बह रहा,
देखो कृषक शोषित सुखाकर हल तथापि चला रहे,
किस लोभ से इस अर्चि में वे निजशरीर जला रहे।
  • मध्यातन है उनकी स्त्रियाँ ले रोटियाँ पहुँची वहीं, ,
हैं रोटियाँ रूखी, खबर है शाक की उनको नहीं।
संतोष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गयीं,
भरपेट भोजन पा गये तो भाग्य मानो जग गये।