श्रीराम शर्मा

भारतीय समाज सुधारक
(श्रीराम शर्मा आचार्य से अनुप्रेषित)

श्रीराम शर्मा (२० सितम्बर १९११ - ०२ जून १९९०) भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया।

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य

गायत्री मंत्र पर

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  • जिस भी मनुष्य ने गायत्री और यज्ञ को जीवन में उतार दिया, उसका जीवन सफल है।
  • जब भी थकान, मुसीबत में फँस गये हो, स्वर या मन में जप शुरू कर दो। उस समस्या का समाधान तुरन्त हो जायेगा।
  • भोजन बनाते समय, आटा गूँथते समय गायत्री मंत्र जप करने से वह भोजन अमृत बन जाता है। वह भोजन पोषित हो जाता है।
  • लगातार एक माला गायत्री मंत्र जप प्रतिदिन करने से गलत कामो से ध्यान हटता हैं। शरीर को अत्यधिक खुशी मिलती है।
  • लगातार 12 साल, एक माला गायत्री मंत्र जप प्रतिदिन करने से, उससे प्राप्त उर्जा और शक्ति को अपने अच्छे कर्म में लगाकर सिद्धि प्राप्त की जा सकती हैं। अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
  • भारत के सभी महापुरुष, भगवान राम, कृष्ण, सभी ऋषि-मुनियों ने, अवतारी पुरुषों ने गायत्री मंत्र का जप किया है।
  • गायत्री को इष्ट मानने का अर्थ है – सत्प्रवृति की सर्वोत्कृष्टता पर आस्था ।
  • भोजन करने से पहले तीन बार गायत्री मंत्र का जप जरूर करे।
  • अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कारित एवं चरित्र को परिष्कृत बनाने वाले साधक को गायत्री महाशक्ति मातृवत् संरक्षण प्रदान करती है ।
  • ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री पाठ करने से चित शुद्ध होता है, हृदय में निर्मलता आती है और शरीर निरोग रहता है ।
  • बुद्धि को निर्मल, पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने का महामंत्र है – गायत्री मंत्र ।

मनुष्य-जीवन पर

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  • जीवन का अर्थ है, समय। जो जीवन से अधिक प्यार करते हों, वे व्यर्थ में एक क्षण न गवाएँ।
  • यदि विचार बदल जाएँगें तो कार्यों का बदलना सुनिश्चित है। कार्य बदलने पर भी विचारों का न बदलना सम्भव है, पर विचार बदल जाने पर उनसे विपरीत कार्य देर तक नहीं होते रह सकते। विचार बीज हैं, कार्य अंंकुर..विचार पिता हैं, कार्य पुत्र। इसलिए जीवन परिवर्तन का कार्य विचार परिवर्तन से आरम्भ होता है। जीवन-निर्माण का, आत्म-निर्माण का अर्थ है—‘विचार-निर्माण’।
  • युग निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। मानव-जीवन का आदर्श, कर्तव्य, धर्म और सदाचार का इस संकल्प मंत्र में भावनापूर्वक समावेश हुआ है। इसका पाठ करना किसी धर्म ग्रन्थ के पाठ से कम प्रेरणा और पुण्यफल प्रदान करने वाला नहीं है।
  • मनुष्य को सफल बनने के लिए पहले अपने विचारों को बदलना पड़ेगा।
  • मनुष्य जन्म सिर्फ पेट भरने और बच्चा पैदा करने के लिए नही हुआ है।
  • असफलता का मतलब है कि जितना अभ्यास, मेहनत और समय आपको उस काम को देना था, उतना काम आपने नहीं किया।
  • सादा जीवन : उच्च विचार ।
  • मनुष्य अपने भाग्य निर्माता स्वंय हैं।
  • अगर किसी को उपहार देना ही है तो हिम्मत और आत्मविश्वास बढ़ाने वाला उपहार दो।
  • मनुष्य की पहचान उसके सत्कर्मो और अच्छे विचारों से होगी।
  • नर-नारी में कोई भेदभाव नही करेंगे।
  • एक स्वस्थ युवा ही सबल राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।
  • नशा मनुष्य और समाज दोनों को बर्बाद के देता है।
  • मेरा स्मारक बनाने के बदले जीवन में एक पेड़ लगा देना।
  • हर गाँव आदर्श गांव हो, हर आदमी आत्मनिर्भर बने।
  • प्रतिदिन एक घंटा श्रमदान जरूर करें।
  • गपशप नही करे। जप-तप करें।
  • अगर व्यक्ति जीभ और कामुकता पर नियंत्रण कर लें, तो उसकी नब्बे प्रतिशत समस्याएँ स्वतः खत्म हो जायेंगी।

स्वास्थ्य पर

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  • भूख से कम भोजन खाये । मतलब रोज चार रोटी खाते हो तो तीन ही खाये। क्योंकि ज्यादा भोजन करने से शक्ति नहीं मिलती हैं। जो भोजन अच्छी तरह पच कर रस बन जाता है, वही काम आता है।
  • प्राकृतिक चिकित्सा शरीर का कायाकल्प करने के लिए सबसे अच्छी चिकित्सा हैं। आप गायत्री परिवार की शक्तिपीठ ग्राम आँवलखेड़ा पर कम कीमत में करवा सकते हैं। खाना-पीना, रहना और भोजन मुफ्त हैं।
  • मनुष्य के लिए अस्वाद भोजन ही सर्वश्रेष्ठ है। अस्वाद भोजन का मतलब बिना नमक, मिर्ची, शक्कर के बना भोजन।
  • कोई भी खाने की चीज खाने के बाद कुल्ला अवश्य करें। इससे आपके दाँत 100 साल तक टिके रहेंगे।
  • आसनों और प्राणायाम का सुंदर योग आसन "प्रज्ञायोग" जरूर करें।
  • आसन-प्राणायाम करने से हमारा शरीर हिलता-डुलता हैं जिससे शरीर में जमा सारी गंदगी कफ, सांस, और मल-मूत्र के द्वार से बाहर निकल जाती है।
  • कहते हैं, योगी प्राणायाम से अपने मृत्यु को वश में कर देते हैं और जब तक चाहे, वो जिंदगी जी सकते हैं। प्राणायाम से शरीर की प्राण ऊर्जा बढ़ती हैं।
  • अगर भारत के लोग बाहर शौच करने जाते, समय साथ में खुरपी ( गड्ढा खोदने का औजार ) भी लेकर जांय, और गड्ढा खोदकर उसमें मल त्यागें। इससे बहुत सारी बीमारियों से भी बचा जा सकता हैं। वह मल भी खाद में बदल जाता हैं।
  • जो लाभ गाय का घी खाने से मिलते हैं वही लाभ गाय के घी का दीपक जलाकर प्राणायाम करने से मिलते हैं।
  • संसार के सभी जीव-जन्तु , पशु-पक्षी अपना भोजन बिना मिलावट खाते हैं।
  • यज्ञ इस पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ कर्म है क्योंकि इस से सभी को लाभ मिलता हैं।
  • हमेशा पंचगव्य से निर्मित नहाने का साबुन इस्तेमाल करें।
  • नियमित रूप से शुद्ध सरसो के तेल से पुरे शरीर पर मालिश करने से आँखों की दृष्टि तेज होती है। सभी अंग पुष्ट होते हैं।
  • आत्मबोध की साधना और तत्त्वबोध की साधना जरूर करें। मतलब हर दिन जन्म और हर दिन मृत्यु।
  • ऐसा कोई भी खाद्य-पर्दाथ जिस पर मख्खी बैठ गई है, वह खाना फेंक दो या बाहर जानवरों को खिला दो क्योंकि मख्खी को 'रोग की अम्मा' कहा जाता हैं।
  • क्रोध स्वास्थ्य और शान्ति का शत्रु है।
  • व्यभिचार के, चोरी के, अनीति बरतने के, क्रोध एवं प्रतिशोध के, ठगने एवं दंभ, पाखंड बनाने के कुविचार यदि मन में भरे रहें तो मानसिक स्वास्थ्य का नाश ही होने वाला है ।
  • मानसिक बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है कि हृदय को घृणा से और मन को भय व चिन्ता से मुक्त रखा जाय।

युग निर्माण योजना

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युग निर्माण योजना का प्रधान उद्देश्य है - विचार क्रान्ति । मूढ़ता और रूढ़ियों से ग्रस्त अनुपयोगी विचारों का ही आज सर्वत्र प्राधान्य है । आवश्यकता इस बात की है कि सत्य, प्रेम, न्याय पर आधारित विवेक और तर्क से प्रभावित हमारी विचार पद्धति हो। आदर्शों को प्रधानता दी जाए और उत्कृष्ट जीवन जीने की, समाज को अधिक सुखी बनाने के लिए अधिक त्याग, बलिदान करने की स्वस्थ प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा चल पड़े। वैयक्तिक जीवन में शुचिता-पवित्रता, सच्चरित्रता, ममता, उदारता, सहकारिता आए। सामाजिक जीवन में एकता और समता की स्थापना हो। इस संसार में एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक आचार रहे; जाति और लिंग के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे। हर व्यक्ति को योग्यता के अनुसार काम करना पड़े; आवश्यकतानुसार गुजारा मिले। धनी और निर्धन के बीच की खाई पूरी तरह पट जाए। न केवल मनुष्य मात्र को वरन् अन्य प्राणियों को भी न्याय का संरक्षण मिले। दूसरे के अधिकारों को तथा अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हर किसी में उगती रहे सज्जनता और सहृदयता का वातावरण विकसित होता चला जाए, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में युग निर्माण योजना प्राणपण से प्रयत्नशील है।

