अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥ -- चाणक्य नीति (१३/१० )
जिसने न धर्म से जीवन बिताया, न धन कमाया, न कामवासनाओं को पूरा किया, और न मोक्ष प्राप्त किया, उसका जन्म उसी तरह व्यर्थ है जैसे बकरी के गले में लटके हुए स्तनों की आकृति के समान मांसपिन्ड।
पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तं गतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्। ।
पुस्तक में स्थित लिखित विद्या और दूसरे के हाथों में गया हुआ धन, आवश्यकता पड़ने पर न वह धन काम आता है और न वह विद्या।
स्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम॥
हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है। अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है?