"भारतेंदु हरिश्चंद्र": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ४,६१८:
 
 
<big> जब सभाविलास संगृहित हुई थी, तब वैसा ही काल था कि (क्यौं सखि सज्जन ना सखि पंखा) इस चाल की मुकरी लोग पढ़ते-पढ़ाते थे किन्तु अब काल बदल गया तो उसके साथ मुकरियाँ भी बदल गईं । बानगी दस पाँच देखिए--</big>
 
 
 
 
<big>सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
 
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।।
पंक्ति ४,६२९:
भीतर तत्व न झूठी तेजी ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।। </big>
 
 
 
<big>तीन बुलाए तेरह आवैं ।
 
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।।
पंक्ति ४,६३९:
आँखौ फूटे भरा न पेट ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।। </big>
 
 
 
<big>सुंदर बानी कहि समुझावै ।
 
बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।।
पंक्ति ४,६४९:
दयानिधान परम गुन-आगर ।
 
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।। </big>
 
 
 
<big>सीटी देकर पास बुलावै ।
 
रुपया ले तो निकट बिठावै ।।
पंक्ति ४,६५९:
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।। </big>
 
 
 
<big>धन लेकर कछु काम न आव ।
 
ऊँची नीची राह दिखाव ।।
पंक्ति ४,६६९:
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।। </big>
 
 
 
<big>मतलब ही की बोलै बात ।
 
राखै सदा काम की घात ।।
पंक्ति ४,६७९:
डोले पहिने सुंदर समला ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि अमला ।।</big>
 
 
 
<big>रूप दिखावत सरबस लूटै ।
 
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।।
पंक्ति ४,६८९:
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।। </big>
 
 
 
<big>भीतर भीतर सब रस चूसै ।
 
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।।
पंक्ति ४,६९९:
जाहिर बातन मैं अति तेज ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।। </big>
 
 
 
<big>सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
 
तरह तरह की बात सुनाव ।।
पंक्ति ४,७०९:
घर बैठा ही जोड़ै तार ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।। </big>
 
 
 
<big>एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
 
जनमावै ऐसा मजबूत ।।
पंक्ति ४,७१९:
करै खटाखट काम सयाना ।
 
सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।।</big>
 
 
 
<big>नई नई नित तान सुनावै ।
 
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।।
पंक्ति ४,७२९:
नित नित हमैं करै बल-सून ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।।</big>
 
 
 
<big>इनकी उनकी खिदमत करो ।
 
रुपया देते देते मरो ।।
पंक्ति ४,७३९:
तब आवै मोहिं करन खराब ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।। </big>
 
 
 
<big>लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
 
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।।
पंक्ति ४,७४९:
देस देस डोलै सजि साज ।
 
क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।।</big>
 
 
 
<big>मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
 
जाति मान धन सब कुछ लूटै ।।
पंक्ति ४,७५९:
पागल करि मोहिं करे खराब ।
 
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।। </big>