मनुष्य के शरीर में दो चीजें हैं- एक उसकी रचना अर्थात् काया और दूसरी चेतना। मनुष्य के पास जो कुछ भी विशेषता और महत्ता है, जिसके कारण वह स्वयं उन्नति करता जाता है और समाज को ऊँचा उठा ले जाता है वह उसके अंतर की विचारधारा है। जिसको हम चेतना कहते हैं, अंतरात्मा कहते हैं, विचारणा कहते हैं। यही एक चीज है, जो मनुष्य को ऊँचा उठा सकती है और महान बना सकती है। शांति दे सकती है और समाज के लिए उसे उपयोगी बना सकती है। मनुष्य की चेतना, जिसको हम विचारणा कह सकते हैं, किस आदमी का विचार करने का क्रम कैसा है? बस, असल में वही उसका स्वरूप है। आदमी लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से छोटा नहीं होता, वरन जिस आदमी के मानसिक स्तर की ऊँचाई कम है, वह आदमी ऊँचे सिद्धांत और ऊँचे आदर्शों को नहीं सुन सकता। जो व्यक्ति सिर्फ पेट तक और संतान पैदा करने तक सीमाबद्ध रहता है, वह छोटा आदमी है। उसे अगर एक इंच का आदमी कहें तो कोई अचंभे की बात नहीं है। उसकी तुलना कुएँ के मेंढक से करें, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। कीड़े-मकोड़ों में उसकी गिनती करें तो कोई बात नहीं है।

पिछले दिनों जब हमारे देश के नागरिकों की विचारणा का स्तर बहुत ऊँचा था, तब शिक्षा के माध्यम से और अन्य वातावरणों के माध्यम से, धर्म और अध्यात्म के माध्यम से यह प्रयत्न किया जाता था कि आदमी ऊँचे किस्म का सोचने वाला हो एवं उसके विचार, उसकी इच्छा, आकांक्षा और महत्त्वाकांक्षाएँ नीच श्रेणी के जानवरों जैसी न होकर महापुरुषों जैसी हों। जब ये प्रयास किए जाते थे तो अपना देश कितना ऊँचा था! यहाँ के नागरिक देवताओं की श्रेणी में गिने जाते थे और यह राष्ट्र दुनिया के लोगों की आँखों में स्वर्ग जैसा दिखाई पड़ता था। इस महानता और विशेषता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है।

प्रकारान्तर से यही है, महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली विचार क्रान्ति की रूप-रेखा। लोक-मानस के परिष्कार नाम से भी इसी का उल्लेख होता है। अवांछनीय मान्यताओं, गतिविधियों की रोक-थाम के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे सम्पन्न करने के लिए हमें आपत्तिकालीन स्थिति से निपटने जैसी उदार साहसिकता का परिचय देना चाहिए। पड़ोस में हो रहे अग्निकाण्ड के समय मूकदर्शक बने रहना किसी को भी शोभा नहीं देता; विशेषतया उनको, जिनके पास फायर ब्रिगेड जैसे साधन हैं। विवेकशीलता और उदारता से सम्पन्न लोगों के लिए यह अशोभनीय है कि विश्व संकट का समाधान समझते हुए भी, उस संदर्भ में जो सहज ही अपने से बन पड़ सकता था, उससे उपेक्षा दिखाए, अन्यमनस्कता जैसी निष्ठुरता अपनाये।

दानों में सबसे बड़ा दान एक ही है, कि व्यक्ति की प्रस्तुत मानसिकता को झकझोर कर जागृत बनाया जाय। अपनी भूलें सुधारने और अपने भाग्य का निर्माण करने के लिए-साहसिकता अपनाने के लिए सहमत किया जाय। विचार-क्रान्ति में यही किया जाता है, कि भटकाव के दुष्परिणामों की मान्यताओं को इतनी गहराई तक पहुँचाया जाय, अवांछनीयता अपनाए रहने की स्थिति से पीछा छुड़ा सकने की बात बन पड़े। सुखद संभावनाओं के निकट तक जा पहुँचने के लिए चल पड़ने वाला पौरुष अपनाने के लिए कटिबद्ध होने का उत्साह जगाया जाय।

  • युग-परिवर्तन का विषय बड़ा महत्वपूर्ण और साथ ही विवादग्रस्त भी है। हमारे ज्यादातर प्राचीन विचार के भाई तो इसको सुनकर ही चौंक पड़ते हैं। उनके मस्तिष्क लाखों वर्ष के सतयुग और कलियुग के सिद्धान्त ने ऐसी जड़ जमा रखी है कि इस बात पर विश्वास ही नहीं होता कि, युग इतना शीघ्र बदल सकता है।
    भारतीय पुराणों की मान्यता के अनुसार कालचक्र चार युगों में बँटा है- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग । दूसरे धर्मों में भी इससे कुछ मिलता जुलता विभाजन देखने में आता है, जैसे ईसाइयों के ग्रन्थों में 'गोल्डन एज' (सुवर्ण-युग), 'सिलवरएज' (रौप्य युग), 'कौपरएज' (ताम्र-युग), 'आयरनएज' (लौह युग) का नाम मिलता है। जैनियों में 'सुखमा'- 'सुखुमा दुखमा 'दुखमा सुखुमा' 'दुखमा' आदि कालों का वर्णन मिलता है।
    इन चार युगों में से कौन अच्छा है और कौन बुरा इसकी चर्चा साधारण जनता में प्रायः सुनने में आया करती है, पर जब हम इस पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो उसमें कोई सार नहीं दिखलाई पड़ता। पहले से ही किसी काल विभाग को खराब मान लेना और यह भावना बना लेना कि इस समय में तो पाप कर्मों की वृद्धि होगी ही, न तो कोई तर्क संगत बात है और न इसमें किसी प्रकार की बुद्धिमानी ही कही जा सकती है। जिस प्रकार भाग्यवाद या तकदीर के सिद्धान्त ने भारतवासियों को आलसी और निरुद्योगी बना दिया है उसी प्रकार कलियुग के सिद्धान्त ने उनको तरह-तरह की हानिकारक रूढ़ियों में फंसने में सहायता पहुँचाई है। इस कलियुग सम्बन्धी भ्रामक धारणा के कारण पिछले वर्षों में समाज सेवकों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। जब लोगों को किसी हानिकारक रूढ़ि को त्यागने या समयानुकूल किसी नई प्रथा को अपनाने के लिये कहा गया तो यही उत्तर मिला- "यह तो कलियुग है।" स्त्री शिक्षा, पर्दा प्रथा, अल्पायु में विवाह, वृद्ध विवाह, जाति प्रथा, दहेज प्रथा आदि किसी भी दोष दुर्गुण को त्यागने का परामर्श दिया गया तो कलियुग का बहाना प्रस्तुत कर दिया गया।

युग निर्माण सत्संकल्प

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युग परिवर्तन के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है, वह पहले आकांक्षा रूप में ही अवतरित होगा। इसी अवतार का सूक्ष्म स्वरूप यह युग निर्माण सत्संकल्प है-

  • (१) हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
  • (२) शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
  • (३) मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
  • (४) इंद्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
  • (५) अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
  • (६) मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
  • (७) समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
  • (८) चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
  • (९) अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
  • (१०) मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
  • (११) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
  • (१२) नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
  • (१३) संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
  • (१४) परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
  • (१५) सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
  • (१६) राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
  • (१७) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
  • (१८) हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।

