साहित्य वस्तुतः मनुष्य का वह उच्छलित आनन्द है जो उसके अंतर में अँटाये नहीं अट सका था। -- (ज्ञान शिखा में)
साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है और समझा है। -- (साहित्य सहचर में)
साहित्य यदि जनता के भीतर आत्मविश्वास और अधिकार चेतना की संजीवनी शक्ति नहीं संचारित करता , तो परिणाम बड़े भयंकर होंगे।
जो साहित्य मनुष्य समाज को रोग, शोक, दारिद्रय, अज्ञान तथा परामुखापेक्षिता से बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता है, वह निश्चय ही अक्षय निधि है।
जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परामुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता हैं।
कविता मानवता की उच्चतम अनुभूति की अभिव्यक्ति हैं।
समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई दुनिया है। -- (भक्तिसाहित्य के बारे में)
निराला से बढकर स्वच्छंदतावादी कवि हिन्दी में नहीं है ।
महान संकल्प ही महान फल का जनक होता है।
कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने पर अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जाता है।
आध्यात्मिक ऊँचाई तक समाज के बहुत थोड़े लोग ही पहुँच सकते हैं। बाकी लोग छोटे-मोटे दुनियावी टंटों में उलझे रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक आदर्श को विकृत कर देते हैं।
आम्रमंजरी मदन देवता का अमोघ बाण है।
आसमान में निरन्तर मुक्का मारने में कम परिश्रम नहीं है।
कमजोरों में भावुकता ज्यादा होती होगी।
कभी कभी शिष्य परम्परा में ऐसे भी शिष्य निकल आते हैं, जो मूल सम्प्रदाय प्रवर्त्तक से भी अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। फिर भी सम्प्रदाय स्थापना का अभिशाप यह है कि उसके भीतर रहने वाले का स्वाधीन चिन्तन कम हो जाता है।
कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है! केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है।
घृणा और द्वेष से जो बढ़ता है, वह शीघ्र ही पतन के गह्वर में गिर पड़ता है।
जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो, अशक्त हो।
जब तक हमारे सामने उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कार्य, कितनी ही व्यापक शुभेच्छा के साथ क्यों न आरम्भ किया जाय, वह फलदायक नहीं होगा।
जितना कुछ इस जीवन शक्ति को समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक दिया जाता हैं।
जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है, उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है।
डेमोक्रेट हँसना और मुस्कराना जानता है पर डिक्टेटर हँसने की बात सोचते भी नहीं।
धर्म मनुष्य से त्याग की आशा रखता है।
पंडिताई भी एक बोझ है। जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबोती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है तब वह बोझ नहीं रहती।
प्रवृतियों को दबाना नहीं चाहिए, उनसे दबना भी नहीं चाहिए।
पावक को कभी कलंक स्पर्श नहीं करता, दीपशिखा को अंधकार की कालिमा नहीं लगती, चंद्रमंडल को आकाश की नीलिमा कलंकित नहीं करती और जाह्नवी की वारिधारा को धरती का कलुष स्पर्श भी नहीं करता।
पुरुष का सत्य और है, नारी का और।
पुरुष निःसंग है, स्त्री आसक्त, पुरुष निर्द्वव्द्व है, स्त्री द्वन्द्वोन्मुखी, पुरुष मुक्त है, स्त्री बद्ध।
पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है, पर स्त्री स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है।
प्रेम बड़ी वस्तु है, त्याग बड़ी वस्तु है और मनुष्य मात्र को वास्तविक मनुष्य बनाने वाला ज्ञान भी बड़ी वस्तु है।
ब्राह्मण न भिखारी होता है, न महासंधिविग्रहिक, वह धर्म का व्यवस्थापक होता है।
मनुष्य के भीतर नाखून बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उनके काटने की जो प्रवृत्ति है वह उसकी मनुष्यता की निशानी है।
मनुष्य में जो मनुष्यता है, जो उसे पशु से अलग कर देती है, वही आराध्य है। क्या साहित्य और क्या राजनीति, सबका एक मात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है।
माया का जाल छुड़ाए छूटता नहीं, यह इतिहास की चिरोद्धोषित वार्ता सब देशों और सब कालों में समान भाव से सत्य रही है।
