सत्य हरिश्चन्द्र
यह प्रसिद्ध् हिंदी नाटक १८७५ ईस्वी में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखा गया है ।
सत्य हरिश्चन्द्र
सत्य हरिश्चंद्र भारतेंदु द्वारा लिखित चार अंकों का नाटक है। काशी पत्रिका नामक पाक्षिक हिन्दी पत्र में प्रकाशित यह नाटक पहली बार १८७६ ई. में बनारस न्यु मेडिकल हाल प्रेस में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।
कथानक
इस में सूर्य कुल के राजा हरिश्चन्द्र की कथा है।
अंक विभाजन
- प्रथम अंक- इन्द्रसभा
- द्वितीय अंक- हरिश्चन्द्र की सभा
- तृतीय अंक- काशी में विक्रय
- चतुर्थ अंक- श्मशान
अथ सत्यहरिश्चन्द्र
(मंगलाचरण)
सत्यासक्त दयाल द्विज प्रिय अघ हर सुख कन्द।
जनहित कमला तजन जय शिव नृप कवि हरिचन्द ।। १ ।।
(नान्दी के पीछे सूत्राधार आता है)
सू. : अहा! आज की सन्ध्या भी धन्य है कि इतने गुणज्ञ और रसिक लोग एकत्रा हैं और सबकी इच्छा है कि हिन्दी भाषा का कोई नवीन नाटक देखैं। धन्य है विद्या का प्रकाश कि जहाँ के लोग नाटक किस चिड़िया का नाम है इतना भी नहीं जानते थे भला वहाँ अब लोगों की इच्छा इधर प्रवृत्त तो हुई। परन्तु हा! शोच की बात है कि जो बड़े-बडे़ लोग हैं और जिनके किए कुछ हो सकता है वे ऐसी अन्धपरम्परा में फँसे हैं और ऐसे बेपरवाह और अभिमानी हैं कि सच्चे गुणियों की कहीं पूछ ही नहीं है। केवल उन्हीं की चाह और उन्हीं की बात है जिन्हें झूठी खैरखाही दिखाना वा लंबा चैड़ा गाल बजाना आता है। (कुछ सोच कर) क्या हुआ, ढंग पर चला जायगा तौ यों भी बहुत कुछ हो रहैगा। काल बड़ा बली है, धीरे-धीरे सब आप से आप ही कर देगा। पर भला आज इन लोगों को लीला कौन सी दिखाऊं। (सोचकर) अच्छा, उनसे भी तो पूछ लें ऐसे कौतुकों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बुद्धि विशेष लड़ती है। (नेपथ्य की ओर देख कर) मोहना! अपनी भाभी को जरा इधर तो भेजना।
(नेपथ्य में से-मैं तो आप ही आती थी कहती हुई नटी आती है)
न. : मैं तो आप ही आती थी। वह एक मनिहारिन आ गई थी उसी के बखेड़े में लग गई, नहीं तो अब तक कभी की आ चुकी होती। कहिए, आज जो लीला करनी हो वह पहिले ही से जानी रहै तो मैं और सभी से कह के सावधान कर दूं।
सू. : आज का नाटक तो हमने तुम्हारी ही प्रसन्नता पर छोड़ दिया है।
न. : हम लोगों को तो सत्य हरिश्चन्द्र आज कल अच्छी तरह याद है और उसका खेल भी सब छोटे बड़े को भज रहा है।
सू. : ठीक है, यही हो। भला इससे अच्छा और कौन नाटक होगा। एक तो इन लोगों ने उसे अभी देखा नहीं है, दूसरे आख्यान भी करुणा पूर्ण राजा हरिश्चन्द्र का है, तीसरे उसका कवि भी हम लोगों का एक मात्रा जीवन है।
न. : (लंबी सांस लेकर) हा! प्यारे हरिश्चन्द्र का संसार ने कुछ भी गुण रूप न समझा। क्या हुआ। कहैंगे सबै ही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहिजायगी ।। २ ।।
सू. : इसमें क्या संदेह है? काशी के पंडितों ही ने कहा है।।
सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद।
जिमि सुझाव दिन रैन के कारन नित हरिचंद२ ।। ३ ।।
और फिर उनके मित्र पंडित शीतलाप्रसाद जी ने इस नाटक के नायक से उनकी समता भी किया है। इससे उनके बनाए नाटकों में भी सत्य हरिश्चन्द्र ही आज खेलने को जी चाहता है।।
न. : कैसी समता, मैं भी सुनूं।
सू. : जो गुन नृप हरिचन्द मैं जगहित सुनियत कान।
सो सब कवि हरिचन्द मैं लखहु प्रतच्छ सुजान ।। ४ ।।१
(नेपथ्य में)
अरे!
यहाँ सत्यभय एक के कांपत सब सुर लोक।
यह दूजो हरिचन्द को करन इन्द्रउर सोक ।। ४ ।।२
सू. : (सुनकर और नेपथ्य की ओर देखकर) यह देखो! हम लोगों को बात करते देर न हुई कि मोहना इन्द्र बन कर आ पहुँचा। तो अब चलो हम लोग भी तैयार हों।
(दोनों जाते हैं)
इतिप्रस्तावना
प्रथम अंक
जवनिका उठती है
(स्थान इन्द्रसभा, बीच में गद्दी तकिया धरा हुआ, घर सजा हुआ)
(इन्द्र आता है)
इ. : (‘यहाँ सत्यभय एक के’ यह दोहा फिर से पढ़ता हुआ इधर-उधर घूमता है।)
(द्वारपाल आता है)
द्वा. : महाराज! नारद जी आते हैं।
इ. : आने दो, अच्छे अवसर पर आए।
द्वा. : जो आज्ञा। (जाता है)
इ. : (आप ही आप) नारद जी, सारी पृथ्वी पर इधर उधर फिरा करते हैं। इनसे सब बातों का पक्का पता लगेगा। हमने माना कि राजा हरिश्चन्द्र को स्वर्ग लेने की इच्छा न हो तथापि उस के धर्म की एक बेर परीक्षा तो लेनी चाहिए।
(नारदजी आते हैं)
इ. : (हाथ जोड़कर दंडवत करता है)
आइए आइए धन्य भाग्य, आज किधर भूल पड़े।
ना. : हमैं और भी कोई काम है, केवल यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ-यही हमैं है कि और भी कुछ।
इ. : साधु स्वभाव ही से परोपकारी होते हैं। विशेष कर के आप ऐसे हैं जो हमारे से दीन गृहस्थों को घर बैठे दर्शन देते हैं क्योंकि जो लोग गृहस्थ और काम काजी हैं वे स्वभाव ही से गृहस्थी के बन्धनों से ऐसे जकड़ जाते हैं कि साधु संगम तो उनको सपने में भी दुर्लभ हो जाता है, न वे अपने प्रबन्धों से छुट्टी पावेंगे न कहीं जायंगे।
ना. : आप को इतनी शिष्टाचार नहीं सोहती। आप देवराज हैं और आप के संग की तो बड़े-बड़े ऋषि मुनि इच्छा करते हैं फिर आप को सतसंग कौन दुर्लभ हैं। केवल जैसा राजा लोगों में एक सहज मुंह देखा व्यापार होता है वैसी ही बातैं आप इस समय कर रहे हैं।
इ. : हम को बड़ा शोच है कि आप ने हमारी बातों को शिष्टाचार समझा। क्षमा कीजिए आप से हम बनावट नहीं कर सकते। भला, बिराजिये तो सही, यह बातें तो होती ही रहेंगी।
ना. : बिराजिये (दोनों बैठते हैं)।
इ. : कहिए, इस समय कहाँ से आना हुआ।
ना. : अयोध्या से। अहा। राजा हरिश्चन्द्र धन्य है। मैं तो उसके निष्कपट अकृत्रिम सुझाव से बहुत ही संतुष्ट हुआ। यद्यपि इसी सूर्यकाल में अनेक बड़े-बड़े धार्मिक हुए पर हरिश्चन्द्र तो हरिश्चन्द्र ही है।
इ. : (आप ही आप) यह भी तो उसी का गुण गाते हैं।
ना. : महाराज। सत्य की तो मानो हरिश्चन्द्र मूर्ति है। निस्सन्देह ऐसे मनुष्यों के उत्पन्न होने से भारत भूमि का सिर केवल इनके स्मरण से उस समय भी ऊँचा रहेगा जब वह पराधीन होकर हीनावस्था को प्राप्त होगी।
इ. : (आप ही आप) अहा! हृदय भी ईश्वर ने क्या ही वस्तु बनाई है। यद्यपि इसका स्वभाव सहज ही गुणग्राही हो तथापि दूसरों की उत्कट कीर्ति से इसमें ईर्ष्या होती ही हैं, उसमें भी जो जितने बड़े हैऺ उनकी ईर्ष्या भी उतनी ही बड़ी हैं। हमारे ऐसे बड़े पदाधिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना दूसरों की सम्पत्ति और कीर्ति।
ना. : आप क्या सोच रहे हैं?
इ. : कुछ नहीं। यों ही मैं यही सोचता था कि हरिश्चन्द्र की कीर्ति आज कल छोटे बड़े सबके मुंह से सुनाई पड़ती है इससे निश्चय होता है कि नहीं हरिश्चन्द्र निस्संदेह बड़ा मनुष्य है।
ना. : क्यों नहीं, बड़ाई उसी का नाम है जिसे छोटे बड़े सब मानैं, और फिर नाम भी तो उसी का रह जायगा जो ऐसा दृढ़ हो कर धर्म साधन करेगा। (आप ही आप) और उसकी बड़ाई का यह भी तो एक बड़ा प्रमाण है कि आप ऐसे लोग उससे बुरा मानते हैं क्योंकि जिससे बड़े-बड़े लोग डाह करें पर उसका कुछ बिगाड़ न सकें वह निस्संदेह बहुत बड़ा मनुष्य है।
इ. : भला उसके गृह चरित्र कैसे हैं?
ना. : दूसरों के लिए उदाहरण बनाने के योग्य। भला पहिले जिसने अपने निज के और अपने घर के चरित्र ही नहीं शुद्ध किए हैं उसकी और बातों पर क्या विश्वास हो सकता है। शरीर में चरित्र ही मुख्य वस्तु है। बचन से उपदेशक और क्रियादिक से कैसा भी धर्मनिष्ठ क्यों न हो पर यदि उसके चरित्र शुद्ध नहीं हैं तो लोगों में वह टकसाल न समझा जायगा और उसकी बातें प्रमाण न होंगी! महात्मा और दुरात्मा में इतना ही भेद है कि उनके मन बचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न निस्संदेह हरिश्चन्द्र महाशय है। उसके आशय बहुत उदार हैं इसमें कोई संदेह नहीं।
इ. : भला आप उदार वा महाशय किसको कहते हैं?
ना. : जिसका भीतर बाहर एक सा हो और विद्यानुरागिता उपकार प्रियता आदि गुण जिसमें सहज हों। अधिकार में क्षमा, विपत्ति में धैर्य, सम्पत्ति में अनाभिमान और युद्ध में जिसको स्थिरता है वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है और उसी की माता पुत्रवती है। हरिश्चंद्र में ये सब बातें सहज हैं। दान करके उसको प्रसन्नता होती है और कितना भी दे पर संतोष नहीं होता, यही समझता है कि अभी थोड़ा दिया।
इ. : (आप ही आप) हृदय! पत्थर के होकर तुम यह सब कान खोल के सुनो।
ना. : और इन गुणों पर ईश्वर की निश्चला भक्ति उसमें ऐसी है जो सब का भूषण है क्योंकि उसके बिना किसी की शोभा नहीं। फिर इन सब बातों पर विशेषता यह है कि राज्य का प्रबन्ध ऐसा उत्तम और दृढ़ है कि लोगों को संदेह होता है कि इन्हें राज काज देखने की छुट्टी कब मिलती है। सच है छोटे जी के लोग थोड़े ही कामों में ऐसे घबड़ा जाते हैं मानो सारे संसार का बोझ इन्हीं पर है; पर जो बडे़ लोग हैं उन के सब काम महारम्भ होते हैं तब भी उनके मुख पर कहीं से व्याकुलता नहीं झलकती, क्योंकि एक तो उनके उदार चित्त में धैर्य और अवकाश बहुत है, दूसरे उनके समय व्यर्थ नहीं जाते और ऐसे यथायोग्य बने रहते हैं जिससे उन पर कभी भीड़ पड़ती ही नहीं।
इ. : भला महाराज वह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है।
ना. : यही तो हम कहते हैं। निस्संदेह वह राजा कुल का कलंक है जिसने बिना पात्रा विचारे दान देते-देते सब लक्ष्मी का क्षय कर दिया, आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया। और जहाँ प्रबन्ध है वहाँ धन ही क्या कमती है। मनुष्य कितना धन देगा और जाचक कितना लेंगे।
इ. : पर यदि कोई अपने वित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु मांगे जिससे दाता की सर्वस्व हानि हो तो वह दे कि नहीं?
ना. : क्यों नहीं। अपना सर्वस्व वह क्षण भर में दे सकता है, पात्रा चाहिए। जिसको धन पाकर सत्पात्रा में उसके त्याग की शक्ति नहीं है वह उदार कहाँ हुआ।
इ. : (आप ही आप) भला देखेंगे न।
ना. : राजन्! मानियों के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है। वे तो अपने सहज सुभाव ही से सत्य और विचार तथा दृढ़ता में ऐसे बंधे हैं कि सत्पात्र मिलने या बात पड़ने पर उनको स्वर्ण का पर्वत भी तिल सा दिखाई देता है। और उसमें भी हरिश्चन्द्र-जिसका सत्य पर ऐसा स्नेह है जैसा भूमि, कोष, रानी, और तलवार पर भी नहीं है। जो सत्यानुरागी ही नहीं है भला उससे न्याय कब होगा, और जिसमें न्याय नहीं है वह राजा ही काहे का है। कैसी भी विपत्ति और उभय संकष्ट पड़ै और कैसी ही हानि वा लाभ हो पर जो न्याय न छोड़े वही धीर और वही राजा और उस न्याय का मूल सत्य है।
इ. : तो भला वह जिसे जो देने को कहैगा देगा वा जो करने को कहैगा वह करैगा।
ना. : क्या आप उसका परिहास करते हैं? किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निन्दा है। क्या आप ने उसका यह सहज साभिमान वचन कभी नहीं सुना है-
चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत व्योहार।
पै दृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य विचार ।।
इ. : (आप ही आप) तो फिर इसी सत्य के पीछे नाश भी होंगे, हमको भी अच्छा उपाय मिला। (प्रगट) हाँ पर आप यह भी जानते हैं कि क्या वह यह सब धम्र्म स्वर्ग लेने को करता है?