विविध विषयों पर

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  • अच्छे विचार ही मनुष्य को सफलता और जीवन देते हैं ।
  • अच्छे व्यक्तित्व अच्छे समाज में ही जन्मते, पनपे और फलते-फूलते हैं। जिस समाज का वातावरण दूषित तत्वों से भरा हुआ रहता है, उसकी अगली पीढ़ियाँ क्रमशः अधिक दुर्बल एवं पतित बनती चली जाती है। धन कमाने, पद प्राप्त करने या चातुर्य दिखाने में कोई व्यक्ति सफल हो जाये तो भी यदि वह भावना और कर्तृत्व की दृष्टि से गिरा हुआ है तो उसे सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय व्यक्ति ही माना जाएगा। उसकी सफलतायें उसके लिए सुविधाजनक हो सकती हैं, पर उनसे देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति का कुछ भी भला नहीं हो सकता।
  • अच्छे व्यक्तियों की आवश्यकता हो तो अच्छा समाज बनाने के लिए जुटना चाहिये । अच्छा समाज बनाने पर ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व की आवश्यकता पूरी होगी। सुख साधनों का अभिवर्धन और समुन्नत लोक-व्यवहार का प्रचलन ही सर्वतोमुखी सुख-शान्ति की आवश्यकता पूरी करता है और इस प्रकार का उत्पादन प्रखर प्रतिभासंपन्न सुसंस्कृत व्यक्ति ही कर सकने में समर्थ होते हैं।
  • अंत:करण को कुसंस्कारों, कषाय-कल्मषों की भयानक व्याधियों से साधना की औषधि ही मुक्त करती है।
  • अंतरात्मा में बैठा हुआ ईश्वर उचित और अनुचित की निरन्तर प्रेरणा देता रहता है। जो उसे सुनेगा-समझेगा, उसे सीधे रास्ते चलने में कठिनाई नहीं होगी।
  • अदालत और पुलिस से बच सकते हैं, परमेश्वर से नहीं।
  • अनाचार प्रायः हर क्षेत्र में अपनी जड़ें गहरी करता चला जा रहा है। इसके खतरों से जन-साधारण को सचेत किया जाना चाहिए। लोकमानस में अवांछनीयता के प्रति विरोध, असहयोग एवं विद्रोह की भावनायें जगाई जानी चाहिए। कुड़कुड़ाते रहने की अपेक्षा अनीति से जूझने की संघर्षात्मक चेतना उभारी जानी चाहिये और उसका सजीव मार्गदर्शन हमें आगे बढ़कर करना चाहिए।
  • अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता।।
  • अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहना ही सम्माननीय वीरोचित जीवन प्रणाली है।
  • अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना प्रत्येक धर्मशील व्यक्ति का मानवोचित कर्तव्य है।
  • अपना धर्म, अपनी संस्कृति अथवा अपनी सभ्यता छोड़कर दूसरों की नक़ल करने से कल्याण की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
  • अपना मूल्य गिरने न पाये, यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है, वह उतना ही प्रगतिशील है।
  • अपना मूल्य समझो और विश्वास करो किं तुम संस के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो।
  • अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।
  • अपनी क्षमताओं, गुणों और कर्तृत्वों को राष्ट्र को समर्पित कर देना एक उच्च स्तरीय अध्यात्म साधना है।
  • अपनी गलतियों को ढूँढना, अपनी बुरी आदतों को समझना, अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को अनुभव करना और उन्हें सुधारने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहना यही जीवन संग्राम है ।
  • अपनी गलतियों को ढूँढना, अपनी बुरी आदतों को समझना, अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को अनुभव करना और उन्हें सुधारने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहना यही जीवन संग्राम है।
  • अपनी छोटी–मोटी भूलों के बारे में हम यही आशा करते हैं कि लोग उन पर बहुत ध्यान न देंगे, ‘क्षमा करो और भूल जाओ’ की नीति अपनावे तो फिर हमे भी उतनी ही उदारता मन में क्यों नहीं रखनी चाहिये।
  • अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।
  • अपनी प्रशंसा पर गर्वित होना ही चापलूसी को प्रोत्साहन देना है ।
  • अपनी प्रसन्नता दूसरे की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है।
  • अपनी रोटी मिल-बाँटकर खाओ, ताकि तुम्हारे सभी भाई सुखी रह सकें ।
  • अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त कर गुरु को संतोष देने वाला कष्टसाध्य कार्य में प्रवृत्त होना ही सच्ची गुरु भक्ति है।
  • अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करने से बड़ी कोई धर्म नहीं है।
  • अपने को मनुष्य बनाने का प्रयत्न करो, यदि उसमें सफल हो गये, तो हर काम में सफलता मिलेगी।
  • अपने गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है।
  • अपने जीवन को प्यार करो, तो वह तुम्हें प्यार करेगा।
  • अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद और कोई नहीं हो सकता।
  • अपने दोषों से सावधान रहो, क्योंकि यही ऐसे दुश्मन हैं, जो छिपकर वार करते हैं।
  • अपने बच्चे की सच्ची स्नेहिल वही माता हो सकती है, जिसे दूसरे बच्चों से भी प्रेम हो।
  • अपने विश्वास की रक्षा करना प्राण रक्षा से भी बहुत अधिक मूल्यवान् है।
  • अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठो। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।
  • अवसर तो सभी को जिन्दगी में मिलते हैं, किंतु उनका सही वक्त पर सही तरीके से इस्तेमाल कुछ ही कर पाते हैं।
  • अश्लील और गंदा विषय-भोग संबंधी साहित्य वैसा ही घातक है, जैसा भले-चंगे व्यक्ति के लिए विष।
  • अश्लीलता और कुरुचि फैलाने वाला साहित्य आवारागर्द बदमाशों जैसा ही है।
  • असत् से सत् की ओर, अंधकार से आलोक की ओर और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम साधना है।
  • असत्य सदा हारता है।
  • असफलता यह बताती है कि सफलता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं किया गया।
  • आज का काम कल पर मत टालिए।
  • आत्म निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।
  • आत्म-निर्माण सबसे बड़ा पुण्य-पुरुषार्थ है।
  • आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है।
  • आत्म-विश्वास अपने उद्धार का एक महान् सम्बल है।
  • आत्मबल संपन्न होने का अर्थ है-आदर्शवाद के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य।
  • आत्मा की आवाज़ को जो सुनता है। सत्य मार्ग पर सदा ही चलता है।
  • आत्मा की पुकार अनसुनी न करें।
  • आत्मिक समाधान के लिए कुछ क्षड़ ही पर्याप्त होते हैं ।
  • आप बोना-काटना शुरु कीजिए। अगर आप बोएगें नहीं तो पैदा नहीं होगा।
  • आपत्ति धर्म का तात्पर्य है- सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रखकर वह करने में जुट जाना, जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।
  • आय से अधिक खर्च करने वाले तिरस्कार सहते और कष्ट भोगते हैं।
  • आलसी और प्रमादी धरती के भार हैं।
  • आलसी लोगों के पास से सफलता दूर-दूर ही रहती है।
  • आलस्य से बढ़कर अधिक घातक और अधिक समीपवर्ती शत्रु दूसरा नहीं।
  • आशा सर्वोत्तम प्रकाश है और निराशा घोर अन्धकार है।
  • आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाई ही खोजता है ।
  • इस दुनिया में सबसे अधिक कष्ट अज्ञानी व्यक्ति को ही होता है।
  • इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।
  • इस संसार में प्यार करने लायक़ दो वस्तुएँ हैं-एक दुख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।
  • ईमान और भगवान् ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं।