माया से छूटने के लिए माया के प्रपंच रचे गए , यह सत्य है।
मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।
यदि आप संसार की सारी समस्याओं का विश्लेषण करें तो इनके मूल में एक ही बात पाएँगे-मनुष्य की तृष्णा।
यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और मन की शुद्धि आवश्यक है।
राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल है, असिधारा से भी अधिक दुर्गम है, विद्युत शिखा से भी अधिक चंचल है।
राजनैतिक पराधीनता बड़ी बुरी वस्तु है। वह मनुष्य को जीवन यात्रा में अग्रसर होने वाली वस्तुओं से वंचित कर देती है।
विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक सा होता है। आप दुर्दान्त डाकू के दिल में विनोदप्रियता भर दीजिए, वह लोकतन्त्र का लीडर हो जाएगा, आप समाज सुधार के उत्साही कार्य कर्त्ता के हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजेक्शन दे दीजिए, वह अखबारनवीस हो जाएगा।
शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है।
शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा सी अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है।
सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
सीधी रेखा खींचना सबसे टेढ़ा काम है।
स्त्री प्रकृति है। उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है, किन्तु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है।
स्नेह बड़ी दारुण वस्तु है, ममता बड़ी प्रचंड शक्ति है।
स्यारों के स्पर्श से सिंह किशोरी कलुषित नहीं होती। असुरों के गृह में जाने से लक्ष्मी घर्षित नहीं होती। चींटियों के स्पर्श से कामधेनु अपमानित नहीं होती। चरित्रहीनों के बीच वास करने से सरस्वती कलंकित नहीं होती।
स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होती।
हमारी राजनीति, हमारी अर्थनीति और हमारी नवनिर्माण की योजनाएँ तभी सर्वमंगल विधायिनी बन सकेंगी जब हमारा हृदय उदार और संवेदनशील होगा, बुद्धि सूक्ष्म और सारग्रहिणी होगी और संकल्प महान और शुभ होगा।
सुविधाओं को पा लेना ही बड़ी बात नहीं है, प्राप्त सुविधाओं को मनुष्य मात्र के मंगल के लिए नियोजित कर सकना भी बहुत बड़ी बात है।
मानव जीवन की तीन स्थितियाँ मानी गई हैं- विकृति, प्रवृति और संस्कृति। विकृति अधोगामिनी स्थिति है तो संस्कृति ऊर्ध्वगामिनी।
संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की चरम परिणति है। धर्म के समान वह भी अविरोधी वस्तु है। वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य उत्पन्न करती है।
भारतीय जनता की विविध साधनाओं की सबसे सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा जा सकता हैं।
मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है।
सभ्यता की दृष्टि वर्तमान की सुविधा-असुविधा पर रहती है, संस्कृति की भविष्य या अतीत के आदर्श पर।
सभ्यता बाह्य होने के कारण चंचल है, संस्कृति आंतरिक होने के कारण स्थायी।
सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अंतर के विकास का।
नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा भक्ति तथा योग मूलक अनूभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है जिसे हम 'संस्कृति' शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं।
संयोग से वे ऐसे युग–संधि के समय उत्पन्न हुए थे, जिसे हम विविध धर्म–साधनाओं और मनोभावनाओं का चौराहा कह सकते हैं।
वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। वे हिंदू होकर भी हिंदू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ) नहीं थे।वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। वे योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से ही सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे। वे भगवान के नृसिंहावतार की मानो प्रतिमूर्ति थे।
उन्हें सौभाग्यवश सुयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते हैं, वे प्रायः सभी उनके लिए बन्द थे।
हिंदी साहित्य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेकर उत्पन्न नहीं हुआ।
पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर सबसे शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक व्यक्ति थे।
कबीर अपने युग के सबसे बड़े क्रांतदर्शी थे।
भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।
कबीर में एक प्रकार घर फूंक मस्ती और पक्कड़ाना लापरवाही के भाव मिलते हैं। उनमें अपने–आपके ऊपर अखंड विश्वास था । उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान को, अपने गुरू को, अपनी साधना को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा।
कबीर ने ऐसी बहुत बातें कही है जिनसे समाज सुधार में सहायता मिलती है। पर, इसलिए उनको समाज सुधारक समझना गलती है।
कबीर जब पंडित या शेख पर आक्रमण करने को उद्यत होते है तो उतने सावधान नहीं होते जितने अवधूत या योगी पर आक्रमण करते समय दिखते हैं।
हमने देखा है कि वाह्याचार पर आक्रमण करने वाले संतों और योगियों की कमी नहीं है, पर इस कदर सहज और सरल सरल ढंग से चकनाचूर करने वाली भाषा कबीर के पहले बहुत कम दिखाई दी है।
व्यंग्य वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और भी कहने वाले को जवाब देना अपने की ओर भी उपहासस्पद् बना लेना हो , कबीर ऐसे ही व्यंग्यकर्त्ता थे।
ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्त–मौला, स्वभाव में फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय। वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे इसलिए उनकी उक्तियॉ बंधने वाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे।
वात्सल्य भाव के काव्य के लिए सूरदास की बड़ी ख्याति है।
सूरदास ने यदि राधिका के प्रेम को लेकर गीतिकाव्य की रचना न करके प्रबंध काव्य की रचना की होती तो आज असफल हुए होते हैं।
गीतिकाव्यात्मक मनोरागों पर आधारित विशाल महाकाव्य ही सूरसागर है।
प्रेम के इस स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया।
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे–पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपको की वर्षा होने लगती है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है।वह अपने को भूल जाता है।
सूरदास की गोपियों में जिस प्रकार का अशिक्षित पटुत्व और सारल्यगर्भ माधुर्य पाया जाता है, वैसा नंददास की गोपियों में नहीं पाया जाता। भ्रमरगीत में उद्धव के तर्कों को सुनकर वे शिथिलवाक् होकर परास्त नहीं हो जाती बल्कि आगे बढ़कर उत्तर देती है और तर्क को तर्क से काटने का प्रयत्न करती है।
निर्गुण भाव के प्रत्याख्यान सूरदास ने भी कराया है और नन्ददास ने भी, पर सूरदास का एकमात्र अस्त्र प्रेमातिरेक है जबकि नन्ददास का सबसे अस्त्र है युक्ति और तर्क, फिर भी नन्ददास की रचनाओं में अपना मोहक सौंदर्य है।
माधुर्य भाव में अन्यान्य भक्त कवियों की भाँति मीरा का प्रेम निवेदन है और विरह व्याकुलता अभिमानाश्रित और अध्यंतरित नही है बल्कि सहज और साक्षात् संबंधित है।
वह सहृदय को स्पंदित और चालित करती है और अपने रग में रंग डालती है।
निस्संदेह इस कवि का हृदय मानवीय रस से परिपूर्ण और अनासक्त तथा अनाविल सौंदर्य दृष्टि से समृद्ध था।
जीवन के अनेक घात प्रतिघात के भीतर से भी राजकीय षड्यंत्रों के चपेट में बार-बार आते रहने के बाद भी और हर प्रकार के उतार-चढ़ाव में उठते – गिरते रहने के बाद भी जिस कवि के हृदय का मानवीय रस निःशेष नही हुआ उसके हृदय की अद्भुत सरसता का अनुमान सहज किया जा सकता है।
भगवान ने उन्हें रूप देने की बड़ी कंजूसी की थी किंतु शुद्ध निर्मल प्रेमपरायण हृदय देने में बड़ी उदारता से कम लिया था। (जायसी के बारे में )
जायसी को रहस्यवादी कवि कहा जाता है।
जिन भजनों में मधुर भाव बोलता दिखता हो उनके लेखक को रहस्र सुख के अधिकारी कहना ही उचित है। (सूरदास के संबंध में )
कबीर के पूर्ववर्ती सिद्ध और योगी लोगों की आक्रमणात्मक उक्तियों में एक प्रकार की ‘हीन भावना की ग्रंथि’ या ‘इनफीरियारिटी कम्पलेक्स’ पाया जाता है। वे मानो लोमड़ी के खट्टे अंगूर की प्रतिध्वनि है, मानो चिलम न पा सकने वालों का आक्रोश है । उनमें तर्क है पर लापरवाही नहीं है, आक्रोश है पर मस्ती नहीं है, तीव्रता है पर मृदुता नहीं।