ना. : वाह। भला जो ऐसे उदार हैं उनके आगे स्वर्ग क्या वस्तु है। क्या बड़े लोग धर्म स्वर्ग पाने को करते हैं। जो अपने निर्मल चरित्र से संतुष्ट हैं उन के आगे स्वर्ग कौन वस्तु है। फिर भला जिनके शुद्ध हृदय और सहज व्योहार हैं वे क्या यश वा स्वर्ग की लालच में धर्म करते हैं। वे तो आपके स्वर्ग को सहज में दूसरे को दे सकते हैं। और जिन लोगों को भगवान के चरणारविंद में भक्ति है वे क्या किसी कामना से धर्माचरण करते हैं, यह भी तो एक क्षुद्रता है कि इस लोक में एक देकर परलोक में दो की आशा रखना।
इ. : (आप ही आप) हमने माना कि उस को स्वर्ग लेने की इच्छा न हो तथापि अपने कर्मों से वह स्वर्ग का अधिकारी तो हो जायेगा।
ना. : और जिनको अपने किये शुभ अनुष्ठानों से आप संतोष मिलता है उन के उस असीम आनंद के आगे आप के स्वर्ग का अमृतपान और अप्सरा तो महा महा तुच्छ हैं। क्या अच्छे लोग कभी किसी शुभ कृत्य का बदला चाहते हैं।
इ. : तथापि एक बेर उनके सत्य की परीक्षा होती तो अच्छा होता।
ना. : राजन्! आपका यह सब सोचना बहुत अयोग्य है। ईश्वर ने आपको बड़ा किया है तो आप को दूसरों की उन्नति और उत्तमता पर संतोष करना चाहिए। ईर्ष्या करना तो क्षुद्राशयों का काम है। महाशय वही है जो दूसरों की बड़ाई से अपनी बड़ाई समझै।
इ. : (आप ही आप) इन से काम न होगा। (बात बहलाकर प्रगट) नहीं नहीं मेरी यह इच्छा थी कि मैं भी उनके गुणों को अपनी आँखों से देखता। भला मैं ऐसी परीक्षा थोड़े लेना चाहता हूँ जिससे उन्हें कुछ कष्ट हो।
ना. : (आप ही आप) अहा! बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा वही है जिसका चित्त बड़ा है। अधिकार तो बड़ा है पर चित्त में सदा क्षुद्र और नीच बातैं सूझा करती हैं। वह आदर के योग्य नहीं है, परन्तु जो कैसा भी दरिद्र है पर उसका चित्त उदार और बड़ा है, वही आदरणीय है।
(द्वारपाल आता है)
द्वा. : महाराज! विश्वामित्र जी आए हैं।
इ. : (आप ही आप) हां इनसे वह काम होगा। अच्छे अवसर पर आए। जैसा काम हो वैसे ही स्वभाव के लोग भी चाहिएं। (प्रकट) हां हां लिवा लाओ।
द्वा. : जो आज्ञा। (जाता है)
(विश्वामित्र आते हैं)
इ. : (प्रणामादि शिष्टाचार करके) आइए भगवन्, विराजिए।
वि. : (नारदजी को प्रणाम करके और इन्द्र को आशीर्वाद देकर बैठते हैं)
ना. : तो अब हम जाते हैं, क्योंकि पिता के पास हमें किसी आवश्यक काम को जाना है।
वि. : यह क्या? हमारे आते ही आप चले, भला ऐसी रुष्टता किस काम की।
ना. : हरे हरे! आप ऐसी बात सोचते हैं, राम राम भला आप के आने से हम क्यों जायंगे। मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गये।
इ. : (हंसकर) आपकी जो इच्छा।
ना. : (आप ही आप) हमारी इच्छा क्या अब तो आप ही की यह इच्छा है कि हम जायं, क्योंकि अब आप तो विश्व के अमित्र जी से राजा हरिश्चन्द्र को दुख देने की सलाह कीजिएगा तो हम उसके बाधक क्यों हो, पर इतना निश्चय रहे कि सज्जन को दुर्जन लोग जितना कष्ट देते हैं उतनी ही उनकी सत्य कीर्ति तपाए सोने की भांति और भी चमकती है क्योंकि विपत्ति बिना सत्य की परीक्षा नहीं होती। (प्रगट) यद्यपि ‘जो इच्छा’ आप ने सहज भाव से कहा है तथापि परस्पर में ऐसे उदासीन बचन नहीं कहते क्योंकि इन वाक्यों से रूखापन झलकता है। मैं कुछ इसका ध्यान नहीं करता, केवल मित्र भाव से कहता हूं। लो, जाता हूं और यही आशीर्वाद दे कर जाता हूं कि तुम किसी को कष्टदायक मत हो क्योंकि अधिकार पाकर कष्ट देना यह बड़ों की शोभा नहीं, सुख देना शोभा है।
इ. : (कुछ लज्जित होकर प्रणाम करता है)।
(नारदजी जाते हैं)
वि. : यह क्यों? आज नारद भगवान ऐसी जली कटी क्यों बोलते थे, क्या तुमने कुछ कहा था।
इ. : नहीं तो। राजा हरिश्चन्द्र का प्रसंग निकला था सो उन्होंने उसकी बड़ी स्तुति की और हमारा उच्च पद का आदरणीय स्वभाव उस परकीत्र्ति को सहन न कर सका। इसी में कुछ बात ही बात ऐसा सन्देह होता है कि वे रुष्ट हो गए।
वि. : तो हरिश्चन्द्र में कौन से ऐसे गुण हैं? (सहज की भृकुटी चढ़ जाती है)।
इ. : (ऋषि का भ्रूभंग देखकर चित्त में संतोष करके उनका क्रोध बढ़ाता हुआ) महाराज सिपारसी लोग चाहे जिसको बढ़ा दें, चाहे घटा दें। भला सत्य धम्र्म पालन क्या हंसी खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है जिन्होंने घर बार छोड़ दिया है। भला राज करके और घर में रह के मनुष्य क्या धर्म का हठ करैगा। और फिर कोई परीक्षा लेता तो मालूम पड़ती। इन्हीं बातों से तो नारद जी बिना बात ही अप्रसन्न हुए।
वि. : मैं अभी देखता हूँ न। तो हरिश्चन्द्र को तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भला मेरे सामने वह क्या सत्यवादी बनैगा और क्या दानीपने का अभिमान करैगा।
(क्रोधपूर्वक उठ कर चला चाहते हैं कि परदा गिरता है)।
।। इति प्रथम अंक ।।
दूसरा अंक
स्थान राजा हरिश्चन्द्र का राजभवन।
रानी शैव्या बैठी हैं और एक सहेली बगल में खड़ी है।
रा. : अरी? आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे हैं कि जब से सो के उठी हूं कलेजा कांप रहा है। भगवान् कुसल करे।
स. : महाराज के पुन्य प्रताप से सब कुसल ही होगी आप कुछ चिन्ता न करें। भला क्या सपना देखा है मैं भी सुनूँ?
रा. : महाराज को तो मैंने सारे अंग में भस्म लगाए देखा है और अपने को बाल खोले, और (आँखों में आँसू भर कर) रोहितास्व को देखा है कि उसे सांप काट गया है।
स. : राम! राम! भगवान् सब कुसल करेगा। भगवान् करे रोहितास्व जुग जुग जिए और जब तक गंगा जमुना में पानी है आप का सोहाग अचल रहे। भला आप ने इस की शांती का भी कुछ उपाय किया है।
रा. : हाँ गुरुजी से तो सब समाचार कहला भेजा है देखो वह क्या करते हैं।
स. : हे भगवान् हमारे महाराज महारानी कुँअर सब कुसल से रहैं, मैं आंचल पसार के यह वरदान मांगती हूं।
(ब्राह्मण आता है)
ब्रा. : (आशीर्वाद देता है)
स्वस्त्यस्तुतेकुशलमस्तुचिरायुरस्तु
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु
ऐश्वय्र्यमस्तुकुशलोस्तुरिपुक्षयोस्तु
सन्तानवृद्धिसहिताहरिभक्तिरस्तु ।।
रा. : (हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है)
ब्रा. : महाराज गुरूजी ने यह अभिमंत्रित जल भेजा है। इसे महारानी पहिले तो नेत्रों से लगा लें और फिर थोड़ा स पान भी कर लें और यह रक्षाबंधन भेजा है। इसे कुमार रोहिताश्व की दहनी भुजा पर बांध दें फिर इस जल से मैं मार्जन करूंगा।
रा. : (नेत्रा में जल लगाकर और कुछ मंुह फेर कर आचमन करके) मालती, यह रक्षाबन्धन तू सम्हाल के अपने पास रख। जब राोहितास्व मिले उस के दहने हाथ पर बाँध दीजियो।
स. : जो आज्ञा (रक्षाबन्धन अपने पास रखती है)।
ब्रा. : तो अब आप सावधान हो जायं मैं मार्जन कर लूँ।
रा. : (सावधान होकर) जो आज्ञा।
ब्रा. : (दुर्बा से मार्जन करता है)
देवास्त्वामभिषिंचन्तुब्रह्मविष्णुशिवादयः
गन्धव्र्वाःकिन्नराः नागाः रक्षा कुव्र्वन्तुतेसदा
पितरोगुह्यकायक्षाः देव्योभूताचमातरः
सव्र्वेत्वामभिषिंचन्तुरक्षांकुर्वन्तुतेसदा
भद्रमस्तुशिवंचास्तुमहालक्ष्मीप्रसीदतु
पतिपुत्रयुतासाध्विजीत्ववं शरदांशतं ।।
(मार्जन का जल पृथ्वी पर फेंककर)
यत्पापंरोगमशुभंतद्दूरेंप्रतिहतमस्तु
(फिर रानी पर मार्जन करके)
यन्मंगलंशुभं सौभाग्यधनधान्यमारोग्यं बहु
पुत्रत्वं तत्सव्र्वमीशप्रसादात्ब्राम्हणवचनात्त्वय्यस्तु
(मार्जन कर के फूल अक्षत रानी के हाथ में देता है)
रा. : (हाथ जोड़कर ब्राह्मण को दक्षिणा देती है)
महाराज गुरु जी से मेरी ओर से बिनती करके दंडवत कह दीजिएगा।
ब्रा. : जो आज्ञा (आशीर्वाद देकर जाता है)
रा. : आज महाराज अब तक सभा में नहीं आए?
स. : अब आते होंगे, पूजा में कुछ देर लगी होगी।
(नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं)
(राग भैरव)
प्रगटहु रविकुलरबि निसि बीती प्रजा कमलगन फूले।
मन्द परे रिपुगन तारा सम जन भय तम उन भूले ।।
नसे चोर लम्पट खल लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो।
मागध बंदी सूत चिरैयन मिलि कलरोर मचायो ।।
तुव कस सीतल पौन परसि चटकीं गुलाब की कलियां।
अति सुख पाइ असीस देत सोइ करि अंगुरिन चट अलियां ।।
भए धरम मैं थित सब द्विज जन प्रजा काज निज लागे।
रिपु जुवती मुख कुमुद मन्द जन चक्रवाक अनुरागे ।।
अरध सरिस उपहार लिए नृप ठाढ़े तिन कहं तोखौ।
न्याव कृपा सों ऊंच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ।
(नेपथ्य में से बाजे की धुनि सुन पड़ती है)
रा. : महाराज ठाकुर जी के मंदिर से चले, देखो बाजों का शब्द सुनाई देता है और बंदी लोग भी गाते आते हैं।
स. : आप कहती हैं चले? वह देखिये आ पहुंचे कि चले।
रा. : (घबड़ा कर आदर के हेतु उठती हैं)
(परिकर1 सहित महाराज हरिश्चन्द्र2 आते हैं)
(रानी प्रणाम करती हैं और सब लोग यथा स्थान बैठते हैं)
ह. : (रानी से प्रीतिपूर्वक) प्रिये! आज तुम्हारा मुखचन्द्र मलीन क्यों हो रहा है?
रा. : पिछली रात मैंने कुछ दुःस्वप्न देखे हैं जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है।
ह. : प्रिये! यद्यपि स्त्रियों का स्वभाव सहज ही भीरु होता है पर तुम तो वीर कन्या वीरपत्नी और वीरमाता हो तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यों?
रा. : नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है।
ह. : सो गुरु जी से कुछ शान्ति करने को नहीं कहलाया।
रा. : महाराज! शान्ति तो गुरु जी ने कर दी है।
ह. : तब क्या चिन्ता है शास्त्रा और ईश्वर पर विश्वास रक्खो सब कल्याण होगा। सदा सर्वदा सहज मंगल साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ के संतोष करना चाहिए।
रा. : महाराज! स्वप्न के शुभाशुभ का विचार कुछ महाराज ने भी ग्रंथों में देखा है?
ह. : (रानी की बात अनसुनी करके) स्वप्न तो कुछ हमने भी देखा है चिन्तापूर्वक स्मरण करके। हां यह देखा है कि एक क्रोधी ब्राह्मण विद्या साधन करने को सब दिव्य महाविद्याओं को खींचता है और जब मैं स्त्री जान कर उनको बचाने गया हूँ तो वह मुझी से रुष्ट हो गया है और फिर जब बड़े विनय से मैंने उसे मनाया है तो उसने मुझसे मेरा सारा राज्य मांगा है। मैंने उसे प्रसन्न करने को अपना सब राज्य दे दिया है। (इतना कहकर अत्यन्त व्याकुलता नाट्य करता है।)
रा. : नाथ। आप एक साथ ऐसे व्याकुल क्यों हो गए?
