संगठन

सामुदायिक संगठन
(संघ से अनुप्रेषित)
  • सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥ -- ऋग्वेद 10/191/2
(हे धर्मनिरत विद्वानो !) आप परस्पर एक होकर रहें, परस्पर मिलकर प्रेम से वार्तालाप करें । समान मन होकर ज्ञान प्राप्त करें । जिस प्रकार श्रेष्ठजन एकमत होकर ज्ञानार्जन करते हुए ईश्वर की उपासना करते हैं, उसी प्रकार आप भी एकमत होकर व विरोध त्याग करके अपना काम करें ।
  • समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥ -- ऋग्वेद 10/191/3
हम सबकी प्रार्थना एक समान हो, भेद-भाव से रहित परस्पर मिलकर रहें, अंतःकरण मन-चित्त-विचार समान हों । मैं सबके हित के लिए समान मन्त्रों को अभिमंत्रित करके हवि प्रदान करता हूँ ।
  • समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥ -- ऋग्वेद 10/191/4
तुम सबके संकल्प एक समान हों, तुम्हारे ह्रदय एक समान हों और मन एक समान हों, जिससे तुम्हारा कार्य परस्पर पूर्णरूप से संगठित हों ।
  • सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥ -- अथर्ववेद ६/६४/१
हे सौमनस्य के आकांक्षी –तुम सामान ज्ञान वाले बनो और सामान कार्य में संलग्न हो जाओ। ज्ञान के उत्पत्ति के निमित्त तुम्हारे अन्तःकरण सामान हो। जिस प्रकार देवगण एक ही कार्य को जानते हुए यजमान द्वारा दिए गए हवि को ग्रहण कर लेते हैं –उसी प्रकार तुम भी विरोध त्यागकर इच्छित फल प्राप्त करो।
  • समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम् ।
समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविशध्वम् ॥ -- अथर्ववेद ६/६४/२
हमारे गुप्त भाषण एक रूप हों –हमारे कार्यों की प्रवृत्ति समान हो। हमारा कर्म भी एकरूप हो –हमारा अंतःकरण भी इसी प्रकार का हो। फल पाने के लिए हे देवो –हम एकता उत्पन्न करने वाले आज्य आदि से आपके निमित्त हवन करे। इससे हममे एक चित्तता हो सके।
  • समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनः यथा वः सुसहासति ॥ -- अथर्ववेद ६/६४/३
हे सौमनस्य चाहने वालों –तुम्हारे संकल्प समान हों। —तुम्हारे संकल्पों को उत्पन्न करने वाले ह्रदय समान हो। –तुम्हारा मन एकरूप हो जिससे तुम सब सभी कार्य ठीक से कर सको ।
  • सामर्थ्यमूलं स्वातन्त्यं श्रममूलं च वैभवम् ।
न्यायमूलं सुराज्यं स्यात् संघमूलं महाबलम् ॥
शक्ति स्वतन्त्रता की जड़ है , मेहनत धन-दौलत की जड़ है , न्याय सुराज्य का मूल होता है और संगठन महाशक्ति की जड़ है ।
  • त्रेतायां मन्त्रशक्तिश्च ज्ञानशक्तिः कृतेयुगे ।
द्वापरे युद्धशक्तिश्च संघशक्तिः कलौ युगे ॥ -- वेद व्यास
त्रेता युग में मन्त्र शक्ति, सत्ययुग में ज्ञान शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति प्रमुख बल था, किन्तु कलियुग में संगठन की शक्ति ही प्रधान है।
  • विरोधिनोपि श्रोतव्यं आत्मनीनतया मतम्।
तत्कालं न विरोद्धव्यं यथाकालं तु खण्डयेत्॥
विरोधी के मत को भी आत्मीयता दिखाते हुए सुनना चाहिए, तत्काल विरोध नहीं करना चाहिए। समय देखकर कालान्तर में उसकी अनुचित बात का खण्डन करना चाहिए।
  • समानसुखदुःखानां समानोद्दिष्टकांक्षिणाम्।
तथा समानश्रद्धानां संघः स्वाभाविको यतः॥
सुख-दुःख में समान और समान उद्देश्य को चाहने वाले तथा समान श्रद्धा वालों का ‘संगठन’ स्वाभाविक है।
  • न संघरूपिणी ज्ञेया सेना बाह्यानुशासना।
समितिर्वा सदस्यानां अगृहीतानुशासना॥
सेना के समान केवल बाहर का अनुशासन ही दिखना पर्याप्त नहीं, समिति में आन्तरिक अनुशासन भी होना चाहिए।
  • क्षणे-क्षणे विरोधश्च विपदश्च पदे पदे।
प्रलोभनान्यनन्तानि संघकार्यं हि दुष्करम्॥
जहाँ क्षण-क्षण पर विरोध, पद-पद पर विपत्ति और अनन्त प्रलोभन हों, वहाँ संगठन करना बहुत कठिन होता है।
  • योगक्षेमाय धर्मस्य सभ्यतायाः सुसंस्कृतेः।
नैवान्यो विद्यते पन्थाः लोकसंघटनं विना॥
धर्म, सभ्यता और संस्कृति के योगक्षेम हेतु समाज के संगठन के बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
  • विना प्रीतिं विना नीतिं विना सत्कार्यपद्धतिम्।
विना कर्तृत्वशक्तिं च संघो नैव विवर्धते॥
प्रेम के बिना, नीति के बिना, सत्कार्य पद्धति के बिना और कर्तृत्व शक्ति के बिना संगठन का कार्य नहीं बढ़ता ।
  • वाक्ताडनं प्रमत्तस्य परिवादं रिपोरपि।