  • ईश्वर उपासना का अर्थ है-अपने आपको विकसित करना।
  • ईश्वर को मनुष्य के दुर्गुणों में सबसे अप्रिय' अहंकार' है।
  • ईश्वर पाप से बहुत कुढ़ता है और हमारी चौकीदारी के लिए अदृश्य रूप से हर घड़ी साथ रहता है। ईश्वर की भक्ति करने का अर्थ है-आदर्शवाद को प्रेम करना।
  • ईश्वर विश्वास का अर्थ है-उत्कृष्टता के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाला साहस।।
  • ईश्वर सभी को श्रेष्ठ उत्तरदायित्व सौंपता है, पर प्रसन्न उन्हीं पर होता है, जो उन्हें निभाते हैं।
  • उत्कृष्ट चरित्र ही मानव जीवन की सच्ची कसौटी है।
  • उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना।
  • उत्तम पुस्तकें जाग्रत् देवता हैं। उनके अध्ययन, मनन, चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है।
  • उसी धर्म का अब उत्थान, जिसका सहयोगी विज्ञान।
  • कम से कम इतना तो संघर्ष हर मोर्चे पर हम में से हर किसी को करना चाहिये कि अनीति एवं अनौचित्य के साथ कोई संबंध न रखें- समर्थन न करें- सहयोग न दें। उससे पूरी तरह अलग रहें और समय-समय पर अपने असहयोग एवं विरोध को व्यक्त करते रहें। जहाँ, जो संभव हो अनीति के विरुद्ध मोर्चा बनाया ही जाना चाहिए। ताकि आततायी, अनाचारियों को निर्भय होकर कुछ भी करते रहने की छूट न मिले।
  • कलियुग का बुरा समय केवल उन्हें प्रभावित करता है, जो अपनी सुरक्षा में सतर्क नहीं रहते।
  • कायर केवल नीति की बातें करते हैं, बहादुर उसकी रक्षा के लिए मर-मिटते हैं।
  • किसी का भी अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है।
  • किसी को कुछ देने की इच्छा हो, तो आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन सर्वोत्तम उपहार के रूप में दें।
  • किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।
  • किसी समाज, देश या व्यक्ति का गौरव अन्याय के विरुद्ध लड़ने में ही परखा जा सकता है।
  • कुकर्मी से बढ़कर अभागा कोई नहीं, क्योंकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता।
  • कुविचारों और दुर्भावनाओं के समाधान के लिए स्वाध्याय, सत्संग, मनन और चिन्तन यह चार ही उपाय हैं।
  • केवल वे ही असंभव कार्य को कर सकते हैं जो अदृष्य को भी देख लेते हैं।
  • कोई भी सफलता बिना आत्मविश्वास के मिलना असंभव है।
  • क्या पता कि जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बर्बाद कर रहे हैं, वह ही हमारे लिए अपनी झोली में सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो।
  • क्रान्तियाँ तलवारों से नहीं, आदर्शों से होती हैं। जो मात्र तलवार से पायी जाती है, वह तलवार से छिन भी जाती है।
  • क्रोध स्वास्थ्य और शान्ति का शत्रु है।
  • गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।
  • चरित्र का अर्थ है-अपने महान् मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।
  • चरित्र के उत्थान एवं आत्मिक शक्तियों के उत्थान के लिए इन तीनों सद्गुणों-होशियारी, सज्जनता और सहनशीलता का विकास अनिवार्य है।
  • चरित्र साधना का मूलाधार मानसिक पवित्रता है।
  • चरित्रवान् का वैभव कभी क्षीण नहीं होता।
  • छोटी-छोटी भूलों पर ध्यान दें और अपना सुधार करें।
  • जब तक व्यक्ति असत्य को ही सत्य समझता रहता है, तब तक उसके मन में सत्य को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है।
  • जब श्रेष्ठ व्यक्ति घट जाते हैं और सामाजिक वातावरण में उत्कृष्टता बनाये रखने के रचनात्मक प्रयास शिथिल हो जाते हैं तो समाज का स्तर गिर जाता है। समाज गिरेगा तो उस काल के व्यक्ति भी निकृष्ट, अधःपतित और दीन दुर्बल बनते चले जायेंगे। अच्छा समाज- अच्छे व्यक्ति उत्पन्न करता है और अच्छे व्यक्ति अच्छा समाज बनाते हैं। दोनों अन्योन्याश्रित हैं।
  • जमाना किसी को बुरा नहीं बनाता, बल्कि मनुष्य ही जमाने को कुरा बनाते हैं।
  • जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।
  • जल्दी सोना, जल्दी उठना, शरीर और मन की स्वस्थता को बढ़ाता है ।
  • जिन्हें लम्बी जिन्दगी जीनी हो, वे बिना कड़ी भूख लगे कुछ भी खाने की आदत न डालें।
  • जिस समाज में लोग एक दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, सुख संपत्ति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुये स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे देव-समाज कहते हैं। जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक सम्बन्ध बनाये रखता है तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियां बनी रहती हैं।
  • जीवन अवसर है, जिसे गंवा देने पर सब कुछ हाथ से गुम हो जाता है।
  • जीवन का अर्थ है-समय। जो जीवन से प्यार करते हों, वे आलस्य में समय न गंवाएँ।।
  • जीवन का सच्चा मूल्य 'कर्तव्य पालन' है।
  • जीवन का हर क्षण एक उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है।
  • जीवन में दो ही व्यक्ति असफल होते हैं, एक वे जो सोचते हैं पर करते नहीं, दूसरे जो करते हैं पर सोचते नहीं।
  • जीवन में सफलता पाने के लिए, आत्म विश्वास उतना ही ज़रूरी है, जितना जीने के लिए भोजन।
  • जूठन छोड़ कर अन्न भगवान का तिरस्कार ना करें ।
  • जैसी जनता, वैसा राजा। प्रजातन्त्र का यही तकाजा।
  • जैसी राष्ट्र की जननी नारी होगी, राष्ट्र भी उसी प्रकार का बनेगा।
  • जो असत्य और अनौचित्य को इसलिए स्वीकार करता है कि प्रतिरोध करने पर उसे झंझट में फँसना पड़ेगा, वह वस्तुतः नास्तिक है।
  • जो आज कर सकते हो, उसे कल पर मत छोड़ो, कौन जाने कल कब आए?
  • जो आत्म-निर्माण रूपी पुरुषार्थ में रत हैं, जिसमें सन्मार्ग पर चलने का साहस है, उसका कभी पतन पराभव नहीं होता।
  • जो जैसा सोचता है और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
  • जो ज्ञान मनुष्य के अच्छे संस्कारों को जाग्रत् करे और उसकी उत्तम वृत्तियों को बढ़ाकर ऊँचा उठा दे, वही विद्या है।
  • जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बड़े खुद अमल करें तो यह संसार स्वर्ग बन जाय।
  • जो बनावट, धोखेबाजी और चालाकी को तिलांजलि देकर ईमानदारी को अपनी जीवन नीति बनाये हुए हैं, वे सबसे अधिक बुद्धिमान् हैं।
  • जो व्यक्ति सत्य के साथ कर्तव्य परायणता में लीन है, उसके मार्ग में बाधक बनना कोई सरल काम नहीं है।
  • जो शिक्षा मनुष्य को धूर्त, परावलम्बी और अहंकारी बनाती हो वह अशिक्षा से भी बुरी है।
  • जो सत्य के प्रति वफादार नहीं, वे कायर और कमजोर हैं।
  • ज्ञान अमोघ शक्ति है, जिसके समक्ष सभी शक्तियाँ निष्प्रभ हो जाती हैं।
  • ज्ञान का ध्येय सत्य है और सत्य ही आत्मा का लक्ष्य है। ज्ञान मनुष्य को सत्य के दर्शन कराता है।
  • ज्ञान को कर्म का सहयोग न मिले तो कितना ही उपयोगी होने पर भी वह ज्ञान निरर्थक है।
  • ज्ञान ही जीवन का सार है, ज्ञान आत्मा का प्रकाश है, जो सदा एकरस और बंधनों से मुक्त रहने वाला है।
  • ज्ञानार्जन हर किसी के लिए संभव है। भगवान् ने किसी को कम, किसी को अधिक बुद्धि दी है, यह भ्रान्ति छोड़ देनी चाहिए।
  • डरना केवल दो से चाहिए, एक ईश्वर के न्याय से और दूसरे पाप अनाचार से ।
  • तृष्णा नष्ट होने के साथ ही विपत्तियाँ भी नष्ट होती हैं।
  • दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।
  • दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहीं मिला। जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।