ह. : मैं यह सोचता हूँ कि अब मैं उस ब्राह्मण को कहाँ पाऊंगा और बिना उसकी थाती उसे सौंपे भोजन कैसे करूंगा।
रा. : नाथ। क्या स्वप्न के व्योहार को भी आप सत्य मानिएगा?
ह. : प्रिये, हरिश्चन्द्र की अर्धान्गिनि होकर तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं है। हा! भला तुम ऐसी बात मुंह से निकालती हौ! स्वप्न किसने देखा है? मैंने न? फिर क्या? स्वप्न संसार अपने काल में असत्य है इसका कौन प्रमाण है, और जो अब असत्य कहो तो मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है, फिर इस संसार में परलोक के हेतु लोग धर्माचरण क्यों करते हैं? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में क्या प्रत्यक्ष।
रा. : (हाथ जोड़कर) नाथ क्षमा कीजिए, स्त्री की बुद्धि ही कितनी।
ह. : (चिन्ता करके) पर मैं अब करूं क्या! अच्छा। प्रधान! नगर में डौंडी पिटवा दो कि राज्य सब लोग आज से अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण का समझें उसके अभाव में हरिश्चन्द्र उसके सेवक की भाँति उसकी थाती समझ के राज का काय्र्य करेगा और दो मुहर राज काज के हेतु बनवा लो एक पर ‘अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण सेवक हरिश्चन्द्र’ और दूसरे पर ‘राजाधिराज अज्ञात नाम गोत्रा ब्राह्मण महाराज’ खुदा रहे और आज से राज काज के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे। देस देस के राजाओं और बड़े-बड़े कार्याधीशों को भी आज्ञापत्रा भेज दो कि महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में अज्ञातनामगोत्रा ब्राह्मण को पृथ्वी दी है इससे आज से उसका राज हरिश्चन्द्र मंत्री की भांति सम्हालेगा।
(द्वारपाल आता है)
द्वा. : महाराजाधिराज! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा है और व्यर्थ हम लोगों को गाली देता है।
ह. : (घबड़ा कर) अभी सादरपूर्वक ले आओ।
द्वा. : जो आज्ञा (जाता है)।
ह. : यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी बात हो।
(द्वारपाल के साथ विश्वामित्र आते हैं)।
ह. : (आदरपूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम करके) महाराज! पधारिए, यह आसन है।
वि. : बैठे, बैठ चुके, बोल अभी तैनें मुझे पहिचाना कि नहीं।
ह. : (घबड़ाकर) महाराज! पूब्र्ब परिचित तो आप ज्ञात होते हैं।
वि. : (क्रोध से) सच है रे क्षत्रियाधम। तू काहे को पहिचानेगा, सच है रे सूर्यकुलकलंक तू क्यों पहिचानेगा, धिक्कार तेरे मिथ्या धर्माभिमान को ऐसे ही लोग पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं। अरे दुष्ट तै भूल गया कल पृथ्वी किस को दान दी थी, जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
‘जातिस्वयंग्रहणदुर्ललितैकविप्रं
दृप्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम्
सर्गान्तराहरणभीतजगत्कृतान्तं
चण्डालयाजिनमवैषिनकौशिकंमाम्’
ह. : (पैरों पर गिरके बड़े विनय से) महाराज! भला आप को त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा।
‘अन्नक्षयादिषु तथाविहितात्मवृत्ति
राजप्रतिग्रह पराङमुखमानसं त्वाम्
आड़ोवकप्रधनकम्पितजीवलोकं
कस्तेजसां च तपसां च निधिर्नवेत्ति ।।’
बि. : (क्रोध से) सच है रे पाप पाखंड मिथ्यादान बीर! तू क्यों न मुझे ‘राज प्रतिग्रह पराङमुख’ कहेगा क्योंकि तैंने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान न दी है, ठहर-ठहर देख इस झूठ का कैसा फल भोगता है, हा! इसे देख कर क्रोध से जैसे मेरी दहिनी भुजा शाप देने को उठती है वैसे ही जाति स्मरण से के संस्कार से बाईं भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है, (अत्यन्त क्रोध से लंबी सांस लेकर और बांह उठा कर) अरे ब्रह्मा! सम्हाल अपनी सृष्टि को नहीं तो परम तेज पुञच दीर्घतपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या? ब्रह्मा का तो गर्ब उसी दिन मैंने चूर्ण किया जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभिमान चूर्ण करूंगा जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत् में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।
ह. : (पैरों पर गिर के) महाराज क्षमा कीजिए मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आप की मैं आप का भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुंह से निकालते हैं। (ईषत् क्रोध से) और आप बारंबार मुझे झूठा न कहिए। सुनिए मेरी यह प्रतिज्ञा है।
‘चन्द टरै सूरज टरै टरै जगत ब्योहार।
पै दृढ़ श्रीहरिचन्द को टरै न सत्य बिचार’ ।।
बि. : (क्रोध और अनादर पूब्र्बक हंस कर) ह्ह्ह्ह्! सच है सच है रे मूढ़! क्यों नहीं, आखिर सूर्यबंशी है। तो दे हमारी पृथ्वी।
ह. : लीजिए, इसमें विलम्ब क्या है, मैंने तो आप के आगमन के पूब्र्ब ही से अपना अधिकार छोड़ दिया है। (पृथ्वी की ओर देखकर)
जेहि पाली इक्ष्वाकु सीं अबलौं रवि कुल राज।
ताहि देत हरिचन्द नृप विश्वामित्र हि आज ।।
वसुधे! तुम बहु सुख कियो मम पुरुखन की होय। धरमबद्ध हरिचन्द को छमहु सु परबस जोय।।
वि. : (आप ही आप) अच्छा! अभी अभिमान दिखा ले, तो मेरा नाम विश्वामित्र जो तुझको सत्यभ्रष्ट कर के छोड़ा, और लक्ष्मी से तो भ्रष्ट हो ही चुका है। (प्रगट) स्वस्ति। अब इस महादान की दक्षिणा कहां है?
ह. : महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी आती है।
वि. : भला सहस्र स्वर्ण मुद्रा से कम इतने बडे़ दान की दक्षिणा क्या होगी।
ह. : जो आज्ञा (मंत्री से) मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ।
वि. : (क्रोध से) ‘मंत्री हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ’ मंत्री कहां से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है कि तैं मंत्री पर हुकुम चलाता है? झूठा कहीं का, देना ही नहीं था तो मुंह से कहा क्यों? चल मैं नहीं लेता ऐसे मनुष्य की दक्षिणा।
ह. : (हाथ जोड़कर बिनय से) महाराज ठीक है। खजाना अब सब आप का है, मैं भूला क्षमा कीजिए। क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है।
वि. : एक महीने में जो मुझे दक्षिणा न मिलेगी तो मैं तुझ पर कठिन ब्रह्मदंड गिराऊंगा, देख केवल एक मास की अवधि है।
ह. : महाराज! मैं ब्रह्मदंड से उतना नहीं डरता जितना सत्यदंड से इससे
बेचि देह दारा सुअन होइ दास हूं मन्द।
रखि है निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।
(आकाश से फूल की वृष्टि और बाजे के साथ जयध्वनि होती है)
(जवनिका गिरती है)
।। इति दूसरा अंक ।।
(तीसरे अंक में अंकावतार)
स्थान वाराणसी का बाहरी प्रान्त तालाब।
(पाप आता है)
पाप : (इधर उधर दौड़ता और हांफता हुआ) मरे रे मरे, जले रे जले, कहां जायं, सारी पृथ्वी तो हरिश्चन्द्र के पुन्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर ही नहीं सकते। सुना है कि राजा हरिश्चन्द्र काशी गए हैं क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उरिन नहीं हो सकते। यह बात जब हरिश्चन्द्र ने सुनी तो बहुत ही घबड़ाए और सोच विचार कर कहा कि बहुत अच्छा महाराज हम काशी में अपना शरीर बेचेंगे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है। यह सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें क्योंकि जहाँ हरिश्चन्द्र का राज्य न होगा वहाँ हमारे प्राण बचेंगे, सो यहाँ और भी उत्पात हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म, होम इत्यादि में लोग ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेंगे। रात दिन शंख घंटा की घनघोर के साथ वेद की धूनि मानो ललकार के हमारे शत्राु धर्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उस का हृदय एक साथ शीतल हो जाता है। इसके उपरान्त शि शि शि........ ध्वनि अलग मारे डालती है। हाय कहाँ जायं क्या करें। हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कट जाती है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है पर यहाँ तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न हो यहाँ आया कि गति हुई।
(नेपथ्य में)
येषांक्वापिगतिर्नास्ति तेषांवाराणसीगतिः
पाप : सच है, अरे! यह कौन महा भयंकर भेस, अंग में भभूत पोते; एड़ी तक जटा लटकाए, लाल लाल आँख निकाले साक्षात् काल की भांति त्रिशूल घुमाता हुआ चला आता है। प्राण! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो भागो पाताल में, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा ठिकाना लगना कठिन ही है।
(भागता हुआ जाता है)
(भैरव आते हैं)
भैर. : सच है। येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः। देखो इतना बड़ा पुन्यशील राजा हरिश्चन्द्र भी अपनी आत्मा और स्त्री पुत्र बेचने को यहीं आया है। अहा! धन्य है सत्य। आज जब भगवान भूतनाथ राजा हरिश्चन्द्र का वृतांत भवानी से कहने लगे तो उनके तीनों नेत्रा अश्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने से सब शरीर के भस्मकण अलग अलग हो गए। मुझको आज्ञा भी दी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा हरिश्चन्द्र की अंगरक्षा करना। इससे चलूं। मैं भी भेस बदलकर भगवान की आज्ञा पालन में प्रवत्र्त हूँ।
(जाते हैं। जवनिका गिरती है)
तीसरे अंक में यह अंकावतार समाप्त हुआ
तीसरा अंक
(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क)
महाराज हरिश्चन्द्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं
ह. : देखो काशी भी पहुंच गए। अहा! धन्य है काशी। भगवति बाराणसि तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है।
‘चारहु आश्रम बर्न बसै मनि कंचन धाम अकास बिभासिका।
सोभा नहीं कहि जाइ कछू बिधि नै रची मनो पुरीन की नासिका।
आपु बसैं गिरि धारनजू तट देवनदी बर बारि बिलासिका।
पुन्यप्रकासिका पापबिनासिका हीयहुलासिका सोहत कासिका’ ।। 1 ।।
‘बसैं बिंदुमाधव बिसेसरादि देव सबै दरसन ही तें लागै जम मुख मसी है।
तीरथ अनादि पंचगंगा मनिकर्निकादि सात आवरन मध्य पुन्य रूप धंसी है।
गिरिधरदास पास भागीरथी सोभा देत जाकी धार तोरै आसु कम्र्म रूप रसी है।
समी सम जसी असी बरना में बसी पाप खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी है’ ।। 2 ।।
‘रचित प्रभासी भासी अवलि मकानन की जिनमें अकासी फबै रतन नकासी है।
फिरैं दास दासी बिप्रगृही औ संन्यासी लसै बर गुनरासी देवपुरी हूं न जासी है।
गिरिधरदास बिश्वकीरति बिलासी रमा हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है।
खासी परकासी पुनवांसी चंदिक्रा सी जाके वासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है’ ।। 3 ।।
देखो। जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अंगूठी के नगीने सा नगर बनाया है वैसी ही नदी भी इसके लिये दी है। धन्य गंगे!
‘जम की सब त्रास बिनास करी मुख तें निज नाम उचारन में।
सब पाप प्रतापहि दूर दरौ तुम आपन आप निहारन में।
अहो गंग अनंग के शत्रु करे बहु नेकु जलै मुख डारन में।
गिरिधारनजू कितने बिरचे गिरिधारन धारन धारन में’ ।। 4 ।।
कुछ महात्म ही पर नहीं गंगा जी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है। आहा!
नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरति बूंद मध्यमुक्ता मनि पोहति ।।
लोल लहर लहि पवन एक पैं इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत ।।
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत ।।
श्री हरिपदनख चन्द्रकान्त मनि द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस ।।
शिव सिर मालति माल भगीरथ नृपति पुन्य फल।
ऐरावत गज गिरि पति हिम नग कंठहार कल ।।
सगर सुअन सठ सह्स परम जल मात्रा उधारन।
अगिनित धारारूप धारि सागर संचारन ।।
कासी कहं प्रिय जानि ललकि भेंट्यौ जब धाई।
सपनेहूं नहिं तजी रहीं अंकन लपटाई ।।
कहूं बंधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुं छतरी कहुं मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत ।।
धवल धाम चहुं ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका ।।
मधुरी नौबत बजब कहूं नारि नर गावत।
बेद पढ़त कहुं द्विज कहुं जोगी ध्यान लगावत।
कहूं सुंदरी नहात नीर कर जुगल उछारत।
जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत ।।
धोअत सुंदरि बदन करन अति ही छबि पावत।
‘बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत’ ।।
सुंदरि ससि मुख नीर मध्य इमि सुंदर सोहत।
कमल बेलि लहलही नवल कुसमन मन मोहत ।।
दीठि जहीं जहं जात रहत तितही ठहराई।
गंगा छबि हरिचन्द्र कछू बरनी नहीं जाई ।।
(कुछ सोचकर) पर हां! जो अपना जी दुखी होता है तो संसार सून जान पड़ता है।
असनं वसनं वासो येषां चैवाविधानतः।
मगधेनसमाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी ।।1
विश्वामित्र को पृथ्वी दान करके जितना चित्त प्रसन्न नहीं हुआ उतना अब बिना दक्षिणा दिये दुखी होता है। हा! कैसे कष्ट की बात है राजपाट धनधाम सब छूटा अब दक्षिणा कहाँ से देंगे! क्या करें! हम सत्य धर्म कभी छोड़ेंहीगे नहीं और मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होंगे, और जो वह शाप न भी देंगे तो क्या? हम ब्राह्मण का ऋण चुकाए बिना शरीर भी तो नहीं त्याग कर सकते। क्या करें? कुबेर को जीतकर धन लावें? पर कोई शस्त्रा भी तो नहीं है। तो क्या किसी से मांग कर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे। फिर ऋण काढ़ें? पर देंगे कहां से। हा! देखो काशी में आकर लोग संसार के बंधन से छूटते हैं पर हमको यहाँ भी हाय हाय मची है। हा! पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं अपना कलंकित मंुह फिर किसी को न दिखाऊं। (आतंक से) पर यह क्या? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर हमारे यह कर्म हैं कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी में समा जाना सोचें। (कुछ सोच कर) हमारी तो इस समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती। क्या करें? हमें तो संसार सूना देख पड़ता है। (चिंता करके। एक साथ हर्ष से) वाह, अभी तो स्त्री पुत्र और हम तीन-तीन मनुष्य तैयार हैं। क्या हम लोगों के बिकने से सहस्र स्वर्ण मुद्रा भी न मिलेंगी? तब फिर किस बात का इतना शोच? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहाँ सोई थी। हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था;
बेचि देह दारा सुअन होय दास हूं मंद।
रखि हैं निज बच सत्य करि अभिमानी हरिश्चन्द ।।
(नेपथ्य में) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता? क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-पीछे दक्षिणा के वास्ते लगे फिरें?
ह. : अरे मुनि तो आ पहुंचे। क्या हुआ आज उनसे एक दो दिन की अवधि और लेंगे।
विश्वामित्र आते हैं
वि. : (आप ही आप) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण फिर बहक गई कुछ इन्द्र के कहने ही पर नहीं हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है पर क्या करें इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूंगा तब तक मेरा संतोष न होगा (आगे देखकर) अरे यही दुरात्मा (कुछ रुककर) वा महात्मा हरिश्चंद्र है। (प्रगट) क्यों रे आज महीने में कै दिन बाकी है। बोल कब दक्षिणा देगा?
ह. : (घबड़ाकर) अहा! महात्मा कौशिक। भगवान् प्रणाम करता हूं। (दंडवत करता है)।
वि. : हुई प्रणाम, बोल तैं ने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ अब मैं एक क्षण भर भी न मानूंगा। दे अभी नहीं तो-(शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं।)
ह. : (पैरों पर गिरकर) भगवन् क्षमा कीजिए; क्षमा कीजिए। यदि आज सूर्यास्त के पहिले न दूं तो जो चाहे कीजिएगा। मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले आता हूं।
वि. : (आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) अच्छा आज सांझ तक और सही। सांझ को न देगा तो मैं शाप ही न दूंगा बरंच त्रौलोक्य में आज ही विदित कर दूंगा कि हरिश्चन्द्र सत्य भ्रष्ट हुआ। (जाते हैं)
ह. : भला किसी तरह मुनी से प्राण बचे। अब चलें अपना शरीर बेच कर दक्षिणा देने का उपाय सोचें। हा! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही मनुष्य कृतार्थ है जिस ने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी और क्रूर लहनदार की लाल आँखें नहीं देखी हैं। (आगे चल कर) अरे क्या बाजार में आ गए, अच्छा, (सिर पर तृण रखकर)1 अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, दुकानदार, हम किसी कारण से अपने को हजार मोहर पर बेचते हैं किसी को लेना हो तो लो। (इसी तरह कहता हुआ इधर उधर फिरता है) देखो कोई दिन वह था कि इसी मनुष्य विक्रय को अनुचित जानकर हम दूसरों को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते हैं। दैव बली है। (अरे सुनो भाई इत्यादि कहता हुआ इधर उधर फिरता है। ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्यों तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो?’ आर्य यह मत पूछो, यह सब कर्म की गति है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘तुम क्या क्या कर सकते हो; क्या समझते हो और किस तरह रहोगे?’ इस का क्या पूछना है। स्वामी जो कहेगा वही करेंगे; समझते सब कुछ हैं पर इस अवसर पर कुछ समझना काम नहीं आता; और जैसे स्वामी रक्खेगा वैसे रहेंगे। जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘कुछ दाम कम करो।’ आर्य हम लोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहां से जाने। जो कुछ ठीक था कह दिया।
(नेपथ्य में से)
आर्यपुत्र! ऐसे समय में हम को छोड़े जाते हो। तुम दास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूंगी। स्त्री को अद्र्धांगिनी कहते हैं, इससे पहिले बायां अंग बेच लो तब दाहिना अंग बेचो।
ह. : (सुनकर बड़े शोक से) हा! रानी की यह दशा इन आँखों से कैसे देखी जायेगी!
(सड़क पर शैव्या और बालक फिरते हुए दिखाई पड़ते हैं)
शै. : कोई महात्मा कृपा करके हम को मोल ले तो बड़ा उपकार हो।
बा. : अम को बी कोई मोल ले लो बला उपकाल ओ।
शै. : (आँखों में आंसू भरकर) पुत्र! चन्द्रकुलभूषण महाराज वीरसेन का नाती और सूर्यकुल की शोभा महाराज हरिश्चन्द्र का पुत्र होकर तू क्यों ऐसे कातर बचन कहता है। मैं अभी जीती हूँ! (रोती है)
बा. : (माँ का अंचल पकड़ के) माँ! तुमको कोई मोल लेगा तो अम को भी मोल लेगा। आं आं मा लोती काए को औ। (कुछ रोना सा मुंह बना के शैव्या का आंचल पकड़ के झूलने लगता है।)
शै. : (आंसू पोंछकर) पुत्र! मेरे भाग्य से पूछ।
ह. : अहह! भाग्य! यह भी तुम्हें देखना था। हा! अयोध्या की प्रजा रोती रह गई हम उनको कुछ धीरज भी न दे आए। उनकी अब कौन गति होगी। हा! यह नहीं कि राज छूटने पर भी छुटकारा हो अब यह देखना पड़ा। हृदय तुम इस चक्रवर्ती की सेवा योग्य बालक और स्त्री को बिकता देखकर टुकड़े-टुकड़े क्यों नहीं हो जाते? (बारंबार लंबी सांसें लेकर आंसू बहाता है)।
शै. : (कोई महात्मा इत्यादि कहती हुई ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्या क्या करोगी?’ पर पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और सब सेवा करूंगी। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘पर इतने मोल पर कौन लेगा?’ आर्य कोई साधु ब्राह्मण महात्मा कृपा करके ले ही लेंगे।
(उपाध्याय और बटुक आते हैं)
उ. : क्यों रे कौंडिन्य! सच ही दासी बिकती है?
ब. : हाँ गुरुजी क्या मैं झूठ कहूंगा। आप ही देख लीजिएगा।
उ. : तो चल, आगे भीड़ हटाता चल। देख धाराप्रवाही भांति कैसे सब काम काजी लोग अधर से उधर फिर रहे हैं। भीड़ के मारे पैर धरने की जगह नहीं है, और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता।
ब. : (आगे आगे चलता हुआ) हटो भाई हटो (कुछ आगे बढ़कर) गुरुजी यह जहाँ भीड़ लगी है वहीं होगी।
उ. : (शैव्या को देखकर) अरे यही दासी बिकती है?
शै. : (अरे कोई हम को मोल ले इत्यादि कहती और रोती है)
बा. : (माता की भांति तोतली बोली से कहता है)
उ. : पुत्री। कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी?
शै. : पर पुरुष से सम्भाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और जो-जो कहिएगा सब सेवा करूंगी।
उ. : वाह! ठीक है। अच्छा लो यह सुबर्ण। हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्रा के अग्नि की सेवा से घर से काम काज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना।
शै. : (हाथ फैलाकर) महाराज आप ने बड़ा उपकार किया।
उ. : (शैव्या को भली भांति देखकर आप ही आप) आहा! यह निस्संदेह किसी बडे़ कुल की है। इसका मुख सहज लज्जा से ऊँचा नहीं होता, और दृष्टि बराबर पैर ही पर है। जो बोलती है वह धीरे-धीरे बहुत सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों हुई! (प्रगट) पुत्री तुम्हारे पति है न?
श. : (राजा की ओर देखती)
ह. : (आप ही आप दुख से) अब नहीं। पति के होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो।
उ. : (राजा को देखकर आश्चर्य से) अरे यह विशाल नेत्रा, प्रशस्त वक्षस्थल, और संसार की रक्षा करने के योग्य लंबी-लंबी भुजा वाला कौन मनुष्य है, और मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रक्खा है? (प्रगट) महात्मा तुम हम को अपने दुख का भागी समझो और कृपा पूर्वक अपना सब वृत्तांत कहो।
ह. : भगवान्! और तो विदित करने का अवसर नहीं है इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के ऋण के कारण यह दशा हुई।
उ. : तो हम से धन लेकर आप शीघ्र ही ऋणमुक्त हूजिए।
ह. : (दोनों कानों पर हाथ रखकर) राम राम! यह तो ब्राह्मण की बृत्ति है। आप से धन लेकर हमारी कौन गति होगी?
उ. : तो पाँच हजार पर आप दोनों में से जो चाहे सो हमारे संग चले।
शै. : (राजा से हाथा जोड़र) नाथ हमारे आछत आप मत बिकिए, जिस में हम को अपनी आँख से यह न देखना पड़े हमारी इतनी बिनती मानिए। (रोती है)
ह. : (आँसू रोक कर) अच्छा! तुम्ही जाओे। (आप ही आप) हा! यह बज्र हृदय हरिश्चन्द्र ही का है कि अब भी नहीं बिदीर्ण होता।
शै. : (राजा के कपड़े में सोना बांधती हुई) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होंगे। (रोती हुई उपाध्याय से) आर्य आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का भली भांति दर्शन कर लूं। फिर यह मुख कहाँ और मैं कहाँ।
उ. : हाँ हाँ मैं जाता हूं। कौडिन्य यहाँ है तुम उसके साथ आना। (जाता है)
शै. : (रोकर) नाथ मेरे अपराधों को क्षमा करना।
ह. : (अत्यन्त घबड़ाकर) अरे अरे विधाता तुझे यही करना था। (आप ही आप) हा! पहिले महारानी बनाकर अब दैव ने इसे दासी बनाया। यह भी देखना बदा था। हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है। (रोता हुआ प्रगट रानी से) प्रिये सर्वभाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना और सेवा करना।
शै. : (रोकर) नाथ! जो आज्ञा।
बटु. : उपाध्याय जी गए अब चलो जल्दी करो।
ह. : (आँखों में आँसू भर के) देवी (फिर रुक कर अत्यंत सोच में आप ही आप) हाय! अब मैं देवी क्यों कहता हूं अब तो विधाता ने इसे दासी बनाया। (धैर्य से) देवी! उपाध्याय की आराधना भली भांति करना और इनके सब शिष्यों से भी सुहृत भाव रखना, ब्राह्मण के स्त्री की प्रीति पूर्वक सेवा करना, बालक का यथासंभव पालन करना, और अपने धर्म और प्राण की रक्षा करना। विशेष हम क्या समझावें जो जो दैव दिखावे उसे धीरज से देखना। (आंसू बहते हैं)
शै. : जो आज्ञा (राजा के पैरों पर गिर के रोती है)।
ह. : (धैर्य पूव्र्वक) प्रिये! देर मत करो बटुक घबड़ा रहे हैं।
श. : (उठ कर रोती और राजा की ओर देखती हुई धीरे-धीरे चलती है)
वा. : (राजा से) पिता माँ कआँ जाती ऐं।
ह. : (धैर्य से आंसू रोककर) जहाँ हमारे भाग्य ने उसे दासी बनाया है।
बा. : (बटुक से) अले मां को मत लेजा। (माँ का आँचल पकड़ के खींचता है)
बटु. : (बालक को ढकेल कर) चल चल देर होती है।
बा. : (ढकेलने से गिर कर रोता हुआ उठकर अत्यंत क्रोध और करुणा से माता पिता की ओर देखता है)
ह. : ब्राह्मण, देवता! बालकों के अपराध से नहीं रुष्ट होना (बालक को उठाकर धूर पोंछ के मुंह चूमता हुआ) पुत्र मुझ चांडाल का मुख इस समय ऐसे क्रोध से क्यों देखता है? ब्राह्मण का क्रोध तो सभी दशा में सहना चाहिए। जाओ माता के संग मुझ भाग्यहीन के साथ रह कर क्या करोगे। (रानी से) प्रिये धैर्य धरो। अपना कुल और जाति स्मरण करो। अब जाओ, देर होती है।
(रानी और बालक रोते हुए बटुक के साथ जाते हैं)
ह. : धन्य हरिश्चन्द्र! तुम्हारे सिवाय और ऐसा कठोर हृदय किस का होगा। संसार में धन और जन छोड़कर लोग स्त्री की रक्षा करते हैं पर तुमने उसका भी त्याग किया।
(विश्वामित्र आते हैं)
ह. : (पैर पर गिर के प्रणाम करता है)
बि. : ला दे दक्षिणा। अब सांझ होने में कुछ देर नहीं है।
ह. : (हाथ जोड़कर) महाराज आधी लीजिए आधी अभी देता हूं। (सोना देता है)
बि. : हम आधी दक्षिणा लेके क्या करें! दे चाहे जहाँ से सब दक्षिणा। (नेपथ्य में) धिक् तपो धिक् व्रतमिदं ध्कि ज्ञानं धिक् बहुश्रुतम्। नीतंवान सियब्रह्मन् हरिश्चंद्रमिमां दशां।
बि. : (बड़े क्रोध से) आः हमको धिक्कार देने वाला यह कौन दुष्ट है? (ऊपर देखकर) अरे बिश्वेदेवा (क्रोध से जल हाथ में लेकर) अरे क्षत्रिय के पक्षपातियो! तुम अभी विमान से गिरो और क्षत्रिय के कुल में तुम्हारा जन्म हो और वहाँ भी लड़कपन ही में ब्राह्मण के हाथ से मारे जाओ। जल छोड़ते हैं,
(नेपथ्य में हाहाकार के साथ बड़ा शब्द होता है)
(सुनकर और ऊपर देखकर आनंद से) हहहह! अच्छा हुआ! यह देखो किरीट कुंडल बिना मेरे क्रोध से बिमान से छूट कर विश्वेदेवा उलटे हो-हो कर नीचे गिरते हैं। और हमको धिक्कार दें।
ह. : (ऊपर देखकर भय से) बाह रे तप का प्रभाव। (आप ही आप) तब तो हरिश्चन्द्र को अब तक शाप नहीं दिया है यही बड़ा अनुग्रह है। (प्रगट) भगवन् यह स्त्री बेचकर आधा धन पाया है सो लें और आधा हम अपने को बेचकर अभी देते हैं। (नेपथ्य में) अरे अब तो नहीं सही जाती।
बि. : हम आधा न लेंगे चाहे जहाँ से अभी सब दे।
ह. : (अरे सुनो भाई सेठ साहूकार इत्यादि पुकारता हुआ घूमता है)
(चांडाल के भेष में धर्म और सत्य आते हैं)2
धर्म : (आप ही आप)
हम प्रत्तच्छ हरिरूप जगत हमरे बल चालत।
जल थल नभ थिर मो प्रभाव मरजाद न टालत ।।
हमहीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।
इक हमहीं संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।
सो हम नित थित इक सत्य मैं जाके बल सब जियो।
सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेस हम यह कियो ।।
(आश्चर्य से आप ही आप) सचमुच इस राजर्षि के समान दूसरा आज त्रिभुवन में नहीं है। (आगे बढ़कर प्रत्यक्ष) अरे हरजनवाँ! मोहर का संदूख ले आवा है न?
