अग्नि

आग तेजी से फूंक मारने पर नही जलती क्यों

अग्नि अर्थात आग। आग, ऊर्जा का रूप है जो आधुनिक समय में मानव विकास का आधार है। माना जाता है कि हैं आग का आविष्कार, सबसे महत्वपूर्ण और क्रान्तिकरी आविष्कारों में से एक है। वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द 'अग्नि' ही प्राप्त होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द 'अग्नि' ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।

आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था। पुराणों के अनुसार अग्नि की पत्नी स्वाहा हैं। ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है। ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं। उन जिह्वाओं के नाम : - काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं। पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है। भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है। स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। w:अग्निपुरण|अग्निपुराण]] नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।

उक्तियाँ

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  • ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं होतारं रत्नधातमम्। -- -- ऋग्वेदः--1.1.1 (ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ; ऋग्वेद के अग्निसूक्त में विश्वमित्र के पुत्र मधुच्छन्दा इस मन्त्र के द्रष्टा हैं।)
हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले ), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों (यज्ञ के लाभों) से विभूषित करने वाले हैं।
  • ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत स देवाँ एह वक्षति । -- ऋग्वेदः--1.1.2
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित है, जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करें।
  • ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे यशसं वीरवत्तमम् । -- ऋग्वेदः--1.1.3
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं।
  • ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि स इद् देवेषु गच्छति । -- ऋग्वेदः--1.1.4
हे अग्निदेव! आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है।
  • ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः देवो देवेभिरागमत् । -- ऋग्वेदः--1.1.5
हे अग्निदेव! आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें।
  • ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः। -- ऋग्वेदः--1.1.6
हे अग्निदेव! आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है।
  • ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् मनो भरन्त एमसि । -- ऋग्वेदः--1.1.7
हे जाज्वलयमान अग्निदेव! हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो।
  • ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् वर्धमानं स्वे दमे । -- ऋग्वेदः--1.1.8
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं।
  • ॐ स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव सचस्वा नः स्वस्तये । -- ऋग्वेदः--1.1.9
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे।


  • आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः
(क) अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।
मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
ख) अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।
यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(ग) अङ्गं नयति सन्नममानः ।
अग्नि में पड़ने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है।
(घ) अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति।
निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।
(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात्।
शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है (निरुक्तः---7.4.15)
  • अग्निर्वै सर्वा देवता। -- ऐतरेय-ब्राह्मण---1.1, शतपथ 1.4.4.10
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता है।
  • अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा। -- शतपथ-ब्राह्मण 14.3.2.5
अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा है।
  • ऋणशेषः अग्निशेषः च शत्रुशेषः तथैव च ।
पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्मात् शेषं न रक्षयेत् ॥
उधार कर्जा, ज्वलित अग्नि और सुरक्षित शत्रु , हमेशा बढ़ते रहते हैं। इसलिये तो कहते हैं कि ये तीनों का – कर्जा, अग्नि और शत्रु का – पूरी तरहसे नाश होना जरूरी है।
  • काष्टाद्यथाग्निरुत्पन्नः स्वाश्रयं दहति क्षणात् ।
क्रोधाग्निर्देहजस्तद्वत्तमेव दहति ध्रुवं ॥ -- नगसुभषित संग्रह (९९६० )
जिस प्रकार लकडी के टुकडों को आपस में जोर से रगडने से उनमें स्वतः ही अग्नि उत्पन्न हो जाती है और वे तत्क्षण जल उठते हैं, वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी क्रोध रूपी अग्नि छुपी होती है और विवाद या झगडे की स्थिति में निश्चय ही सुलग कर उसे जला देती (हानि पहुंचाती) है।

इन्हें भी देखें

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