नीच कुल वाला भी यदि शास्त्र जानता हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है।
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करते हैं और मूर्ख व्यक्ति व्यसन में, सोकर या कलह करके समय बिताते हैं।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥
जिस मनुष्य में स्वयं का विवेक, चेतना एवं बोध नहीं है, उसके लिए शास्त्र क्या कर सकता है। आंखों से हीन अर्थात् अंधे मनुष्य के लिए दर्पण क्या कर सकता है?
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः
अल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥ -- चाणक्यनीति
अर्थात- शास्त्रों का ज्ञान अगाध है; वे कलाएँ अनन्त हैं जो हमें सीखनी चाहिये; हमारे पास समय अल्प है, जो सीखने के मौके हैं उनमें अनेक विघ्न आते हैं। इसीलिए वही सीखें जो अत्यन्त सारभूत (महत्वपूर्ण) है, उसी प्रकार जैसे हंस पानी छोड़कर उसमे मिला हुआ दूध पी लेता है।
केवल कानून की किताबों व पोथियों मात्र के अध्ययन के आधार पर निर्णय देना उचित नहीं होता। इसके लिए ‘युक्ति’ का सहारा लिया जाना चाहिए। युक्तिहीन विचार से तो धर्म की हानि होती है।