सत्य. : क चैधरी मोहर ले के का करबो?
धर्म. : तों हमे का काम पूछै से?
(दोनों आगे बढ़ते हुए फिरते हैं)
ह. : (अरे सुनो भाई सेठ साहुकार इत्यादि दो तीन बेर पुकार के इधर उधर घूमकर) हाय! कोई नहीं बोलता और कुलगुरु भगवान् सूर्य भी आज हमसे रुष्ट हो कर शीघ्र ही अस्ताचल जाया चाहते हैं। (घबराहट दिखाता है)।
धर्म : (आप ही आप) हाय हाय! इस समय इस महात्मा को बड़ा ही कष्ट है। तो अब चलें आगे। (आगे बढ़ कर) अरे अरे हम तुम को मोल लेंगे। लेव यह पचास सै मोहर लेव।
ह. : (आनन्द से आगे बढ़कर) वाह कृपानिधान! बड़े अवसर पर आए। लाइये। (उसको पहिचान कर) आप मोल लोगे?
धर्म : हाँ हम मोल लेंगे। (सोना देना चाहता है)।
ह. : आप कौन हैं?
धर्म : हम चैधरी डोम सरदार।
अमल हमारा दोनों पार ।।
सब मसान पर हमारा राज।
कफन मांगने का है काज ।।
फूलमती देवी1 के दास।
पूजैं सती मसान निवास ।।
धनतेरस औ रात दिवाली।
बल चढ़ाय के पूजैं काली ।।
सो हम तुमको लेंगे मोल।
देंगे मुहर गांठ के खोल ।।
(मत्त की भांति चेष्टा करता है)
ह. : (बड़े दुःख से) अहह! बड़ा दारुण व्यसन उपस्थित हुआ है। (विश्वामित्र से) भगवान् मैं पैर पड़ता हूँ, मैं जन्म भर आप का दास होकर रहूंगा, मुझे चांडाल होने से बचाइए ।।
वि. : छिः मूर्ख! भला हम दास लेके क्या करेंगे।
‘स्वयंदासास्तपस्विनः’
ह. : (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा कीजियेगा हम सब करेंगे।
वि. : सब करेगा न? (ऊपर हाथ उठाकर) कर्म के साक्षी देवता लोग सुनें, यह कहता है कि जो आप कहेंगे मैं सब करूंगा।
ह. : हाँ हाँ जो आप आज्ञा कीजिएगा सब करूंगा।
बि. : तो इसी गाहक के हाथ अपने को बेचकर अभी हमारी शेष दक्षिणा चुका दे।
ह. : जो आज्ञा। (आप ही आप) अब कौन सोच है। (प्रगट धर्म से) तो हम एक नियम पर बिकेंगे।
धर्म : वह कौन?
ह. : भीख असन कम्मल बसन रखिहैं दूर निवास।
जो प्रभु आज्ञा होइ है करि हैं सब ह्नै दास ।।
धर्म : ठीक है लेव सोना (दूर से राजा के आंचल में मोहर देता है)
ह. : (लेकर हर्ष से आप ही आप)
ऋण छूट्यो पूरîो बचन द्विजहु न दीनो शाप।
सत्य पालि चंडालहू होइ आजु मोहि दाप ।।
(प्रगट विश्वामित्र से) भगवन्! लीजिए यह मोहर।
बि. : (मुँह चिढ़ाकर) सचमुच देता है?
ह. : हाँ हाँ यह लीजिए। (मोहर देते हैं)
बि. : (लेकर) स्वस्ति। (आप ही आप) बस अब चलो बहुत परीक्षा हो चुकी। (जाना चाहते हैं)
ह. : (हाथ जोड़कर) भगवन् दक्षिणा देने में देर होने का अपराध क्षमा हुआ न?
बि. : हाँ क्षमा हुआ। अब हम जाते हैं।
ह. : भगवन् प्रणाम करता हूँ।
(बिश्वामित्र आशीर्वाद देकर जाते हैं)
ह. : अब चैधरी जी (लज्जा से रुककर) स्वामी की जो आज्ञा हो वह करें।
धर्म : (मत्त की भांति नाचता हुआ)
जाओ अभी दक्खिनी मसान।
लेओ वहाँ कफ्फन का दान ।।
जो कर तुमको नहीं चुकावै।
सो किरिया करने नहिं पावै ।।
चलो घाट पर करो निवास।
भए आज से मेरे दास ।।
ह. : जो आज्ञा। (जवनिका गिरती है)
सत्यहरिश्चन्द्र का तीसरा अंक समाप्त हुआ।
चौथा अंक
(श्मशान)
स्थान: दक्षिण, स्मशान, नदी, पीपल का बड़ा पेड़,
चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी, इत्यादि।
कम्मल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चन्द्र फिरते दिखाई पड़ते हैं।
ह. : (लम्बी सांस लेकर) हाय! अब जन्म भर यही दुख भोगना पड़ेगा।
जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान।
कफन खसोटी को करम, सबही एक समान ।।
न जाने विधाता का क्रोध इतने पर भी शांत हुआ कि नहीं। बड़ों ने सच कहा है कि दुःख से दुःख जाता है। दक्षिणा का ऋण चुका तो यह कर्म करना पड़ा। हम क्या सोचें। अपनी अनथ प्रजा क्या को, या दीन नातेदारों को या अशरश नौकरों को, या रोती हुई दासियों को, या सूनी अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान बालक को, या अपने ही इस चंडालपने को। हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोधभरी और रानी ने जाती समय करुणाभरी दृष्टि से जो मेरी ओर देखा था वह अब तक नहीं भूलती। (घबड़ा कर) हा देवी! सूर्यकुल की बहू और चंद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गईं और दासी बनीं। हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की माला भी नहीं गुथ सकती थीं उनसे बरतन कैसे मांजोगी! (मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हल कर) अथवा क्या हुआ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चन्द्र ने सत्य छोड़ा।
बेचि देह दारा सुअन होई दासहू मन्द।
राख्यौ निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचन्द ।।
(आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)
अरे! यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी? कोई पुन्यात्मा का मुरदा आया होगा। तो हम सावधान हो जायं। (लट्ठ कंधे पर रखकर फिरता हुआ) खबरदार खबरदार बिना हम से कहे और बिना हमें आधा कफन दिये कोई संस्कार न करे। (यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा से इधर उधर देखता फिरता है) (नेपथ्य में कोलाहल सुनकर) हाय हाय! कैसा भयंकर समशान है! दूर से मंडल बांध बांध कर चोंच बाए, डैना फैलाए, कंगालों की तरह मुरदों पर गिद्ध कैसे गिरते हैं, और कैसा मांस नोंच नोंच कर आपुस में लड़ते और चिल्लाते हैं। इधर अत्यंत कर्णकटु अमंगल के नगाड़े की भांति एक के शब्द की लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिराईन फैलाती हुई चट चट करती चिता कैसी जल रही हैं, जिन में कहीं से मांस के टुकड़े उड़ते हैं, कहीं लोहू बा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला पीला हो रहा है। ज्वाला घूम घूम कर निकलती है। आग कभी एक साथ धधक उठती है कभी मन्द हो जाती है। धुआँ चारों ओर छा रहा है। (आगे देखकर आदर से) अहा! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो। अएतएव कहा है
‘मरनो भलो विदेश को जहाँ न अपुनो कोय।
माटी खायं जनावरा महा महोच्छव होय ।।’
अहा! देखो
सिर पर बैठ्यो काग आंख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनन्द उर धारत ।।
गिद्ध जांघ कहं खोदि खोदि कै मांस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि कै खान बिचारत ।।
बहु चील नोचि लै जात तुच मोद बढ्यौ सबको हियो
मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो ।।
सोई मुख सोई उदर सोई कर पद दोय।
भयो आजु कछु और ही परसत जेहि नहिं कोय ।।
हाड़ माँस लाला रकत बसा तुचा सब सोय।
छिन्न भिन्न दुरगन्धमय मरे मनुस के होय ।।
कादर जेहि लखि कै डरत पंडित पावत लाज।
अहो! व्यर्थ संसार को विषय वासना साज ।।
(अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है।)
हा! मरना भी क्या वस्तु है।
सोई मुख जेहि चन्द बखान्यौ।
सोई अंग जेहि प्रिय करि जान्यौ ।।
सोई भुज जे पिय गर डारे।
सोई भुज जिन रन बिक्रम पारे ।।
सोई पद जिहि सेवक बन्दत।
सोई छबि जेहि देखि आनन्दत ।।
सोई रसना जहं अमृत बानी।
सोई सुनि कै हिय नारि जुड़ानी ।।
सोई हृदय जहं भाव अनेका।
सोई सिर जहं निज बच टेका ।।
सोई छबिमय अंग सुबाए।
आजु जीव बिनु धरनि सुहाए ।।
कहां गई वह सुंदर सोभा।
जीवत जेहि लखि सब मन लोभा ।।
प्रानहुं ते बढ़िजा कहं चाहत।
ता कहं आजु सबै मिलि दाहत ।।
फूल बोझ हू जिन न सहारे।
तिन पै बोझ काठ बहु डारे ।।
सिर पीड़ा जिन की नहिं हेरी।
करत कपाल क्रिया तिनकेरी ।।
छिनहूं जे न भए कहुं न्यारे।
ते हू बन्धुन छोड़ि सिधारे ।।
जो दृग कोर महीप निहारत।
आजु काक तेहि भोज बिचारत ।।
भुज बल जे नहिं भुवन समाए।
ते लखियत मुख कफन छिपाए ।।
नरपति प्रजा भेद बिनु देखे।
गनें काल सब एकहि लेखे ।।
सुभग कुरूप अमृत बिख साने।
आजु सबै इक भाव बिकाने ।।
पुरू दधीच कोऊ अब नाहीं।
रहे नावं हीं ग्रन्थन मांही ।।
अहा! देखो वही सिर जिस पर मंत्रा से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रक्खा जाता था, जिसमें इतना अभिमान था कि इन्द्र को भी तुच्छ गिनता था, और जिसमें बड़े-बड़े राज जीतने के मनोरथ भरे थे, आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छूने में भी घिन करते हैं। (आगे देखकर) अरे यह स्मशान देवी हैं। अहा कात्यायनी को भी कैसा वीभत्स उपचार प्यारा है। यह देखो डोम लोगों ने सूखे गले सड़े फूलों की माला गंगा में से पकड़ पकड़ कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है। मरे बैल और भैसों के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं जिन में लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है। घंट के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोहू के थापे लगे हैं। नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उसके खाने को कुत्ते और सियार लड़ लड़कर कोलाहल मचा रहे हैं। (हाथ जोड़कर) ‘भगवति! चंडि! प्रेते! प्रेत विमाने! लसत्प्रेते। प्रेतास्थि रौद्ररूपे! प्रेताशनि। भैरवि! नमस्ते’।1
(नेपथ्य में) राजन् हम केवल चंडालों के प्रणाम के योग्य हैं। तुम्हारे प्रणाम से हमें लज्जा आती है। मांगो, क्या वर मांगते हो।
ह. : (सुनकर आश्चर्य से) भगवति! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमारे स्वामी का कल्याण कीजिए। (नेपथ्य में) साधु महाराज हरिश्चन्द्र साधु!