प्रतिवादं विमूढ़स्य वर्जयेल्लोकसंग्रही॥
प्रमत्त को डाँटना, शत्रु की भी निन्दा करना, मूर्ख का प्रतिवाद करना लोकसंग्रही/लोकप्रियता के इच्छुक को त्याग देना चाहिए।
  • एहि ब्रूहि समाधेहि समाश्वसिहि मा स्म यैः।
आपन्नमिति यो ब्रूयात् तस्य लोको वशंवदः॥
आपत्ति में फंसा कोई व्यक्ति आवे तो उसे 'आओ, बोलो' - ऐसा कहें। उसका समाधान करे, उसे अच्छी प्रकार आश्वासन दें। 'मत डरो' - यह कहें, तो उस व्यक्ति के सभी लोग अनुयायी हो जाते हैं।
  • सोत्साहानां मनाक् कुर्यात् काले सत्त्वरीक्षणम्।
प्रोत्साहयेन्निरुत्साहान् न वाचोपितु कर्मणा॥
उत्साह वालों को नियन्त्रण में करें, समय आने पर उनका परीक्षण करें तथा निरुत्साही लोगों को वाणी से ही नहीं, अपितु कर्म से भी प्रोत्साहित करें।
  • यत्र सर्वे सुखासीना वावदूकाः प्रमादिनः।
दीना दुर्च्यसनाधीना संघोेसौ सम्प्रणश्यति॥
जहाँ सभी सुख से बैठने वाले हों, ज्यादा बोलने वाले हों, प्रमादी हों, दीन हों, दुर्व्यसनों में आसक्त हों, वह संगठन नष्ट हो जाता है।
  • एकाकी नैव भुंजीत नैवैकाकी रमेय यः।
न चैकाकी नयेत् कालं संघकार्य परायणः॥
संगठन के कार्य में लगा व्यक्ति अकेला न खाये, न अकेला खेले, न अकेला रह कर समय बिताए।
  • वाचा मित्रत्वमायान्ति वाचैवायान्ति शत्रुताम्।
इति विज्ञाय संघार्थी सदावाचंयमो भवेत्॥
वाणी से ही मित्रता होती है और वाणी से ही शत्रुता होती है, यह ध्यान में रखकर संगठन चाहने वाला व्यक्ति सदा वाणी के संयम वाला रहे।
  • त्रेतायां मंत्रशक्तिश्च ज्ञानशक्तिः कृते-युगे।
द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघशक्ति कलौ युगे॥
सत्ययुग में ज्ञान शक्ति, त्रेता में मन्त्र शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति का बल था। किन्तु कलियुग में संगठन की शक्ति ही प्रधान है।
  • संघो ददाति सामर्थ्यं सामर्थ्यात् सर्व योग्यता।
योग्यत्वाद् यः समुत्कर्षाे निरमायः स सर्वथा॥
संगठन से सामर्थ्य प्राप्त होती है एवम् सामर्थ्य से सब प्रकार की योग्यता। ऐसी योग्यता से जो उत्कर्ष प्राप्त होता है वह सब प्रकार से विघ्न रहित होता है।
  • विदुषां शास्त्रतः शक्तिः वीराणां सा च शस्त्रतः।
धनश्रमादितोन्येषां शक्तिः सर्वस्य संघतः॥
विद्वान जिस शक्ति को शास्त्रों से, वीर शस्त्रों से एवम् अन्य धन एवम् श्रम से प्राप्त करते हैं। वह शक्ति संगठन से सभी को सहज ही प्राप्त हो जाती है।
  • हमारे स्वभाव में ही संगठन क्षमता का पूर्णतया अभाव है , फिर भी हमें अपने देशवासियों में इस भावना को संचारित करना पड़ेगा। इसका सबसे बड़ा रहस्य है - ईर्ष्या का अभाव। तुम तीस करोड़ मनुष्य अपनी-अपनी इच्छाशक्ति को एक दूसरे से पृथक किये रहते हो। -- स्वामी विवेकानन्द
  • हमलोग आलसी हैं, एकजुट नहीं हो सकते हैं , एक-दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते हैं , बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य भी एक-दूसरे से घृणा किये बिना, ईर्ष्या किये बिना , एकत्र नहीं हो सकते। इसलिए यदि तुम सफल होना चाहते हो तो पहले 'अहं ' का नाश कर डालो। तुम अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो , बल्कि उनके सेवक ही बने रहो। कभी भी दूसरों का मार्गदर्शन या शासन करने का प्रयास नहीं करो। सभी के सेवक बने रहो। शासक बनने की कोशिश मत करो। सबसे अच्छा शासक वह है , जो अपने को सभी का सेवक समझता है , जो अच्छी सेवा कर सकता हैं। -- स्वामी विवेकानन्द
  • मेरे बच्चे, संघबद्ध तरीके से कार्य किस तरह किया जाता है, इस बात की शिक्षा ग्रहण करो ! अभी हमें बड़े बड़े काम करने हैं। .. एकमात्र 'इच्छा-शक्ति' को समन्वित करने से सब कुछ हो जायेगा। एक समिति को संगठित करो , जिसके अधिवेशन (साप्ताहिक पाठचक्र , वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर , वार्षिक आम बैठक : Annual General Meeting आदि) नियमित रूप से होते रहें। और जहाँ तक हो सके , उसके बारे में मुझे लिखते रहो। संगठन की शक्ति का हमारी प्रकृति में (हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ) पूर्णतया अभाव है, उसका विकास करना होगा। -- स्वामी विवेकानन्द, 11 जुलाई 1894 को आलासिंगा पेरुमल को लिखे पत्र में

इन्हें भी देखें

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