"भारतेंदु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

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(भारत’ का प्रवेश)</big>
 
<big>भारत : हा! यही वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था, ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ और आज हम उसी को देखते हैं कि श्मशान हो रही है।

अरे यहां की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहां गए? अरे पामर जयचद्र! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं।

(रोता है) मातः; राजराजेश्वरि बिजयिनी! मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय! मैंने जाना था कि अँगरेजों के हाथ में आकर

हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर दैव से वह भी न सहा गया। हाय! कोई बचानेवाला नहीं।</big>
 
<big>(गीत)
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<big>निर्लज्जता : मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छिः छिः! जीओगे तो भीख माँग खाओगे। प्राण देना तो कायरों का काम है।
 
क्या हुआ जो धनमान सब गया ‘एक जिंदगी हजार नेआमत है।’ (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चलें। नहीं नहीं मुझसे अकेले न उठेगा।
 
(नेपथ्य की ओर) आशा! आशा! जल्दी आओ।
 
(आशा आती है)
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(नाचता है)</big>
 
<big>अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें!
 
लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा
 
कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों?
 
मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
 
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
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सत्या. फौ. : फिर महाराज जो धन की सेना बची थी उसको जीतने को भी मैंने बडे़ बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई।
 
अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया।
 
तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि ‘बम बोल गई बाबा की चारों दिसा’ धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँडिया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई,
 
डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धांय धांय गिनी गई1 वर्णमाला कंठ कराई,2 बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
 
भारतदु. : और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?
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सत्या. फौ. : हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्राुओं की फौज में हिला मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्राु बिना मारे
 
घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक एक योजन पर अलग अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य! देखें आ ही के क्या करते हैं!
 
भारतदु. : भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?
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</big>(कमरा अँगरेजी ढंग से सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)</big>
 
<big>(रोग का प्रवेश)
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मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी, देवता सब मेरे ही नामांतर हैं।
 
मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है,
 
यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चैड़ी होगी उतने ही हम भी ‘जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा’। (भारतदुदैव को देखकर) महाराज! क्या आज्ञा है?
 
भारतदु. : आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।</big>
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काल के बल से औषधों के गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे!
 
हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे?
 
ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता करके पूजेंगे,
 
यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान् इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे बच्चों की जान लेंगे।
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भारतदु. : तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा।
 
यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)
 
(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)
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आलस्य : हहा! एक पोस्ती ने कहा; पोस्ती ने पी पोस्त नै दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है।
 
एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे ओर उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा "भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।" सवार ने कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो।
 
तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुँह में डालने में यह आलस है!’’ दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।’’
Line २,६३१ ⟶ २,६३७:
<big>और क्या। काजी जो दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे ‘कोउ नृप होउ हमें का हानी, चैरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।’ आनंद से जन्म बिताना। ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।’
 
जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?’ भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना,
 
न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर।
 
‘तवंगरी बदिलस्त न बमाल।’1बमाल।’ दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त
 
(भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?
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(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)
 
(मदिरा2मदिरा आती है)</big>
 
<big>मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई।
 
स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई।
 
तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध?
<big>मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई।
 
भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं।
तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध?
 
या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं। फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्रा भूषण हैं।</big>
 
<big>दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
Line २,७५५ ⟶ २,७६५:
<big>हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्रा जीवन हैं। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्रा, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है।
 
हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्रा हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध हैं।
 
सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) महाराज की जय हो, कहिए क्या अनुमति है?
Line २,८४३ ⟶ २,८५३:
शाकता कि हमारा बोज्र्जोबल के बाहर का बात है। क्यों नहीं शाकता? अलबत्त शकैगा, परंतु जो सब लोग एक मत्त होगा। (करतलध्वनि) देखो हमारा बंगाल में इसका अनेक उपाय साधन होते हैं।
 
ब्रिटिश इंडियन ऐसोशिएशन लीग इत्यादि अनेक शभा भ्री होते हैं। कोई थोड़ा बी बात होता हम लोग मिल के बड़ा गोल करते। गवर्नमेंट तो केवल गोलमाल शे भय खाता। और कोई तरह नहीं शोनता।
 
ओ हुँआ आ अखबार वाला सब एक बार ऐसा शोर करता कि गवेर्नमेंट को अलबत्ता शुनने होता। किंतु हेंयाँ, हम देखते हैं कोई कुछ नहीं बोलता। आज शब आप सभ्य लोग एकत्रा हैं, कुछ उपाय इसका अवश्य सोचना चाहिए। (उपवेशन)।
Line २,८५९ ⟶ २,८६९:
जमना किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने लगें, कनात के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ‘‘मुए इधर न आइयो इधर जनाने हैं’’।
 
बस सब दुश्मन हट जायँगे। यही उपाय भारतदुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
 
बंगाली : (खड़े होकर) अलबत, यह भी एक उपाय है किंतु असभ्यगण आकर जो स्त्री लोगों का विचार न करके सहसा कनात को आक्रमण करेगा तो? (उपवेशन)
Line ३,२१४ ⟶ ३,२२४:
जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्रा के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा!
 
हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना।
 
विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्राी की विधि!
 
वहीही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे?
 
उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है!
 
किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा!
 
जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा कृतघ्न हूँ!
 
(रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता।
 
इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सर्वान्तर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।
 
(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)