ह. : (ऊपर देखकर) अहा! स्थिरता किसी को भी नहीं है। जो सूर्य उदय होते ही पद्मिनी बल्लभ और लौकिक वैदिक दोनों कर्म का प्रवत्र्तक था, जो दो पहर तक अपना प्रचंड प्रताप क्षण-क्षण बढ़ाता गया, जो गगनांगन का दीपक और कालसर्प का शिखामणि था वह इस समय परकटे गिद्ध की भांति अपना सब तेज गंवाकर देखो समुद्र में गिरा चाहता है।
अथवा
सांझ सोई पट लाल कसे कटि सूरज खप्पर हाथ लह्यो है। पच्छिन के बहु सब्दन के मिस जीअ उचाटन मंत्रा कह्यो है। मद्य भरी नर खोपरी सो ससि को नव बिम्बहू धाई गह्यो है। दै बलि जीव पसू यह मत्त ह्वै काल कपालिक नाचि रह्यो है।
सूरज धूम बिना की चिता सोई अंत में लै जल माहिं बहाई। बोलैं घने तरु बैठि बिहंगम रोअत सो मनु लोग लोगाई। धूम अंधार, कपाल निसाकर, हाड़ नछत्रा, लहू सी ललाई। आनंद हेतु निसाचर के यह काल समान सी सांझ बनाई।
अहा! यह चारों ओर से पक्षी लोग कैसा शब्द करते हुए अपने-अपने घोसलों की ओर चले जाते हैं। वर्षा से नदी का भयंकर प्रवाह, सांझ होने से स्मशान के पीपल पर कौओं का एक संग अमंगल शब्द से कांव कांव करना, और रात के आगम से एक सन्नाटे का समय चित्त में कैसी उदासी और नय उत्पन्न करता है। अंधकार बढ़ता ही जाता है। वर्षा के कारण इन स्मशानवासी मंडूकों का टर्र टर्र करना भी कैसा डरावना मालूम होता है।
रुरुआ चहुंदिसि ररत डरत सुनि कै नर नारी।
फटफटाइ दोउ पंख उलुकहु रटत पुकारी।
अन्धकार बस गिरत काक अरु चील करत रव।
गिद्ध गरुड़ हड़गिल्ल भजत लखिविकट भयद दव।
रोअत सियार गरजत नदी स्वान भू कि डरपावई।
संग दादुर झींगुर रुदन धुनि मिलि खर तुमुल मचावई।
इस समय ये चिता भी कैसी भयंकर मालूम पड़ती हैं। किसी का सिर चिता के नीचे लटक रहा है, कहीं आंच से हाथ पैर जलकर गिर पड़े हैं, कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिल्कुल कच्चा है, किसी को वैसे ही पानी में बहा दिया है, किसी को किनारे छोड़ दिया है, किसी का मुंह जल जाने से दांत निकला हुआ भयंकर हो रहा है, और कोई दहकती आग में ऐसा जल गया है कि कहीं पता भी नहीं है। बाहरे शरीर! तेरी क्या क्या गति होती है!!! सचमुच मरने पर इस शरीर को चटपट जला ही देना योग्य है क्योंकि ऐसे रूप और गुण जिस शरीर में थे उसको कीड़ों या मछलियों से नुचवाना और सड़ा कर दुर्गंधमय करना बहुत ही बुरा है। न कुछ शेष रहेगा न दुर्गति होगी। हाय! चलो आगे चलें। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर उधर घूमता है)1 (कौतुक से देखकर) पिशाचों का क्रीड़ा कुतूहल भी देखने के योग्य है। अहा! यह कैसे काले काले झाड़ई से सिर के बाल खड़े किये लम्बे-लम्बे हाथ पैर बिकराल दांत लम्बी जीभ निकाले इधर-उधर दौड़ते और परस्पर किलकारी मारते हैं मानों भयानक रस की सेना मूर्तिमान होकर यहाँ स्वच्छंद विहार कर रही है। हाय हाय! इन का खेल और सहज व्योहार भी कैसा भयंकर है। कोई कटाकट हड्डी चबा रहा है, कोई खोपड़ियों में लोहू भर भर के पीता है, कोई सिर का गेंद बनाकर खेलता है, कोई अंतड़ी निकालकर गले में डाले है और चंदन की भांति चरबी और लोहू शरीर में पोत रहा है, एक दूसरे से माँस छीनकर ले भागता है, एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुंह में रख लेता है पर जब गरम मालूम पड़ता है तो थू थू करके थूक देता है, और दूसरा उसी को फिर झट से खा जाता है। हा! देखो यह चुड़ैल एक स्त्री की नाक नथ समेत नोच लाई है जिसे
सत्य हरिश्चंद्र के परवती संस्करणों में बढ़ाया गया अंश,
(पिशाच और डाकिणी गण परस्पर आमोद करते और गाते बजाते आते हैं।)
पि. और डा. : हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमाछम,
हम सेवैं मसान, शिव को भजैं, बोलैं बम बम बम।
पि. : हम कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ हड्डी को तोड़ेंगे।
हम भड़ भड़ धड़ धड़ पड़ पड़ सिर सबका फोड़ेंगे।
डा. : हम घुट घुट घुट घुट घुट घुट लोहू पिलावेंगी।
हम चट चट चट चट चट चट ताली बाजवेंगी।।
सब : हम नाचें मिलकर थेई थेई थेई थेई कूदें धम् धम् धम्
हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमा छम।।
पि. : हम काट काट कर सिर को गेंदा उछालेंगे।
हम खींच खींच कर चर्बी पंशाखा बालेंगे।।
डा. : हम माँग में लाल लाल लोहू का सिंदूर लगावेंगी।
हम नस के तागे चमड़े का लहँगा बनावेंगी।।
सब : हम धज से सज के बज के चलेंगे चमकेंगे चम चम चम।
पि. : लोहू का मुँह से फर्र फर्र फुहारा छोड़ेंगे।
माला गले पहिरने को अँतड़ी को जोडे़गें।।
डा. : हम लाद के औंधे मुरदे चैकी बनावैंगी।
कफन बिछा के लड़कों को उस पर सुलावेंगी।।
सब : हम सुख से गावेंगे ढोल बजावेंगे ढम ढम ढम ढम ढम।
(वैसे ही कूदते हुए एक ओर चले जाते हैं।)
देखने को चारों ओर से सब भूतने एकत्रा हो रहे हैं और सभों को इसका बड़ा कौतुक हो गया है। हंसी में परस्पर लोहू का कुल्ला करते हैं और जलती लकड़ी और मुरदों के अंगों में लड़ते हैं और उनको ले ले कर नाचते हैं। यदि तनिक भी क्रोध में आते हैं तो स्मशान के कुत्तों को पकड़-पकड़ कर खा जाते हैं। अहा! भगवान भूतनाथ ने बड़े कठिन स्थान पर योग साधना की है। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है) (ऊपर देखकर) आधी रात हो गई, वर्षा के कारण अंधेरी बहुत ही छा रही है, हाथ से नाक नहीं सूझता। चांडाल कुल की भांत स्मशान पर तम का भी आज राज हो रहा है। (स्मरण करके) हा। इस दुःख की दशा में भी हमसे प्रिया अलग पड़ी है। कैसी भी हीन अवस्था हो पर अपना प्यारा जो पास रहे तो कुछ कष्ट नहीं मालूम पड़ता। सच है-”टूट टाट घर टपकत खटियौ टूट। पिय कै बांह उसिसवां सुख कै लुट“। बिधना ने इस दुःख पर भी बियोग दिया हा! यह वर्षा और यह दुःख! हरिश्चन्द्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा पर जिस ने सपने में भी दुख नहीं देखा वह महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो धीरज धरो। तुम ने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है जिसके साथ सदा दुख ही दुख है। (ऊपर देखकर) अरे पानी बरसने लगा! (घोघी भली भांति ओढ़ कर) हमको तो यह वर्षा और स्मशान दोनों एकही से दिखाई पड़ते हैं। देखो।
चपला की चमक चहूंघा सों लगाई चिता चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है।
हेती बग माल स्याम बादर सु भूमिकारी बीर बधूबूंद भव लपटायो है ।।
हरीचन्द नीर धार आंसू सी परत जहाँ दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है।
दाहन बियोगी दुखियान को मरे हूं यह देखो पापी पाव मसान बनि आयो है।
(कुछ देर तक चुप रह कर) कौन है? (खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिर कर)
इन्द्रकालहू सरिस जो आयसु लांघै कोय।
यह प्रचंड भुज दंड मम प्रति भट ताको होय ।।
अरे कोई नहीं बोलता। (कुछ आगे बढ़कर) कौन है?
(नेपथ्य में) हम हैं।
ह. : अरे हमारी बात का उत्तर कौन देता है? चले जहाँ से आवाज आई है वहाँ चल कर देखें। (आगे बढ़ कर नेपथ्य की ओर देख कर) अरे यह कौन है?
चिता भस्म सब अंग लगाए।
अस्थि अभूषन बिबिध बनाए ।।
हाथ मसान कपाल जगावत।
को यह चल्यो रुद्र सम आवत ।।
(कापालिक के वेष में धर्म आता है)
धर्म. : अरे हम हैं।
वृत्ति अयाचित आत्म रति करि जग के सुख त्याग।
फिरहिं मसान-मसान हम धारि अनन्द बिराग ।।
आगे बढ़कर महाराज हरिश्चन्द्र को देखकर आप ही आप,
हम प्रतच्छ हरि रूप जगत हमरे बल चालत।
जल थल नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत ।।
हम हीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।
हम ही इक संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।
सो हम नित थित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो।
सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो ।।
कुछ सोचकर, राजर्षि हरिश्चन्द्र की दुःख परंपरा अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्रा अत्यन्त आश्चर्य के हैं! अथवा महात्माओं का यह स्वभाव ही होता है।
सहत बिविध दुख मरि मिटत भोगत लाखन सोग।
पै निज सतय न छाड़हीं जे जग सांचे लोग ।।
बरु सूरज पच्छिम उगैं विन्ध्य तरै जल मांहिं।
सत्य बीर जन पै कबहुं निज बच टारत नाहिं ।।
अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुख को दुख, सुख को दुख गिनते ही नहीं। चलें उनके पास चलें। (आगे बढ़कर और देखकर) अरे यही महात्मा हरिश्चन्द्र हैं? (प्रगट) महाराज! कल्याण हो।
ह.: (प्रणाम करके) आइये योगिराज।
ध. : महाराज! हम अर्थी हैं।
ह. : (लज्जा और विकलता नाट्य करता है)
ध. : महाराज आप लज्जा मत कीजिए। हम लोग योग बल से सब कुछ जानते हैं। आप इस दशा पर भी हमारा अर्थ पूर्ण करने को बहुत हैं। चन्द्रमा राहु से ग्रसा रहता है तब भी दान दिलवा कर भिक्षुओं का कल्याण करता है।
ह. : आज्ञा। हमारे योग्य जो कुछ हो आज्ञा कीजिए।
ध. : अंजन गुटिका पादुका धातुभेद बैताल। वज्र रसायन जोगिनी मोहि सिद्ध इहि काल।
ह. : तो मुझे आज्ञा हो वह करूं।
ध. : आज्ञा यही है कि यह सब मुझे सिद्ध हो गए हैं पर विघ्न इस में बाधक होते हैं सो आप विघ्नों का निवारण कर दीजिए।
ह. : आप जानते ही हैं कि मैं पराया दास हूँ, इससे जिनमें मेरा धर्म न जाय वह मैं करने को तैयार हूं।
ध. : (आप ही आप) राजन्, जिस दिन तुम्हारा धर्म जाएगा उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी (प्रत्यक्ष) महाराज इसमें धर्म न जायगा क्योंकि स्वामी की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं। सिद्धि का आकर इसी स्मशान के निकट ही है और मैं अब पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप बिघ्नों का निषेध कर दीजिए।
(जाता है)
ह. : (ललकार कर) हटो रे हटो विघ्नो चारों ओर से तुम्हारा प्रचार हम ने रोक दिया।
(नेपथ्य में) महाराजाधिराज जो आज्ञा।
आप से सत्य वीर की आज्ञा कौन लांघ सकता है।
खुल्यौ द्वारा कल्यान को सिद्ध जोग तप आज।
निधि सिधि विद्या सब करहिं अपुने मन को काज ।।
ह. : (हर्ष से) बड़े आनन्द की बात है कि विघ्नों ने हमारा कहना मान लिया। (विमान पर बैठी हुई तीनों महाविद्या आती है)
म. वि. : महाराज हरिश्चन्द्र! बधाई है। हमीं लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम किया था तब देवताओं ने माया से आपको स्वप्न में हमारा रोना सुनाकर हमारा प्राण बचाया।
ह. : (आप ही आप) अरे यही सृष्टि की उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली महाविद्या हैं जिन्हें विश्वामित्र भी न सिद्ध कर सके। (प्रगट हाथ जोड़कर) त्रिलोकविजयिनी महाविद्याओं को नमस्कार है।
म. वि. : महाराज हम लोग आप के बस में हैं। हमारा ग्रहण कीजिए।
ह. : देवियो! यदि हम पर प्रसन्न हो तो विश्वामित्र मुनि का वशवत्र्तिनी हो क्योंकि उन्होंने आप लोगों के वास्ते बड़ा परिश्रम किया है।
म. वि. : (परस्पर आश्चर्य से देखकर) धन्य महाराज धन्य! जो आज्ञा।
(जाती हैं)
धर्म एक बैताल के सिर पर पिटारा रखवाए हुए आता है।
ध. : महाराज का कल्याण हो। आप की कृपा से महानिधान सिद्ध हुआ। आपको बधाई है अब लीजिए इस रसेन्द्र को।
याही के परभाव सों अमरदेव सम होइ।
जोगी जन बिहरहिं सदा मेरु शिखर भय खोइ ।।
ह. : (प्रणाम करके) महाराज दास धर्म के यह विरुद्ध है। इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी लेना स्वामी को धोखा देना है।
ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) तो इसके स्वर्ण बना कर आप अपना दास्य छुड़ा लें।
ह. : यह ठीक है पर मैंने तो बिनती किया न कि जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योंकि मैं तो देह के साथ ही अपना सत्व मात्रा बेच चुका इससे आप मेरे बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेन्द्र दीजिए।
ध. : (आश्चर्य से आप ही आप) धन्य हरिश्चन्द्र! धन्य तुम्हारा धैर्य! धन्य तुम्हारा विवेक! और धन्य तुम्हारी महानुभावता! या
चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय।
पै बीरन कें मन कबहूं चलहिं नाहिं ललचाय ।।
तो हमें भी इसमें कौन हठ है। (प्रत्यक्ष) बैताल! जाओ, जो महाराज की आज्ञा है, वह करो।
बै. : जो रावल जी की आज्ञा। (जाता है)
ध. : महाराज ब्राह्म मुहूर्त निकट आया अब हम को भी आज्ञा हो।
ह. : जोगिराज! हम को भूल न जाइएगा, कभी कभी स्मरण कीजिएगा।
ध. : महाराज! बड़े बडे़ देवता आप का स्मरण करते हैं और करेंगे मैं क्या हूँ।
(जाता है)
ह. : क्या रात बीत गई! आज तो कोई भी मुरदा नया नहीं आया। रात के साथ ही स्मशान भी शांत हो चला। भगवान् नित्य ही ऐसा करें।
(नेपथ्य मे घंटानूपुरादि का शब्द सुनकर) अरे यह बड़ा कोलाहल कैसा हुआ?