  • दूसरों की परिस्तिथि में हम अपने को रखें, अपनी परिस्थिति में दूसरों को रखें और फिर विचार करें की इस स्तिथि में क्या सोचना और करना उचित है ?
  • दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।
  • दृढ़ आत्म-विश्वास ही सफलता की एकमात्र कुञ्जी है।
  • दो बातें याद रखने योग्य हैं-एक कर्तव्य और दूसरा मरण।
  • दोष और पाप हमारी प्रगति में सबसे बड़े बाधक हैं।
  • धन या पद पाने की अपेक्षा लोकश्रद्धा प्राप्त करना अधिक मूल्यवान् है।
  • धनवान् नहीं, चरित्रवान् सुख पाते हैं।
  • धरती पर प्रेम, आत्मीयता एवं दूसरों के हित में लगे रहना ही पुण्य है।
  • धर्म और अध्यात्म की शिक्षा भी यही है कि व्यक्ति अपने लिये धन,वैभव जमा न करके अपनी प्रतिभा, बुद्धि, क्षमता और संपदा को जीवन निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकता के लिए ही उपयोग करें और शेष जो कुछ बचता हो सबको सामूहिक उत्थान में लगा दें। जिस समाज में ऐसे परमार्थी लोग होंगे वही फलेगा, फूलेगा और वही सुखी रहेगा।
  • धर्म का मार्ग फूलों का सेज नहीं है। इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।
  • धर्म वही है जिसका विपत्ति एवं संपत्ति में समान रूप से पालन किया जाए।
  • धर्म से आध्यात्मिक जीवन विकसित होता है और जीवन में समृद्धि का उदय होता है।
  • धीर और वीर वे हैं जो निडर रहते हैं, अधीर नहीं होते और हर कठिनाई का हँसते-मुस्कराते स्वागत करते हैं।
  • धैर्य और साहस संसार की हर आपत्ति का अमोघ उपचार है।
  • न तो कभी निराश हो और न कभी हार मानो। उठो, खड़े हो जाओ और संघर्ष करो, जब तक विजयी न हो जाओ।
  • नम्रता, सज्जनता, कृतज्ञता, नागरिकता एवं कर्तव्य परायणता की भावना से ही किसी का मन ओत-प्रोत रहे ऐसे पारस्परिक व्यवहार का प्रचलन हमें करना चाहिए। दूसरों के दु:ख सुख सब लोग अपना दु:ख-सुख समझें और एक दूसरे की सहायता के लिए तत्परता प्रदर्शित करते हुए संतोष अनुभव करें, ऐसा जनमानस निर्माण किया जाना चाहिए। जिस समाज में मनुष्य की महत्ता का मूल्यांकन धन के आधार पर होता है, वह कभी उच्चस्तरीय प्रगति करने कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता।
  • नर और नारी का दर्जा समानता का है। उसमें छोटे-बड़े का कोई भेदभाव नहीं है।
  • नवनिर्माण का अर्थ है-मानव जीवन के उद्देश्य, आदर्श एवं स्तर में उत्कृष्टता का समावेश।
  • निठल्लापन व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए अकल्याणकारी है।
  • न्याय की चर्चा तो बड़ी सुंदर है, पर इसे प्राप्त कर सकना ईश्वर को प्राप्त कर सकने से भी अधिक दुर्लभ है।
  • न्याय की रक्षा और धर्म के समर्थन के लिए अपने प्राणों की भी परवाह न करने वालों को 'नरसिंह' कहते हैं।
  • परमात्मा की सच्ची पूजा हे सद्व्यवहार।
  • परमार्थ - मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है।
  • परमेश्वर का प्यार केवल सदाचारी और कर्त्तव्य परायणों के लिए सुरक्षित है।
  • परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं।
  • पाप, दुराचार, अनीति, छल एवं अपराधों की प्रवृत्तियां जहाँ पनप रही होंगी वहाँ प्रगति का मार्ग रुक जाएगा और पतन की व्यापक परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगेगी। मनुष्य की वास्तविक प्रगति एवं शांति तो पारस्परिक स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग पर निर्भर रहती है, यदि वह प्राप्त न हो सके तो विपुल साधन सामग्री पाकर भी सुख-शान्ति के दुर्लभ ही रहेंगे।
  • पिछले दिनों जब हमारे देश के नागरिकों की विचारणा का स्तर बहुत ऊँचा था, तब शिक्षा के माध्यम से और अन्य वातावरणों के माध्यम से, धर्म और अध्यात्म के माध्यम से यह प्रयत्न किया जाता था कि आदमी ऊँचे किस्म का सोचने वाला हो एवं उसके विचार, उसकी इच्छा, आकांक्षा और महत्त्वाकांक्षाएँ नीच श्रेणी के जानवरों जैसी न होकर महापुरुषों जैसी हों। जब ये प्रयास किए जाते थे तो अपना देश कितना ऊँचा था! यहाँ के नागरिक देवताओं की श्रेणी में गिने जाते थे और यह राष्ट्र दुनिया के लोगों की आँखों में स्वर्ग जैसा दिखाई पड़ता था। इस महानता और विशेषता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है।
  • पुण्यों में सबसे बड़ा पुण्य, परोपकार है।
  • प्यार और सहकार से भरा-पूरा परिवार ही धरती का स्वर्ग होता है।
  • प्रज्ञा-युग के चार आधार होंगे – समझदारी, इमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी।
  • प्रतिभाओं की ढलाई का समर्थ संयंत्र है- ब्रह्मवर्चस, गायत्री तीर्थ शान्तिकुंज।
  • प्रतिभाशाली का पाप समाज का बहुत बड़ा अहित करता है।
  • प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है, जब वह काम आपके सामने पड़ा हो।
  • प्रत्येक व्यक्ति जो आगे बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं उन्हें यह मानकर चलना चाहिए परमात्मा ने उसे मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर भेजते समय उसकी चेतना में समस्त संभावनाओं के बीज डाल दिये हैं ।
  • प्रमादपूर्ण जीवन संसार की सारी बुराइयों और व्यसनों का जन्मदाता है।
  • प्रेम समस्त सत्प्रेरणाओं का स्रोत है।
  • प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है, जो इस प्रकाश में जीवन पथ पर अग्रसर होता है, उसे संसार में शूल नहीं, फूल नजर आता है।
  • फल की आतुरता प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
  • फूलों की सुगंध हवा के प्रतिकूल नहीं फैलती, पर सद्गुणों की कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है।
  • बच्चा माता-पिता के व्यक्तित्व और स्वभाव का संगम है।
  • बच्चों से क्या माँगना? माँगना है यह है कि जहाँ खजाना भरा पड़ा है, जहां शक्तियों के भंडार भरे पड़े हैं वहाँ खेत में बोना शुरू करें। धीरज रखें, समय लगाएँ, नियमितता-निरंतरता का ध्यान रखें।
  • बड़प्पन अमीरी में नहीं, ईमानदारी और सज्जनता में सन्निहित है।
  • बलिदान वही कर सकता है जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है ।
  • बाज़ार में वस्तुओं की कीमत दूसरे लोग निर्धारित करते हैं, पर मनुष्य अपना मूल्यांकन स्वयं करता है और वह अपना जितना मूल्यांकन करता है उससे अधिक सफलता उसे कदपित नहीं मिल पाती ।
  • बाहरी शत्रु उतनी हानि नहीं कर सकते जितनी अंतः शत्रु करते हैं ।
  • बिना श्रम के अपनी आवश्यकता पूर्ण करना चोरी है।
  • बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द कभी वापस नहीं बुलाए जा सकते।
  • बुद्धिमान् वह है जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।
  • बुरी पुस्तकें शत्रु से कम नहीं हैं।
  • भय हमारी स्थिरता और प्रगति में सबसे बड़ा बाधक है।
  • भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं।
  • भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो।
  • भाग्यवाद हमें नपुंसक और निर्जीव बनाता है।
  • भूल सुधार मनुष्य का सबसे बड़ा विवेक है।
  • मनःस्थिति बदले, तब परिस्थिति बदले।
  • मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।
  • मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।
  • मनुष्य और कुछ नहीं मात्र भटका हुआ देवता है।
  • मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।
  • मनुष्य की वास्तविक पूँजी धन नहीं, विचार हैं।
  • मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।
  • मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान् है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है।
  • महत्त्वाकांक्षाओं का सही आधार है- पवित्रता एवं प्रखरता की उच्च स्तरीय अभिवृद्धि।
  • महानता के विकास में सबसे बड़ी बाधा असंयम है।
  • महान् चरित्र और आदर्शवान् व्यक्तित्वों का समय कभी खाली नहीं रहता। उनकी महानता का चिह्न ही व्यस्तता है।
  • मातृत्व नारी के जीवन का सर्वोत्कृष्ट गौरव है।
  • मानव के कार्य ही उसके विचारों की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है।
  • मानव जीवन की सफलता का एकमात्र मार्ग सन्मार्ग ही है और ज्ञान द्वारा सन्मार्ग का निर्धारण होता है।
  • मांसाहार मानवता को त्याग कर ही किया जा सकता है।
  • मुस्कुराने की कला दुखों को आधा कर देती है।
  • यह विचारणा के चमत्कार है, विचार पद्धति के चमत्कार हैं। विचार पद्धति को बदल देने की वजह से ऋषि, ऋषि हो गए थे।
  • यदि आप अपने दैनिक जीवन और व्यवहार में निरन्तर जागरुक, सावधान रहें, छोटी छोटी बातों का ध्यान रखें, सतर्क रहें, तो आप अपने निश्चित ध्येय की प्राप्ति में निरन्तर अग्रसर हो सकते हैं। सतर्क मनुष्य कभी गलती नहीं करता, असावधान नहीं रहता और कोई उसे दबा नहीं सकता।
  • यदि मनुष्य अपनी आत्मा के सामने सच्चा है, तो उसे सारी दुनिया की परवाह नहीं करनी चाहिए।
  • यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।
  • यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें।
  • युग निर्माण योजना का प्रधान उद्देश्य है - विचार क्रान्ति । मूढ़ता और रूढ़ियों से ग्रस्त अनुपयोगी विचारों का ही आज सर्वत्र प्राधान्य है ।। आवश्यकता इस बात की है कि (१) सत्य (२) प्रेम (३) न्याय पर आधारित विवेक और तर्क से प्रभावित हमारी विचार पद्धति हो । प्रकारान्तर से यही है, महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली विचार क्रान्ति की रूप-रेखा। लोक-मानस के परिष्कार नाम से भी इसी का उल्लेख होता है। अवांछनीय मान्यताओं, गतिविधियों की रोक-थाम के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
  • युग परिवर्तन का अर्थ है- मानवीय दृष्टिकोण की परिष्कार।
  • यों संसार में शारीरिक, सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक- बहुत सी शक्तियाँ विद्यमान हैं। किन्तु इन सब शक्तियों से भी बढ़कर एक शक्ति है, जिसे विचार- शक्ति कहते हैं। वह सर्वोपरि है। उसका एक मोटा सा कारण तो यह है कि विचार-शक्ति निराकार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है और अन्य शक्तियाँ स्थूलतर। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनेक गुना शक्ति अधिक होती है।
  • रचनात्मक कार्यों से देश समर्थ बनेगा।
  • राग और द्वेष स्वार्थ और संघर्ष का जन्मदाता है।
  • राग और द्वेष, स्वार्थ और कुसंगत के जन्मदाता है।
  • राष्ट्रीय दृष्टि से स्वार्थपरता, व्यक्तिवाद, असहयोग, संकीर्णता हमारा एक प्रमुख दोष है। सारी दुनिया परस्पर सहयोग के आधार पर आगे बढ़ रही है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह परस्पर सहयोग के आधार पर ही बढ़ा और समुन्नत हुआ है। जहाँ प्रेम, ममता, एकता, आत्मीयता, सहयोग और उदारता है वहीँ स्वर्ग रहेगा।
  • लघु से महान्, अणु से विभु, आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की विचारधारा का नाम आस्तिकता है।
  • लोग क्या कहते हैं, इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बन पड़ा या नहीं।
  • लोग प्रशंसा करते हैं या निन्दा इसकी चिन्ता छोड़ो। सिर्फ एक बात सोचो कि ईमानदारी से जिम्मेदारियाँ पूरी की गई या नहीं।
  • वह स्थान मंदिर है जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक किन्तु ज्ञान के देवता निवास करते हैं।
  • वही उन्नति कर सकता है जो स्वयं को उपदेश देता है।
  • वही जीवित है जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।
  • विचार बल संसार का सर्वश्रेष्ठ बल है।
  • विचार शक्ति को एक जीवित जादू कहा जा सकता है। उसके स्पष्ट होने से निर्जीव मिट्टी नयनाभिराम खिलौने के रूप में और प्राणघातक विष जीवनदायी रसायन के रूप से बदल जाता है।
  • विचार-क्रांति किए बिना समाज-निर्माण की आधारशिला नहीं रखी जा सकेगी। ज्ञान-यज्ञ के बिना सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वतोमुखी संभावनायें प्रस्तुत कर सकने वाले नवयुग का अवतरण नहीं हो सकेगा। हमें हनुमान आदि की तरह- पांडवों की तरह-धर्म की स्थापना कर सकने वाले अधर्म-विरोधी अभियान में अपने आप को झोकना चाहिए। सभ्य समाज की रचना के लिए कुरीतियों और अनैतिकताओं के दोहरे मोर्चे पर लड़ा जाना आवश्यक है।
  • विचारों का तेज ही आपको ओजस्वी बनाता है और जीवन संग्राम में एक कुशल योद्धा की भाँति विजय भी दिलाता है। इसके विपरीत आपके मुर्दा विचार आपको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पराजित करके जीवित मृत्यु के अभिशाप के हवाले कर देंगे। जिसके विचार प्रबुद्ध हैं उसकी आत्मा प्रबुद्ध है और जिसकी आत्मा प्रबुद्ध है उससे परमात्मा दूर नहीं है।
  • विचारों के अन्दर बहुत बड़ी शक्ति होती है। विचार आदमी को गिरा सकतें है और विचार ही आदमी को उठा सकतें है, आदमी कुछ नहीं हैं।
  • विचारों को जाग्रत कीजिये, उन्हें परिष्कृत कीजिये और जीवन के हर क्षेत्र में पुरस्कृत होकर देवताओं के तुल्य ही जीवन व्यतीत करिये। विचारों की पवित्रता से ही मनुष्य का जीवन उज्ज्वल एवं उन्नत बनता है इसके अतिरिक्त जीवन को सफल बनाने का कोई उपाय मनुष्य के पास नहीं है। सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति से बड़ी शक्ति और क्या होगी?
  • विनम्र रहिये, क्योंकि आप इस महान संसार की वस्तुतः एक बहुत छोटी इकाई हैं। शील दरिद्रता का, दान दुर्गति का, बुद्धि अज्ञान का और भक्ति भय का नाश करती है।
  • विनय अपयश का नाश करता हैं, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अंत करता है।
  • विश्वास खो बैठना मनुष्य को अशोभनीय पतन है।
  • विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना भयानक दुराशा है।
  • वे माता-पिता धन्य हैं जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।
  • व्यक्ति-निर्माण और परिवार-निर्माण की तरह ही समाज-निर्माण भी हमारे अत्यंत आवश्यक दैनिक कार्यक्रमों का अंग माना जाना चाहिए। अपने लिए हम जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च करते हैं, उतना ही समाज को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए लगाना चाहिए। यह परोपकार परमार्थ की दृष्टि से ही नहीं विशुद्ध स्वार्थ-साधन और सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है। भारतीय संस्कृति की सुनिश्चित परंपरा है कि वैयक्तिक और पारिवारिक प्रयोजनों के लिए किसी को भी आधे से अधिक समय एवं मनोयोग नहीं लगाना चाहिये।
  • व्यसन और व्यभिचार दीर्घजीवन के शत्रु हैं।
  • व्यसनों से कोसों दूर रहें, क्योंकि ये वास्तविक प्राणघातक शत्रु हैं।
  • शान्ति से क्रोध को, भलाई से बुराई को, शौर्य से दुष्टता को और सत्य से असत्य को जीतें।
  • शान्तिकुंज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। सतयुगी सपनों का महल है।
  • शान्तिकुञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह प्रभात पर्व की एक नवोदित किरण है।
