• न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति॥
वह सभा, सभा नहीं, जिसमें कोई वृद्ध न हो।वे वृद्ध, वृद्ध नहीं जो धर्म की बात नहीं बोलते।वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं जो कपटपूर्ण हो।
  • परपरिवादः परिषदि न कथंचित्पण्डितेन वक्तव्यः।
सत्यमपि तन्न वाच्यं यदुक्तमसुखावहं भवति ॥ -- पञ्चतन्त्र, काकोलूकीयम्
विद्वान व्यक्ति को सभा के बीच किसी की निन्दा नहीं करनी चहिये। यदि कोई बात सत्य भी हो तो जिस बात को कहने से किसी को कष्ट हो, उस बात को कहना नहीम चाहिये।
  • माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंस मध्ये बको यथा ॥
वह माता शत्रु के समान है और पिता वैरी के समान है जिन्होंने अपने बालकों को शिक्षित नहीं किया। क्योंकि बडे हो कर वे विद्वानों की सभा (समाज) में शोभा और सम्मान नहीं पाते है और उनकी स्थिति सुन्दर हंसों के झुण्ड में एक बगुले की सी हो जाती है।
  • विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।‬

‪: यशसि चाभिरुचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमियं हि महात्मनाम्॥‬

‪विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में सहिष्णुता, सभा में वाक् चातुरी, युद्ध में वीरता, यश में उत्कण्ठा, वेद-शास्त्रों विषयक अनुराग, ये गुण महानुभावों के स्वभाव में ही पाए जाते हैं।‬
  • न भेतव्यं न बोद्धव्यं न श्राव्यं वादिनो वचः।
झटिति प्रतिवक्तव्यं सभासु विजिगीषुणा॥ -- नीलकण्ठ दीक्षित द्वारा रचित कलिविडम्बनम् में
यदि यह इच्छा हो कि सभा में हम विजयी हों, तो डरना नहीं चाहिए। प्रकृत विषय को समझने का यत्न भी न करना चाहिए; और दूसरे की बात को सुनना भी न चाहिए ; बस, उस समय जो कुछ मुख से निकले, वह पूछे जाने पर बराबर कहते ही चले जाना चाहिए।
  • ग्रामे-ग्रामे सभा कार्या, ग्रामे-ग्रामे कथा शुभाः।
पाठशाला मल्लशाला प्रति पर्व महोत्सव ॥
प्रत्येक गाँव में कथा, वार्ता और चर्चा करते रहने का स्वभाव हो, प्रत्येक गाँव में अखाड़े व शरीर को स्वस्थ रखने के साधन-व्यवस्था रहे जिससे शरीर से लोग बलवान बने, उससे उनके मन से कमजोरी दूर होगी, संघर्ष करने की प्रवृति विकसित होगी, वहाँ के रहने वालों में अच्छे विचार पैदा हों, शिक्षित और समझदार पीढ़ी तैयार हो इसके लिए हर गाँव ने विद्यालय होने चाहिए एवं आस्था को बल देने के लिए पर्व एवं परम्परागत धार्मिक सभाएँ होती रहनी चाहिए ।
  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ -- रामचरितमानस , सुन्दरकाण्ड
यदि मंत्री, वैद्य और गुरु भय या लाभ वश प्रिय बोलते हैं तो इनमें से मंत्री के राज्य, वैद्य के शरीर एवं गुरु के धर्म शीघ्र ही नाश हो जाता है।
  • नीकी पै फीकी लगे, बिन अवसर की बात।
जैसे बरनत जुद्ध में, नहिं सिंगार सुहात ॥ -- कवि वृन्द
बात अच्छी होने पर भी अगर बिना मौके के कही जाय तो वह फीकी मालूम देती है। युद्ध हो रहा हो और उस समय शृंगार रस की बात की जाय, तो वह अच्छी नहीं लगती।
  • फीकी पै नीकी लगै, कहिए समय विचारि।
सबको मन हर्षित करै, ज्यों विवाह में गारि॥
फीकी बात भी अवसर का विचार करके अगर कही जाती है तो वह अच्छी लगती है। विवाह के अवसर पर गाली-भरे गीत भी सबके मन को सुहावने लगते हैं।

इन्हें भी देखें

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