(विमान पर अष्ट महासिद्धि नव निधि और बारहो प्रयोग आदि देवता आते हैं)।
ह. : (आश्चर्य से) अरे यह कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर स्मशान पर एकत्रा हो रहे हैं।
दे. : महाराज हरिश्चन्द्र की जय हो। आप के अनुग्रह से हम लोग विघ्नों से छूटकर स्वतंत्रा हो गए। अब हम आपके वश में हैं जो आज्ञा हो करें। हम लोग अष्ट महा सिद्धि नव निधि और बारह प्रयोग सब आप के हाथ में है।
ह. : (प्रणाम करके) यदि हम पर आप लोग प्रसन्न हो तो महासिद्धि योगियों के, निधि सज्जन के, और प्रयोग साधकों के पास जाओ।
दे. : (आश्चर्य से) धन्य राजर्षि हरिश्चन्द्र! तुम्हारे बिना और ऐसा कौन होगा जो घर आई लक्ष्मी का त्याग करे। हमीं लोगों की सिद्धि को बड़े-बड़े योगी मुनि पच मरते हैं पर तुमने तृण की भांति हमारा त्याग करके जगत का कल्याण किया।
ह. : आप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं पर मैं क्या करूं, क्योंकि मैं पराधीन हूं। एक बात और भी निवेदन है। वह यह कि छह अच्छे प्रयोग की तो हमारे समय में सद्यः सिद्धि होय पर बुरे प्रयोगों की सिद्धि विलंब से हो।
दे. : महाराज! जो आज्ञा। हम लोग जाते हैं। आज आप के सत्य ने शिव जी के कीलन1 को भी शिथिल कर दिया। महाराज का कल्याण हो।
(जाते हैं)
(नेपथ्य में इस भांति मानो राजा हरिश्चन्द्र नहीं सुनता)
(एक स्वर से) तो अब अप्सरा को भेजें?
(दूसरे स्वर से) छिः मूर्ख! जिस को अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नहीं डिगाया उसको अप्सरा क्या डिगावेंगी?
(एक स्वर से) तो अब अन्तिम उपाय किया जाय।
(दूसरे स्वर से) हाँ तक्षक को आज्ञा दे। अब और कोई उपाय नहीं है।
ह. : अहा अरुण का उदय हुआ चाहता है। पूर्व दिशा ने अपना मंुह लाल किया। (साँस ले कर) ”वा चकई को भयो चित चीतो चियोति चहूँ दिसि चाय सों नाची। ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनी जोति मनो जम जांची। बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपत्ति काची। लोहू पियो जो बियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची।“ हा! प्रिये इन बरसातों की रात को तुम रो रो के बिताती होगी! हा! वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर बेचा तब दास हुए तुम बिना बिके ही क्यों दास बन गए!
जेहि सहसन परिचायिका राखत हाथहि हाथ। सो तुम लोटत धूर मैं दास बालकन साथ! जाकी आयसु जग नृपति सुनतहि धारत सीस! तेहि द्विज बटु अज्ञा करत अहह कठिन अति इस। बिनु तन बेचे बिनु जग ज्ञान विवेक। दैव सर्प दंशित भए भोगत कष्ट अनेक।
(घबड़ा कर) नारायण! नारायण! मेरे मुख से क्या निकल गया। देवता उस की रक्षा करें। (बांई आँख का फड़कना दिखाकर) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? (दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर) अरे और साथ ही यह मंगल शकुन भी! न जाने क्या होनहार है, वा अब क्या होनहार है जो होना था सो हो चुका। अब इससे बढ़कर और कौन दशा होगी? अब केवल मरण मात्रा बाकी है। इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहिले ही शरीर छूटे क्योंकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है पर बश क्या है।
(नेपथ्य में)
पुत्र हरिश्चन्द्र सावधान। यही अन्तिम परीक्षा है। तुम्हारे पुरखा इक्ष्वाकु से लेकर त्रिशंकु पर्यन्त आकाश में नेत्रा भरे खड़े एक टक तुम्हारा मुख देख रहे हैं। आज तक इस वंश में ऐसा कठिन दुःख किसी को नहीं हुआ था। ऐसा न हो कि इन का सिर नीचा हो। अपने धैर्य का स्मरण करो।
ह. : (घबड़ा कर ऊपर देखकर) अरे! यह कौन है? कुलगुरु भगवान सूर्य अपना तेज समेटे मुझे अनुशासन कर रहे हैं। (ऊपर पितः मैं सावधान हूं सब दुखों को फूल की माला की भांति ग्रहण करूंगा।) (नेपथ्य में रोने की आवाज सुन पड़ती है)
ह. : अरे अब सवेरा होने के समय मुरदा आया! अथवा चांडाल कुल का सदा कल्याण हो हमें इस से क्या। (खबरदार इत्यादि कहता हुआ फिरता है)
(नेपथ्य में)
हाय! कैसी भई! हाय बेटा हमें रोती छोड़ के कहाँ चले गए! हाय! हाय रे!
ह. : अहह! किसी दीन स्त्री का शब्द है, और शोक भी इस पुत्र का है। हाय हाय! हम को भी भाग्य ने क्या ही निर्दय और वीभत्स कर्म सौंपा है! इससे भी वस्त्रा मांगना पड़ेगा।
(रोती हुई शैव्या रोहिताश्व का मुरदा लिये आती है)
शै. : (रोती हुई) हाय! बेटा जब बाप ने छोड़ दिया तब तुम भी छोड़ चले! हाय हमारी बिपत और बुढ़ौती की ओर भी तुम ने न देखा! हाय! हाय रे! अब हमारी कौन गति होगी! (रोती है)
ह. : हाय हाय! इसके पति ने भी इसको छोड़ दिया है। हा! इस तपस्विनी को निष्करुण विधि ने बड़ा ही दुख दिया है।
शै. : (रोती हुई) हाय बेटा! अरे आज मुझे किसने लूट लिया! हाय मेरी बोलती चिड़िया कहाँ उड़ गई! हाय अब मैं किसका मुंह देख के जीऊंगी! हाय मेरी अंधी की लकड़ी कौन छीन ले गया! हाय मेरा ऐसा सुंदर खिलौना किसने तोड़ डाला! अरे बेटा तै तो मरे पर भी सुंदर लगता है! हाय रे! अरे बोलता क्यों नहीं! बेटा जल्दी बोल, देख माँ कब की पुकार रही है! बच्चा तू तो एक दफे पुकारने में दौड़कर गले से लपट जाता था, आज क्यों नहीं बोलता!
(शव को बारंबार गले लगाती, देखती और चूमती है)
ह. : हाय! हाय! इस दुखिया के पास तो खड़ा नहीं हुआ जाता।
शै. : पागल की भांति यह क्या हो रहा है। बेटा कहाँ गए हौ आओ जल्दी! अरे अकेले इस मसान में मुझे डर लगती है। यहाँ मुझ को कौन ले आया है रे! बेटा जल्दी आओ। क्या कहते हौ, मैं गुरू को फूल लेने गया था वहाँ काले सांप ने मुझे काट लिया! हाय हाय रे! अरे कहाँ काट लिया? अरे कोई दौड़ के किसी गुनी को बुलाओ जो जिलावै बच्चे को। अरे वह साँप कहाँ गया! हम को क्यों नहीं काटता? काट रे काट; क्या उस सुकुंआर बच्चे ही पर बल दिखाना था? हमें काट। हाय हम को नहीं काटता। अरे हिंयां तो कोई सांप वांप नही है, मेरे लाल झूठ बोलना कब से सीखे? हाय हाय मैं इतना पुकारती हूँ और तुम खेलना नहीं छोड़ते? बेटा गुरु जी पुकार रहे हैं उनके होम की बेला निकली जाती है। देखो बड़ी देर से वह तुम्हारे आसरे बैठै हैं। दो जल्दी इनको दूब और बेलपत्रा। हाय हमने इतना पुकारा तुम कुछ नहीं बोलते! ख्जोर से, बेटा सांझ भई, सब विद्यार्थी लोग घर फिर आए, तुम अब तक क्यों नहीं आए? आगे शव देखकर, हाय हाय रे! अरे मेरे लाल को सांप ने सचमुच डंस लिया! हाय लाल! हाय मेरे आँखों के उजियाले को कौन ले गया! हाय! मेरा बोलता हुआ सुग्गा कहाँ उड़ गया! बेटा अभी तो बोल रहे थे अभी क्या हो गया! हाय मेरा बसा घर आज किसने उजाड़ दिया! हाय मेरी कोख में किस ने आग लगा दी! हाय मेरा कलेजा किसने निकाल लिया! ख्चिल्ला-चिल्ला कर रोती है, हाय लाल कहां गए! अरे अब मैं किसका मुंह देख के जीउं$गी रे! हाय अब मां कहके मुझको कौन पुकारेगा! अरे आज किस बैरी की छाती ठंडी भई रे! अरे तेरे सुकुंआर अंगों पर भी काल को तनिक दया न आई! अरे बेटा आंख खोलो! हाय मैं सब विपत तुम्हारा ही मुंह देखकर सहती थी तो अब कैसे जीती रहूंगी! अरे लाल एक बेर तो बोलो! (रोती है)
ह. : न जाने क्यों इसके रोने पर मेरा कलेजा फटा जाता है।
शै. : (रोती हुई) हा नाथ! अरे अपने गोद के खेलाए बच्चे की यह दशा क्यों नहीं देखते! हाय! अरे तुम ने तो इसको हमें सौंपा था कि इसे अच्छी तरह पालना सो हमने इसकी यह दशा कर दी! हाय! अरे ऐसे समय में भी आकर नहीं सहाय होते! भला एक बेर लड़के का मुंह तो देख जाओ! अरे मैं किस के भरोसे अब जीऊंगी?
ह. : हाय हाय! इसकी बातों से तो प्राण मुंह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। यहां से हट चलें (कुछ दूर हटकर उसकी ओर देखता खड़ा हो जाता है)।
शै. : (रोती हुई) हाय! यह बिपत का समुद्र कहां से उमड़ पड़ा! अरे छलिया मुझे छलकर कहां भाग गया! ख्देख कर, अरे आयुस की रेखा तो इतनी लम्बी है फिर अभी से यह बज्र कहां से टूट पड़ा! अरे ऐसा सुंदर मुह, बड़ी-बड़ी आंख, लम्बी-लम्बी भुजा, चैड़ी छाती, गुलाब सा रंग! हाय मरने के तुझ में कौन से लच्छन थे जो भगवान ने तुझे मार डाला! हाय लाल! अरे बड़े-बड़े जोतसी गुनी लोग तो कहते थे कि तुम्हारा बेटा बड़ा प्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा, बहुत दिन जीयेगा, सो सब झूठ निकला! हाय! पोथी, पत्रा, पूजा, पाठ, दान, जप होम, कुछ भी काम न आया! हाय तुम्हारे बाप का कठिन पुत्र भी तुम्हारा सहाय न भया और तुम चल बसे! हाय!
ह. : अरे इन बातों से तो मुझे बड़ी शंका होती है (शव को भली भांति देखकर) अरे इस लड़के में तो सब लक्षण चक्रवर्ती के से दिखाई पड़ते हैं। हाय! न जाने किस बड़े कुल का दीपक आज इस ने बुझाया है, और न जाने किस नगर को आज इसने अनाथ किया है। हाय! रोहिताश्व भी इतना बड़ा भया होगा (बड़े सोच से) हाय हाय! मेरे मुंह से क्या अमंगल निकल गया। नारायण (सोचता है)
शै. : भगवान विश्वामित्र! आज तुम्हारे सब मनोरथ पूरे भए। हाय!