  • शान्तिकुञ्ज नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का नालन्दा-तक्षशिला विश्वविद्यालय है।
  • शारीरिक गुलामी से बौद्धिक गुलामी अधिक भयंकर है।
  • शालीनता बिना मोल मिलती है, पर उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।
  • शीलवान् होना किसी भी वस्त्रालंकार से बढ़कर है।
  • श्रेष्ठ आदतों में सर्वप्रमुख है- नियमितता की आदत।
  • श्रेष्ठता का मार्ग वह है जिस पर खुद चलकर ही किसी को चलने की प्रेरणा दी जा सकती है।
  • संकट या तो मनुष्य को तोड़ देते हैं या उसे चट्टान जैसा मज़बूत बना देते हैं।
  • सच्चरित्र, नि:स्वार्थ लोकसेवी ही किसी राष्ट्र को ऊँचा उठा सकते हैं।
  • सच्चा ज्ञान वह है जो हमारे गुण, कर्म, स्वभाव की त्रुटियाँ सुझाने, अच्छाईयाँ बढ़ाने एवं आत्म निर्माण की प्रेरणा प्रस्तुत करता है।
  • सज्जनता एक ऐसा दैवी गुण है जिसका मानव समाज में सर्वत्र आदर होता है। सज्जन पुरुष वन्दनीय है। वह जीवन पर्यंत पूजनीय होता है। उसके चरित्र की सफाई, मृदुल व्यवहार, एवं पवित्रता उसे उत्तम मार्ग पर चलाती हैं।
  • सट्टा, जुआ, लाटरी द्वारा कमाई गई आमदनी चोरीडकैती की तरह अनैतिक है।
  • सत्कर्म ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है।
  • सत्कार्य के आरंभ का नाश नहीं होता, वह गिरता पड़ता आगे बढ़ता चलता है। उलटा फल कभी नहीं निकलता।
  • सत्प्रयोजन में संलग्न होने वाले जो खोते हैं, उससे कहीं अधिक पाते हैं।
  • सदाचार की शक्ति अनाचार से हजार गुना बढ़कर है।
  • सद्गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।
  • संपदा को जोड़-जोड़ कर रखने वाले को भला क्या पता कि दान में कितनी मिठास है।
  • सफलता की अपेक्षा नीति श्रेष्ठ है।
  • सफलता की एक अनिवार्य शर्त है-ध्येय के प्रति अटूट निष्ठा।
  • सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं।
  • सभ्य समाज वह है जिसमें हर नागरिक को अपना व्यक्तित्व विकसित करने एवं प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए समान रूप से अवसर मिले। इस मार्ग में जितनी भी बाधायें हो उन्हें हटाया जाना चाहिए। हमें सामाजिक न्याय का ऐसा प्रबंध करना होगा कि हर व्यक्ति निर्बाध गति से प्रगति का समान अवसर प्राप्त कर सके।
  • समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ।
  • समय की पाबंदी, वचन का पालन, पैसे का विवेकपूर्ण सद्व्यय, सज्जनता और सहिष्णुता, श्रम का सम्मान, शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार, ईमानदारी की कमाई, अनैतिकता से घृणा, प्रसन्नतापूर्ण मुखाकृति, आहार और विहार का संयम, समूह के हित में स्वार्थ का परित्याग, न्याय और विवेक का सम्मान, स्वच्छता और सादगी की यह हमारे सामाजिक गुण होने चाहिये।
  • समाज के निर्माण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि अपने अपने परिवार के नव-निर्माण कार्य में प्रत्येक ग्रहस्थ पूरी रुचि लेने लगे। समाज की नवरचना दंपत्ति जीवन को परिष्कृत करने से होगी। इस प्रकार आत्मनिर्माण की प्रक्रिया आरंभ करके परिवार, समाज एवं आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत, समुन्नत बना सकना संभव होगा, यह विचार हमें जन-मानस में भली प्रकार हृदयंगम करा देना चाहिए। समाज के नव=निर्माण का मूल आधार यही है।
  • समाज के हित में अपना हित है।
  • समाज में पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना, केवल सरकार का ही काम नहीं है वरन उसका पूरा उत्तरदायित्व सभ्य नागरिकों पर है। प्रबुद्ध और मनस्वी लोग जिस बुराई के विरुद्ध आवाज उठाते हैं वह आज नहीं तो कल मिटकर रहती है।
  • समाज में यदि अनैतिक, अवांछनीय, आपराधिक तत्व भरे पड़े हैं तो उन की हलचलें, हरकतें- किसी संत, सज्जन की उत्कृष्टता को सुरक्षित नहीं रहने दे सकती। विकृत समाज में असीम विकृतियाँ उत्पन्न होती है और अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न करती है। उनकी लपेट में आये बिना कोई नीतिवान व्यक्ति भी रह नहीं सकता।
  • सर्वव्यापी, न्यायकारी, निष्पक्ष ईश्वर की प्रसन्नता सत्कर्मों पर आधारित है। कर्म के आधार पर ही वह भक्त और अभक्त की परख करता है। ईश्वर कर्तव्य परायणों को प्यार करता है।
  • सलाह सबकी सुनो, पर करो वह, जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।
  • संसार का सबसे बडा दिवालिया वह है जिसने उत्साह खो दिया।
  • संसार में उत्तम व्यवहार और शुभ कर्म करना ही भगवान् की सच्ची पूजा है।
  • सहनशीलता दैवी सम्पदा में सम्मिलित है। सहन करना कोई हँसी खेल नहीं प्रत्युत बड़े साहस और वीरता का काम है केवल महान आत्माएँ ही सहनशील होकर अपने मार्ग पर निरन्तर अग्रसर हो सकती हैं।
  • साधना का अर्थ है- कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए सत्प्रयास जारी रखना।
  • साधना का शास्त्र, वरदान या शाप का शास्त्र नहीं है। यह तो कर और देख का शास्त्र है।
  • सामाजिक कुरीतियों और सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का कायम रहना सज्जनों के भीविपत्ति का कारण ही रहेगा। व्यक्ति कितनी ही उन्नति कर ले, पतित वातावरण में यह उन्नति भी बालू की दिवार की तरह अस्थिर रहेगी। जैसे हमें जितनी व्यक्तिगत उन्नति की चिंता है उतना ही सामाजिक उन्नति का भी ध्यान रखना होगा और इसके लिए हर सम्भव प्रयत्न करना होगा। इस दिशा में की हुई उपेक्षा हमारे अपने लिये ही घातक होगी।
  • सारी दुनिया का ज्ञान प्राप्त करके भी जो स्वयं को नहीं जानता उसका सारा ज्ञान ही निरर्थक है।
  • सुअवसरों की प्रतीक्षा में न बैठो। उद्यम के लिए हर घड़ी शुभ मुहूर्त और हर पल सुअवसर है। उत्तम ज्ञान और सद्विचार कभी नष्ट नहीं होते।
  • सुख में गर्व न करें, दुःख में धैर्य न छोड़ें।
  • सुन्दर चेहरा आकर्षक भर होता है, पर सुन्दर चरित्र की प्रामाणिकता अकाट्य है।
  • स्वाध्याय मनुष्य का पथ-प्रदर्शक, नेता और मित्र जैसा हितैषी है।
  • स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा का बढ़ जाना ही व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
  • हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है, किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं, इसका अधिक महत्त्व है।
  • हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।
  • हमारा जीवन मंदिरों के लिए नहीं है, न आपका जीवन मंदिरों के लिए होना चाहिए। आपका जीवन एक काम के लिए होना चाहिए, विचारों के लिए। विचार क्रांति के लिए।
  • हमारी शिक्षा तब तक अपूर्ण रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाएगा।
  • हमारी सामाजिक क्रांति का अर्थ देश में प्रचलित कुरीतियों को हटा देने मात्र तक सीमित नहीं रहना चाहिए, वरन एक सभ्य, सुरक्षित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना होनी चाहिये। सज्जनता को जन-मानस का सहज स्वभाव बनाया जा सका तो आज की भयंकर दिखाई देने वाली कुरीतियाँ अनायास ही नष्ट हो जायेगी।
  • हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए।
  • हमें दम्भ और कपट का नहीं, सत्य का आचरण करना चाहिए। इसी में हमारा गौरव है।
  • हृदय की निष्कलंक निष्ठा का दूसरा नाम प्रेम है। प्रेम ही परमेश्वर है।
  • हृदयहीन होना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है।

