"इस्लाम": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) '* भारत में यह एक सचमुच गंभीर समस्या है। बहुत कम हिन्दू जानते हैं कि इस्लाम क्या है। बहुत कम हिंदुओं ने इस का अध्ययन किया है या इस पर कभी सोचा है। -- सर वी. एस. नॉयपाल' के साथ नया पृष्ठ बनाया |
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* भारत में यह एक सचमुच गंभीर समस्या है। बहुत कम हिन्दू जानते हैं कि इस्लाम क्या है। बहुत कम हिंदुओं ने इस का अध्ययन किया है या इस पर कभी सोचा है। -- सर वी. एस. नॉयपाल
* तुम किसी ऐसे धर्म के साथ सौमनस्य से रह सकते हो जिसका सिद्धाnत सहिष्णुता है। किnतु ऐसे धर्म के साथ शांति से रहना कैसे सmभव है जिसका सिद्धांत है “मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं करूँगा”? तुम वैसे लोगों के साथ कैसे एकता रख सकते हो? निश्चय ही, हिन्दू-मुस्लिम एकता इस आधार पर तो नहीं बन सकती कि मुसलमान तो हिन्दुओं को धर्मांतरित कराते रहेंगे जब कि हिन्दू किसी मुसलमान को धर्मांतरित नहीं कराएंगे।… मुसलमानों को हानिरहित बनाने का एक मात्र उपाय संभवतः यही है कि वे अपने मजहब पर उन्मादी विश्वास छोड़ दें। -- अरविन्द घोष, 23 जुलाई 1923, सांध्य वार्ताओं में
* मुसलमान लोग इस दृष्टि से सबसे अधिक संकुचित और संप्रदायवादी हैं। उन का घोष-वाक्य है, “अल्लाह केवल एक है और मुहम्म्द उस का पैगंबर है।” उस के अतिरिक्त जो कुछ है वह न केवल बुरा है, अपितु नष्ट हो जाना चाहिए। इस घोष-वाक्य पर आस्था न रखने वालों को तुरन्त ध्वस्त कर देना चाहिए। जो पुस्तक उन से भिन्न उपदेश देती है उसे जला देना चाहिए। पाँच सौ वर्षों तक प्रशान्त महासागर से अटलांटिक महासागर तक रक्त की धारा बहाई गई, यही है इस्लामवाद। -- स्वामी विवेकानन्द, 1900 में, पसेडेना, कैलिफोर्निया में एक व्याख्यान में
* इस से इंकार करना विवेक विरुद्ध है कि इस्लाम एक तालाब है जिस में हम सब डूब रहे हैं। अपनी जमीन की रक्षा न करना, अपने घर, अपने बच्चों, अपना आत्मसम्मान, अपने सारतत्व की रक्षा न करना विवेक विरुद्ध है। मूर्खतापूर्ण या बेईमानी भरे झूठ को स्वीकार करना, जो सूप में आर्सेनिक की तरह हमें परोसे जा रहे हैं, विवेक विरुद्ध है। कायरता या आलस्य के कारण हार मान लेना, आत्मसमर्पण कर देना विवेक विरुद्ध है। यह सोचना भी विवेक विरुद्ध है कि ट्रॉय की आग अपने-आप या मैडोना के चमत्कार से बुझ जाएगी। इसलिए सुनो मेरी बात, मैं तुमसे विनती करती हूँ! मेरी बात सुनो, क्योंकि मैं मजे के लिए या पैसे के लिए नहीं लिखती। मैं कर्तव्य के रूप में लिख रही हूँ। ऐसा कर्तव्य जो मेरी जिंदगी की कीमत पर हो रहा है। और कर्तव्यवश ही मैंने इस ट्रेजेडी पर इतना विचारा है। पिछले चार वर्षों से मैंने इस्लाम और पश्चिम का, उन के अपराध और हमारी भूलों का विश्लेषण करने के सिवा कुछ नहीं किया है। अर्थात्, वह युद्ध लड़ना जिससे हम अब और नहीं बच सकते। उसके लिए, मैंने अपना वह उपन्यास लिखना तक किनारे कर दिया, वह पुस्तक जिसे मैं ‘मेरा बच्चा’ कहती थी। इस से भी बुरा यह कि मैंने अपनी परवाह छोड़ दी, अपना जीवन। उस विंदु पर जब मेरा जीवन बहुत कम शेष बचा है। और मैं यह सोचते हुए मरना चाहूँगी कि यह बलिदान कुछ काम का रहा। -- ओरियाना फलासी, 2003 में लिखित पुस्तक ‘फोर्स ऑफ रीजन’ में।
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