ह. : (घबड़ाकर) हाय हाय यह क्या? (भली भांत देखकर रोता हुआ) हाय अब तक मैं संदेह ही में पड़ा हूं? अरे मेरी आँखें कहां गई थीं जिन ने अब तक पुत्र रोहिताश्व को न पहिचाना, और कान कहां गये थे जिन ने अब तक महारानी की बोली न सुनी! हा पुत्र! हा लाल! हा सूर्यवंश के अंकुर! हा हरिश्चन्द्र की विपत्ति के एक मात्रा अवलम्ब! हाय! तुम ऐसे कठिन समय में दुखिया माँ को छोड़कर कहाँ गए। अरे तुम्हारे कोमल अंगों को क्या हो गया! तुम ने क्या खेला, क्या खाया, क्या सुख भोगा, कि अभी से चल बसे। पुत्र स्वर्ग ऐसा ही प्यारा था तो मुझ से कहते, मैं बाहुबल से तुम को इसी शरीर से स्वर्ग पहुंचा देता। अथवा अब इस अभिमान से क्या? भगवान इसी अभिमान का फल यह सब दे रहा है। हाय पुत्र! (रोता है)
आह! मुझसे बढ़कर और कौन मन्दभाग्य होगा! राज्य गया, धन, जन, कुटुम्ब सब छूटा, उस पर भी यह दारुण पुत्रशोक उपस्थित हुआ। भला अब मैं रानी को क्या मुंह दिखाऊं। निस्संदेह मुझसे अधिक अभागा और कौन होगा। न जाने हमारे जन्म के पाप उदय हुए हैं जो कुछ हमने आज तक किया वह यदि पुण्य होता तो हमें यह दुख न देखना पड़ता। हमारा धर्म का अभिमान सब झूठा था, क्योंकि कलियुग नहीं है कि अच्छा करते बुरा फल मिले, निस्संदेह मैं महा अभागा और बड़ा पापी हूं। (रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है और नेपथ्य में शब्द होता है) क्या प्रलयकाल आ गया? नहीं। यह बड़ा भारी असगुन हुआ है। इसका फल कुछ अच्छा नहीं, वा अब बुरा होना ही क्या बाकी रह गया है जो होगा। हा। न जाने किस अपराध से दैव इतना रूठा है (रोता है) हा सूर्यकुल आलवालप्रवाल। हा हरिश्चन्द्र हृदयानन्दन! हा शैव्याबलम्ब! हा वत्सरोहिताश्व! हा मातृ पितृ विपत्ति सहचर! तुम हम लोगों को इस दशा में छोड़कर कहां गए! आज हम सचमुच चांडाल हुए। लोग कहेंगे कि इस ने न जाने कौन दुष्कर्म किया था कि पुत्रशोक देखा। हाय हम संसार को क्या मंुह दिखावेंगे। (रोता है) वा संसार में इस बात के प्रगट होने के पहले ही हम भी प्राण त्याग करें। हा निर्लज्ज प्राण तुम अब भी क्यों नहीं निकलते। हा बज्र हृदय इतने पर भी तू क्यों नहीं फटता। नेत्रो, अब और क्या देखना बाकी है कि तुम अब तक खुले हो। या इस व्यर्थ प्रलाप का फल ही क्या है समय बीता जाता है, इसके पूर्व कि किसी से साम्हना हो प्राण त्याग करना ही उत्तम बात है (पेड़ के पास जाकर फांसी देने के योग्य डाल खोजकर उसमें दुपट्टा बांधता है) धर्म! मैंने अपने जान सब अच्छा ही किया परंतु न जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना। (दुपट्टे की फांसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चैंक कर) गोविन्द गोविन्द! यह मैंने क्या अनर्थ अधर्म विचारा। भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण त्याग करना चाहा। भगवान् सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। नारायण नारायण! इस इच्छाकृत मानसिक पाप से कैसे उद्धार होगा! हे सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर क्षमा करना, दुख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती; अब तो मैं चांडालकुल का दास हूं, न अब शैव्या मेरी स्त्री है और न रोहिताश्व मेरा पुत्र। चलूं अपने स्वामी के काम पर सावधान हो जाऊं, वा देखूं अब दुक्खिनी शैव्या क्या करती है (शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है)।
शै. : (पहली तरह बहुत रोकर) हाय! अब मैं क्या करूं। अब मैं किसका मुंह देखकर संसार में जीऊंगी। हाय मैं आज से निपूती भई! पुत्रवती स्त्री अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी। हा नित्य सवेरे उठकर अब मैं किसकी चिन्ता करूंगी। खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझ से मांग मांग पर अब कौन खाएगा! मैं परोसी थाली सूनी देखकर कैसे प्रान रक्खूंगी। (रोती है) हाय खेलता खेलता आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा, और माँ माँ कहकर तनक तनक बातों पर कौन हठ करेगा। हाय मैं अब किसको अपने आंचल से मुंह की धूल पोंछकर गले लगाऊंगी और किसके अभिमान से बिपत में भी फूली फूली फिरूंगी। (रोती है) या जब रोहिताश्व नहीं तो मैं ही जी के क्या करूंगी। (छाती पीटकर) हाय प्रान, तुम अभी क्यों नही निकले। (हाय मैं ऐसी स्वारथी हूं कि आत्महत्या के नरक के भय से अब भी अपने को नहीं मार डालती। नहीं नहीं अब मैं न जीऊंगी। या तो इस पेड़ में फांसी लगाकर मर जाऊंगी या गंगा में कूद पड़ंईगी) (उन्मत्त की भांति उठकर दौड़ना चाहती है)।
ह. : (आड़ में से) तनहिं बेंचि दासी कहवाई।
मरत स्वामि आयसु बिन पाई
करु न अधर्म सोचु जिय माहीं।
‘पराधीन सपने सुख नाहीं ।।’
शै. : (चैकन्नी होकर) अहा! यह किसने इस कठिन समय में धर्म का उपदेश किया। सच है मैं अब इस देह की कौन हूं जो मर सकूं। हा दैव! तुझसे यह भी न देखा गया कि मैं मरकर भी सुख पाऊं। (कुछ धीरज धरके) तो चलूं छाती पर वज्र धरके अब लोकरीति करूं। रोती और लकड़ी चुनकर चिता बनाती हुई) हाय! जिन हाथों से ठोंक ठोंक कर रोज सुलाती थी उन्हीं हाथों से आज चिता पर कैसे रक्खूंगी, जिसके मुंह में छाला पड़ने के भय से कभी मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे-(बहुत ही रोती है)।
ह. : धन्य देवी, आखिर तो चंद्र सूर्यकुल की स्त्री हो। तुम न धीरज करोगी तो और कौन करेगा।
शै. : (चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना चाहती है और रोती है)।
ह. : तो अब चलें उस से आधा कफन मांगे (आगे बढ़कर और बलपूर्वक आंसुओं को रोककर शैव्या से) महाभागे! स्मशान पति की आज्ञा है कि आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूंकने न पावे सो तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो (कफन मांगने को हाथ फैलाता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)।
(नेपथ्य में)
अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलं। त्वया राजन् हरिश्चन्द्र सब्र्वं लोकोत्तरं कृतं।
(दोनों आश्चर्य से ऊपर देखते हैं)
शै. : हाय। इस कुसमय में आर्यपुत्र की यह कौन स्तुति करता है? वा इस स्तुति ही से क्या है, शास्त्र सब असत्य हैं नहीं तो आर्यपुत्र से धर्मी की यह गति हो! यह केवल देवताओं और ब्राह्मणों का पाषंड है।
ह. : (दोनों कानों पर हाथ रखकर) नारायण नारायण! महाभागे ऐसा मत कहो; शास्त्र, ब्राह्मण और देवता त्रिकाल में सत्य हैं। ऐसा कहोगी तो प्रायश्चित होगा। अपना धर्म बिचारो। लाओ मृतकंबल हमें दो और अपना काम आरंभ करो (हाथ फैलाता है)
शै. : (महाराज हरिश्चन्द्र के हाथ में चक्रवर्ती का चिद्द देखकर और कुछ स्वर कुछ आकृति से अपने पति को पहचान कर) हा आर्यपुत्र, इतने दिन तक कहाँ छिपे थे! देखो अपने गोद के खेलाए दुलारे पुत्र की दशा! तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व देखो अब अनाथ की भांति मसान में पड़ा है। (रोती है।)
ह. : प्रिये धीरज धरो। यह रोने का समय नहीं है। देखो सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कोई आ जाय और हम लोगों की जान ले, और एक लज्जा मात्रा बच गई है वह भी जाय। चलो कलेजे पर सिल रखकर अब रोहिताश्व की क्रिया करो और आधा कंबल हमको दो।
शै. : (रोती हुई) नाथ! मेरे पास तो एक भी कपड़ा नहीं था, अपना आंचल फाड़कर इसे लपेट लाई हूं, उसमें से भी जो आधा दे दूंगी तो यह खुला ही रह जायगा। हाय! चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मिलता! (बहुत रोती है)
ह. : (बलपूर्वक आंसुओं को रोककर और बहुत धीरज धर कर) प्यारी, रोओ मत। ऐसे ही समय में तो धीरज और धरम रखना काम है। मैं जिस का दास हूं उस की आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत करने दो। इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र समझकर तुम से इसका आधा कफन न लूं तो बड़ा अधर्म हो। जिस हरिश्चन्द्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा फाड़ दो। देखो सबेरा हुआ चाहता है ऐसा न हो कि कुलगुरु भगवान् सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर चित् में उदास हों। (हाथ फैलाता है)
शै. : (रोती हुई) नाथ जो आज्ञा। (रोहिताश्व का मृतकंबल फाड़ा चाहती है कि रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है, तोप छूटने का सा बड़ा शब्द और बिजली का सा उजाला होता है। नेपथ्य में बाजे की ओर बस धन्य और जय-जय की ध्वनि होती है, फूल बरसते हैं और भगवान् नारायण प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लेते हैं।)
भ. : बस महाराज बस (धर्म और सत्य सब की परमावधि हो गई। देखो तुम्हारे पुण्य भय से पृथ्वी बारम्बार कांपती है, अब त्रौलोक्य की रक्षा करो। (नेत्रों से आंसू बहते हैं)
ह. : (साष्टांग दंडवत् करके रोता हुआ गद्गद् स्वर से) भगवान्! मेरे वास्ते आपने परिश्रम किया! कहाँ यह श्मशान भूमि, कहाँ यह मत्र्यलोक, कहाँ मेरा मनुष्य शरीर, और कहां पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदघन साक्षात् आप! (प्रेम के आंसुओं से गद्गद् कंठ होने से कुछ कहा नहीं जाता)
भ. : (शैव्या से) पुत्री अब शोच मत कर! धन्य तेरा सौभाग्य कि तुझे राजर्षि हरिश्चन्द्र ऐसा पति मिला है (रोहिताश्व की ओर देखकर वत्स ब्रेरेट बंद रोहिताश्व उठो, देखो तुम्हारे माता पिता देर से तुम्हारे मिलने को व्याकुल हो रहे हैं।) (रोहिताश्व उठ खड़ा होता है और आश्चर्य से भवगान् को प्रणाम कर के माता पिता का मुंह देखने लगता है, आकाश से फिर पुष्पवृष्टि होती है)
ह. और शै.: (आश्चर्य, आनंद, करुणा और प्रेम से कुछ कह नहीं सकते, आंखों से आंसू बहते हैं और एकटक भगवान् के मुखारविंद की ओर देखते हैं)
(श्री महादेव, पार्वती, भैरव, धर्म, सत्य, इंद्र और विश्वामित्र आते हैं)1
सब : धन्य महाराज हरिश्चन्द्र धन्य! जो आपने किया, सो किसी ने न किया न करेगा।
(राजा हरिश्चन्द्र शैव्या और रोहिताश्व सबको प्रणाम करते हैं)
बि. : महाराज यह केवल चन्द्र सूर्य तक आप की कीर्ति स्थिर रहने के हेतु मैंने छल किया था सो क्षमा कीजिए और अपना राज्य लीजिए।
(हरिश्चन्द्र भगवान और धर्म का मुंह देखते हैं)
धर्म : महाराज राज आप का है इसका मैं साक्षी हूं आप निस्संदेह लीजिए।
सत्य : ठीक है जिसने हमारा अस्तित्व संसार में प्रत्यक्ष कर दिखाया उसी का पृथ्वी का राज्य है।
श्रीमहादेव : पुत्र हरिश्चन्द्र, भगवान नारायण के अनुग्रह से ब्रह्मलोक पर्यंत तुम ने पाया तथापि मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी कीर्ति, जब तक पृथ्वी है तब तक स्थिर रहे, और रोहिताश्व दीर्घायु, प्रतापी और चक्रवर्ती होय।
पा. : पुत्री शैव्या! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियाँ गावें, तुम्हारी पुत्रवधू सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग न करे।
(हरिश्चन्द्र और शैव्या प्रणाम करते हैं)
भै. : और जो तुम्हारी कीर्ति कहे सुने और उसका अनुसरण करे उस की भैरवी यातना न हो।
इन्द्र : (राजा को आलिंगन करके और हाथ जोड़ के) महाराज ,मुझे क्षमा कीजिये। यह सब मेरी दुष्टता थी परंतु इस बात से आप का तो कल्याण ही हुआ। स्वर्ग कौन कहे आप ने अपने सत्यबल से ब्रह्मपद पाया। देखिये आप की रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी, आप उपाध्यक्ष बने थे, नारद जी बटु बने थे, साक्षात् धर्म ने आप के हेतु चांडाल और कापालिक का भेष लिया, और सत्य ने आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का रूप धारण किया। न आप बिके, न दास हुए, यह सब चरित्रा भगवान नारायण की इच्छा से केवल आप के सुयश के हेतु किया गया।
ह. : (गद्गद स्वर से) अपने दासों का यश बढ़ाने वाला और कौन है।
भ. : महाराज। और जो भी इच्छा हो मांगो।
ह. : (प्रणाम करके गद्गद स्वर से) प्रभु! आप के दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आप की आज्ञानुसार यह वर मांगता हूं कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ बैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे।
भ. : एवमस्तु, तुम ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट पतंग जीव मात्र सब परमधाम जायंगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण टूट जायंगे तब भी वह तुम्हारी इच्छानुसार सत्य मात्र एक पद से स्थित रहेगा। इतना ही देकर मुझे सन्तोष नहीं हुआ कुछ और भी मांगो। मैं तुम्हें क्या-क्या दूं क्योंकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका। तथापि मेरी इच्छा यही है कि तुम को कुछ और वर दूं। तुम्हें वर देने में मुझे सन्तोष नहीं होता।
ह. : (हाथ जोड़कर) भगवान मुझे अब कौन इच्छा है। मैं और क्या वर मांगूं तथापि भरत का यह वाक्य सुफल हो-
खल गनन सो सज्जन दुखी मति होइ, हरिपद रति रहे।
उपधर्म छूटैं सत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै ।।
बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, सबजगसुखल है।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहै ।।
(पुष्पवृष्टि और बाजे की धुनि के साथ जवनिका गिरती है)
इति श्री
सत्य हरिश्चन्द्र नाटक सम्पूर्ण हुआ ।।