उद्बोधन हेतु गेय वाक्य

सम्पादन
  • अगर रोकनी है बर्बादी,
बंद करो खर्चीली शादी।
  • अधिक कमायें अधिक उगायें,
लेकिन बाँट-बाँटकर खाएँ।
  • अधिकारों का वह हकदार,
जिसको कर्तव्यों से प्यार।
  • अनाचार बढ़ता है कब,
सदाचार चुप रहता जब।
  • अपना-अपना करो सुधार,
तभी मिटेगा भ्रष्टाचार।
  • अपनी गलती आप सुधारें,
अपनी प्रतिभा आप निखारें।
  • अहं प्रदर्शन झूठी शान,
ये सब बचकाने अरमान।
  • इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य।
  • ईश न्याय दृढ़ खरा अटल,
वहाँ न रिश्वत-घूस सफल।
  • ईश्वर के घर लगती देर,
किन्तु नहीं होता अन्धेर।
  • ईश्वर तो है केवल एक,
लेकिन उसके नाम अनेक।
  • ईश्वर ने इन्सान बनाया,
ऊँच-नीच किसने उपजाया।
  • ईश्वर बंद नहीं है मठ में,
वह तो व्याप रहा घट-घट में।
  • एक पिता की सब संतान,
नर और नारी एक समान।
  • एक बनेंगे नेक बनेंगे,
स्वस्थ बनेंगे सभ्य बनेंगे।
  • कथनी करनी भिन्न जहाँ है,
धर्म नहीं, पाखण्ड वहाँ है।
  • कदम क्रान्ति के नहीं रुकेंगे,
बेटे-बेटी नहीं बिकेंगे।
  • करते वही राष्ट्र उत्थान,
जिनको है चरित्र का ध्यान।
  • करते वृक्ष प्रदूषण दूर,
देते हैं वर्षा भरपूर।
  • करो नहीं ऐसा व्यवहार,
जो न स्वयं को हो स्वीकार।
  • कौन हरे धरती का भार,
निष्कलंक प्रज्ञावतार।
  • खोजें सभी जगह अच्छाई,
ऐसी दृष्टि सदा सुखदायी।
  • गंदे चित्र लगाओ मत,
नारी को लजाओ मत।
  • गंदे फूहड़ गीत न गाओ,
मर्यादा समझो, शरमाओ।
  • गंदे फूहड़ चित्र हटाओ,
माँ-बहिनों की लाज बचाओ।
  • गन्दे गाने गाओ मत,
नारी को लजाओ मत।
  • गन्दे गाने गाओ मत,
बच्चों को भटकाओ मत।
  • घर में टंगे  हुए जो चित्र,
घोषित करते व्यक्ति-चरित्र।
  • चाटुकार को जिसने पाला,
उस नेता का पिटा दीवाला।
  • चित्र काव्य संगीत कला,
रहें स्वस्थ, है तभी भला।
  • जनमानस बदलेंगे कौन,
जो कर सकते सेवा मौन।
  • जब तक नहीं चरित्र विकास,
तब-तब कर्मकाण्ड उपहास।
  • जहाँ जन्म से जाति जुड़ी है,
वहाँ मनुजता ध्वस्त पड़ी है।
  • जहाँ हृदय परमार्थ परायण,
वहाँ प्रकट नर में नारायण।
  • जागो शक्तिस्वरूपा नारी,
तुम हो दिव्य क्रान्ति चिनगारी।
  • जाति पाति का घातक रोग,
करता विफल एकता योग।
  • जाति-पाँति का घातकरोग,
करता विफल एकता-योग।
  • जाति-वर्ण जंजाल जहाँ है,
समता नहीं बवाल वहाँ है।
  • जिसने बेच दिया ईमान,
उनका करें नहीं गुणगान।
  • जिसने बेच दिया ईमान,
करो नहीं उसका गुणगान।
  • जीव और वन से जीवन है,
बस्ती का जीवन उपवन है।
  • जीवन उनका बना महान् ,
जिनका हर क्षण रत्न समान।
  • जीवन यज्ञ विश्व हित धर्म,
आहुतियाँ दैनिक शुभ कर्म।
  • जुआ खेलने का यह फल,
रोते फिरे युधिष्ठिर-नल।
  • जेवर नहीं बैंक का खाता,
संचित धन को सफल बनाता।
  • जैसी करनी वैसा फल,
आज नहीं तो निश्चय कल।
  • जो उपहास-विरोध पचाते,
वे ही नया कार्य कर पाते।
  • जो करता है आत्म सुधार, मिलता उसको ही प्रभु प्यार।
  • जो कुछ बच्चों को सिखलाते, उसे स्वयं कितना अपनाते?
  • जो न कर सके जन कल्याण, उस नर से अच्छा पाषाण।
  • दुर्गुण त्यागो बनो उदार, यही मुक्ति सुरपुर का द्वार।
  • दुर्व्यसनों से पिण्ड छुड़ायें, स्वस्थ बनें सुख-संपत्ति पायें।
  • धनबल जनबल बुद्धि अपार, सदाचार बिन सब बेकार।
  • धर्मक्षेत्र में पूज्य वही नर, त्यागे लोभ स्वार्थ आडम्बर।
  • धुत्त नशे में जो रहता है, संकट खड़े रोज करता है।
  • नशा नाश की जड़ है भाई, इससे दूर रहो हे भाई।।
  • नशा बड़ा ही है शैतान, हमें बना देता हैवान।
  • नशे को दूर भगाना है, खुशहाली को लाना है।
  • नारियो जागो-अपने को पहचानो।
  • नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।
  • नारी का सम्मान जहाँ है, संस्कृति का उत्थान वहाँ है।
  • नारी के हैं रूप अनेक, ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
  • नियमित और संयमित जीवन, हमको देता है चिर यौवन।
  • परम्पराएँ नहीं प्रधान, हो विवेक का ही सम्मान।
  • परहित सबसे ऊँचा कर्म, ममता-समता मानव धर्म।
  • पशुबलि झाड़ फेंक जंजाल, इनसे बचे वही खुशहाल।
  • पाण्डव पाँच हमें स्वीकार, सौ कौरव धरती के भार।
  • पिटती पत्नी बिकते जेवर, छोड़ शराबी ऐसे तेवर।
  • पुलिस-अदालत है आसान, किन्तु अटल है ईश विधान।
  • पूत-सपूत वही कहलाता, जो स्वदेश का मान बढ़ाता।
  • प्रजनन रोकें वृक्ष लगायें, शिक्षा औ सहकार बढ़ायें।
  • प्रभु के बेटे प्रेम सिखाते, निहित स्वार्थ दंगे भड़काते।
  • फूहड़ गाने, गंदे चित्र, इनसे दूर रहो हे मित्र।
  • बढ़ते जिससे मनोविकार, ऐसी कला नरक का द्वार।
  • बना इंद्रियों का जो दास, उसका कौन करे विश्वास।
  • बने युवक सज्जन शालीन, दें समाज को दिशा नवीन।
  • बनो न फैशन के दीवाने, करो आचरण मत मनमाने।
  • बहुत सरल उपदेश सुनाना, किन्तु कठिन करके दिखलाना।
  • भारत माँ की असली जय, शोषित-दलित समाज उदय।
  • मंदिर में युगधर्म पले, जन जागृति की ज्योति जले।
  • मदिरा पीने में क्या शान, गली-गली होता अपमान।।
  • मदिरा, मांस, तामसी भोजन, दूषित करते तन-मन-जीवन।
  • महाकाल की यही पुकार, बन्द करो सब भ्रष्टाचार।
  • मांस मदिरा बीड़ी-पान, असुर तत्त्व की है पहचान।
  • मान मिटा संपत्ति नशानी, नशेबाज की यही कहानी।
  • मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब संतान।
  • मानवता की ज्योति जलाएँ, जाति-धर्म मत-भेद भुलाएँ।
  • मानवता की यही पुकार, रोको नारी अत्याचार।
  • मानवता के दो आधार, सादा जीवन उच्च विचार।
  • मानव-समता के प्रिय मानक, बुद्ध मुहम्मद ईसा नानक।
  • मिलता है उसको प्रभु प्यार, जो करता है आत्म-सुधार
  • यदि सुख से चाहो तुम जीना, कभी भूलकर मद्य न पीना।
  • यही सिद्धि का सच्चा मर्म, भाग्यवाद तज करो सुकर्म।
  • रहे जहाँ नारी सम्मान, बनता है वह देश महान्।
  • लकड़ी छाया दवा फूल फल, देते वृक्ष विशुद्ध वायु-जल।
  • लघु सेवा तरु हमसे लेते, अमित लाभ जीवन भर देते।
  • लोभ स्वार्थ भोजन का धंधा, करता धर्मक्षेत्र को गंदा।
  • वन रोपें, उद्यान लगाएँ, हरा-भरा निज देश बनाएँ।
  • वन-उपवन कह रहे पुकार, देते हम जल की बौछार
  • वही दिखाते सच्ची गृह, जिन्हें न पद्-पैसे की चाह।
  • वही व्यक्ति है चतुर सुजान, जिसकी हो सीमित संतान।
  • वही व्यक्ति है सच्चा संत, जिसके स्वार्थ अहं का अन्त।
  • वृक्ष और हितकारी सन्त, हैं इनके उपकार अनन्त।
  • वृक्ष प्रदूषण-विष पी जाते, पर्यावरण पवित्र बनाते।
  • वृक्ष सभी का स्वागत करते, दे फल-फूल पंथ-श्रम हरते।
  • वृक्षारोपण कार्य महान्, एक वृक्ष दस पुत्र समान।
  • वृक्षारोपण युग अभियान, प्रजनन-संयम पुण्य महान्।
  • व्यसनों की लत जिसने डारी, अपने पैर कुल्हाड़ी मारी।
  • शासक जहाँ चरित्र विहीन, वहीं आपदा नित्य नवीन।
  • शिक्षा समझो वही सफल, जो कर दे आचार विमल।
  • शिल्पी-श्रमिक-किसान-जवान, ये हैं पृथ्वी पुत्र महान्।
  • शुभ अवसरका भोजन ठीक, मृतक-भोज है अशुभ अलीक।
  • शुभ शासककी यह पहिचान, शोषक शमन सृजन सम्मान।
  • संकट हो या दु: ख महान्, हर क्षण ओठों पर मुस्कान।
  • संभाषण के गुण हैं तीन, वाणी सत्य सरल शालीन।
  • सतयुग आयेगा कब, बहुमत चाहेगा जब।
  • सद्गुण है सच्ची संपत्ति, दुर्गुण सबसे बड़ी विपत्ति।
  • सद्गुण है सच्ची संपत्ति, दुर्गुण सबसे बड़ी विपत्ति।
  • सद्गृहस्थ का साधक जीवन, संयम-सेवा भरा तपोवन।
  • सफल ज्ञान का फल आचार, कोरा ज्ञान बुद्धि का भार।
  • सही धर्म का सच्चा नारा, प्रेम एकता भाई चारा।
  • सात्विक भोजन जो करते हैं, रोग सदा उनसे डरते हैं।
  • सिर अनीति को नहीं झुकाएँ, चाहे प्राण भले ही जाएँ।
  • सिर पर बाँध कफन लड़ेंगे, दुष्वृत्तियाँ दफन करेंगे।
  • सुधरें व्यक्ति और परिवार, होगा तभी समाज सुधार।
  • सोचो समझो बचो नशे से, जीवन जियो बड़े मजे से।
  • हँसना सीखें सृजन विचारें, आशा रखें भविष्य सुधारें।
  • हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा।
  • हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा।
  • हमारा है यह लक्ष्य महान्, बने यह धरती स्वर्ग समान।
  • हर नारी देवी कहलाए, अबला क्यों ? सबला कहलाए  
  • हरियाली भूतल-श्रृंगार, जहाँ वृक्ष हैं, वहीं बहार।
चार मंत्र
(१) समझदारी
(२) ईमानदारी
(३) जिम्मेदारी
(४) बहादुरी
चार सूत्र
(१) व्यस्त रहें, मस्त रहें
(२) सुख बाँटें, दु:ख बँटायें
(३) मिल-बाँटकर खायें
(४) सलाह लें, सम्मान दें
युग निर्माण योजना के आधार
१. व्यक्ति निर्माण
२. परिवार निर्माण
३. समाज निर्माण
युग निर्माण योजना के लक्ष्य
१. स्वस्थ शरीर
२. स्वच्छ मन
३. सभ्य समाज
युग निर्माण योजना के सुधारात्मक कार्यक्रम
१. शिक्षा का विस्तार
२. शादियों में होने वाले अपव्यय का प्रतिरोध
३. हरामखोरी-कामचोरी का तिरस्कार,
४. फैशन परस्ती, फिजूलखर्ची की रोकथाम
५. अवांछनीयताओं का उन्मूलन
विश्व परिवार के चार आधार
१. विश्व राष्ट्र
२. विश्व भापा
३. विश्व संस्कृति और
४. विश्व धर्म
विचार परिवर्तन के चार आधार
१. स्वाध्याय  
२. सत्संग 
३. मनन और 
४. चिन्तन
मानसिक स्वच्छता के चार आधार
१. सत्य 
२. संतोष 
३. स्वाध्याय और 
४. ईश्वर उपासना
आर्थिक क्षेत्र के आध्यात्मिक आधार
१. मितव्ययिता 
२. संतोप 
३. निरालस्य 
४. ईमानदारी

इन्हें भी देखें

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